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20130303

हरिवंशराय बच्चन की चर्चित कविता 'अग्निपथ' हर बार नया अर्थ देती है - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

अग्निपथ : बच्चन जी की कालजयी कविता
 प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

अग्निपथ कविता का अर्थ आत्म शक्ति संपन्न  मनुष्य का निर्माण करना है। हरिवंशराय बच्चन  की चर्चा  मधु काव्यों के लिए की जाती है, लेकिन उन्होंने कई रंगों की कविताएं लिखी हैं। इसी तरह की एक विलक्षण कविता है अग्निपथ, जो मनुष्य की अविराम संघर्ष चेतना और विजय यात्रा से रूबरू कराती है। 

जब से मनुष्य ने इस धरती पर अपनी आंखें खोली है, तब से वह कर्तव्य पथ पर चलते हुए अनेक प्रकार की बाधाओं से टकराता आ रहा है। उसकी राह में जब तब फूल के साथ कांटे भी आते रहे हैं। प्रकृति भी आसरा देने के साथ कई बार उसके सामने चुनौतियां खड़ी करती रही है। मनुष्य की इस अपरिहार्य यात्रा में यदि वह सदैव आश्रयों का ही अवलंब लेता रहा तो वह कभी आत्मशक्ति नहीं जगा पाएगा। बच्चन जी इस कविता के माध्यम से मनुष्य को आत्मशक्ति और आत्माभिमान से संपन्न बनने का आह्वान करते हैं। वे पलायन नहीं, प्रवृत्ति की ओर उन्मुख करते हैं। यह कविता हर युग, हर परिवेश, हर परिस्थिति में नया अर्थ देती है। सही अर्थों में यह एक कालजयी कविता है।


अग्निपथ के उद्गाता की जन्मशती स्मृति

अपने ढंग के अलबेले कवि हरिवंशराय बच्चन  की चर्चित कविता 'अग्निपथ' हर बार नया अर्थ देती है। 2007-2008 में एक साथ सात महान रचनाकारों - महादेवी वर्मा,  हजारीप्रसाद द्विवेदी,  हरिवंशराय बच्चन,  रामधारी सिंह दिनकर, नंददुलारे वाजपेयी, श्यामनारायण पांडे, जगन्नाथप्रसाद मिलिंद का शताब्दी वर्ष मनाने का सुअवसर मिला था। उसी मौके पर चित्रकार श्री अक्षय आमेरिया द्वारा आकल्पित पोस्टर का विमोचन कवि - आलोचक अशोक वाजपेयी एवं तत्कालीन कुलपति प्रो.रामराजेश मिश्र ने किया था। नीचे दिए गए चित्र में साथ में (दाएँ से ) संयोजक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा, लोक कलाकार कृष्णा वर्मा , पूर्व कुलसचिव डॉ. एम. के. राय, डॉ. राकेश ढंड । पोस्टर के साथ कविता का आनंद लीजिये.।।

अग्निपथ

वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छांह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

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अमिताभ बच्चन की टिप्पणी के साथ उन्हीं की आवाज में अग्निपथ कविता सुनिए : 




बच्चन जी की एक और लोकप्रिय रचना 

तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए! / हरिवंशराय बच्चन 

मेरे वर्ण-वर्ण विशृंखल 
चरण-चरण भरमाए,
गूंज-गूंज कर मिटने वाले
मैनें गीत बनाये;
कूक हो गई हूक गगन की
कोकिल के कंठो पर,
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
जब-जब जग ने कर फैलाए,
मैनें कोष लुटाया,
रंक हुआ मैं निज निधि खोकर
जगती ने क्या पाया!
भेंट न जिसमें मैं कुछ खोऊं,
पर तुम सब कुछ पाओ,
तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
सुन्दर और असुन्दर जग में
मैनें क्या न सराहा,
इतनी ममतामय दुनिया में
मैं केवल अनचाहा;
देखूं अब किसकी रुकती है
आ मुझ पर अभिलाषा,
तुम रख लो, मेरा मान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
दुख से जीवन बीता फिर भी
शेष अभी कुछ रहता,
जीवन की अंतिम घडियों में
भी तुमसे यह कहता
सुख की सांस पर होता
है अमरत्व निछावर,
तुम छू दो, मेरा प्राण अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!

हरिवंशराय बच्चन  (27 नवम्बर 1907 – 18 जनवरी 2003)


 पोस्टर का विमोचन करते हुए कवि - आलोचक श्री अशोक वाजपेयी एवं तत्कालीन कुलपति प्रो.रामराजेश मिश्र। साथ में (दाएँ से ) समन्वयक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा, लोक कलाकार कृष्णा वर्मा , तत्कालीन कुलसचिव डॉ. एम. के. राय, डॉ. राकेश ढंड ।





साजन आ‌ए, सावन आया
हरिवंशराय बच्चन 

अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आ‌ए, सावन आया।

धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव ग‌ई मुझपर गहरा,

है नियति-प्रकृति की ऋतु‌ओं में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आ‌ए, सावन आया।

तूफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,

झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लि‌ए आया-
ऐसी निकली ही धूप नहीं
जो साथ नहीं ला‌ई छाया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आ‌ए, सावन आया।

घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,

मुरझाती लतिका पर को‌ई
जैसे पानी के छींटे दे,
ओ' फिर जीवन की साँसे ले
उसकी म्रियमाण-जली काया।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आ‌ए, सावन आया।

रोमांच हु‌आ जब अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हु‌ए,
जैसे जादू की लकड़ी से
को‌ई दोनों को संग छु‌ए,

सिंचित-सा कंठ पपीहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आ‌ए, सावन आया।

20130207

विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केन्द्र, उज्जैन



विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केन्द्र : एक परिचय

प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन की हिन्दी अध्ययनशाला में नव स्थापित विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र में संग्रहकार्य,सर्वेक्षण एवं दस्तावेजीकरण जारी है। विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हिन्दी के बहुकोणीय रेखांकन के लिए 2007 ई.  में स्थापित इस संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र में विगत एक हजार से अधिक वर्षों के हिन्दी साहित्य के महत्त्वपूर्ण पक्षों को प्रस्तुत करने के साथ ही साहित्यिक पत्रिकाओं के विशेषांक,देश-विदेश के विभिन्न भागों से प्रकाशित हिन्दी समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ, प्रकाशन सूचियॉं,अनुसंधान सूचनाएं एवं अन्य आधार सामग्री को सॅंजोया गया है।
        विक्रम विश्वविद्यालय,उज्जैन के विश्वहिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र के संस्थापक- समन्वयक प्रो.शैलेन्द्रकुमार शर्मा द्वारा परिकल्पित इस केंद्र में देशांतरीय हिन्दी साहित्य के साथ ही बसव समिति, बेंगलुरु,आंध्रप्रदेश हिन्दी अकादमी, हैदराबाद आदि संस्थाओं  द्वारा अर्पित साहित्य, स्त्री एवं दलित विमर्श , राजभाषा एवं प्रयोजनमूलक हिंदी से संबद्ध महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों को संग्रहीत किया गया है। प्रदर्शनकारी एवं रूपंकर कलाओं, संस्कृत साहित्य से संबद्ध सामग्री, बालसाहित्य, पर्यटन साहित्य,स्वाधीनता आंदोलन पर केंद्रित साहित्य भी यहां संजोया गया है। हिन्दी की साहित्यिक एवं लघु पत्रिकाओं के दुर्लभ अंकों के  साथ ही वर्तमान में प्रकाशित हो रहीं पाँच  सौ से अधिक पत्र-पत्रिकाओं के अंक भी अवलोकनार्थ उपलब्ध हैं।   यहॉं स्थापित श्री गुरुनानक अध्ययन पीठ की दृष्टि से भारतीय भाषाओं में भक्ति साहित्य एवं गुरुनानक देव के साहित्य के साथ ही श्री गुरु ग्रंथ साहिब महत्त्वपूर्ण पुस्तकें तथा पत्र- पत्रिकाएं संजोयी गई हैं।
       अपने ढंग के इस प्रथम विश्व हिन्दी संग्रहालय में हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों पर एकाग्र वृत्तचित्रों के साथ ही लोकभाषा में निबद्ध गाथा, कथा तथा गीतों की आडियो-वीडियो, सीडी संजोयी गयी हैं, जिनका समय-समय पर प्रदर्शन किया जाता है।यहॉं प्रमुख साहित्यकारों के चित्र,हस्तलेख, पत्र आदि के डिजिटलीकरण की दिशा में कार्य जारी है। संग्रहालय में विभिन्न संस्थाओं साहित्यकारों एवं साहित्यरसिकों द्वारा भी महत्त्वपूर्ण सामग्री अर्पित की जा रही है। विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र के लोक- संस्कृति प्रभाग में मालवी लोक-संस्कृति के  विविध पक्षों पर व्यापक कार्य जारी है। मालवी संस्कृति के समेकित रूपांकन एवं अभिलेखन की दिशा में विशेष प्रयास जारी हैं। यहॉं हिन्दी एवं मालवी के शीर्ष रचनाकारों के परिचयात्मक विवरण, कविता एवं चित्रों की दीर्घा संजोयी गयी है । चित्रावण, संजा, मांडणा, कठपुतली कला सहित मालवा क्षेत्र के विविध कलारूपों और भीली जनजातीय संस्कृति से सम्बद्ध महत्त्वपूर्ण सामग्री को भी इस संग्रहालय में संजोया गया है।हिन्दी और उसकी क्षेत्रीय बोलियों विशेषतः मालवी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के विविध पक्षों से संबद्ध साहित्य, लेख एवं सूचनाओं का दस्तावेजीकरण इस केंद्र में किया जा रहा है।भारत की प्रमुख लोकभाषाओं यथा- मालवी, बुन्देली, हाड़ौती, मेवाडी, मारवाडी, भोजपुरी, हरियाणवी, कन्नौजी, कनपुरिया, अवधी,  ब्रजभाषा, निमाडी, भीली, भिलाली, बारेली, सहरिया, गोंडी जैसी बोलियों के अभिलेखन की दिशा में भी कार्य जारी है।
हाल के दशकों में विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में एक साथ कई दिशाओं में शोध कार्य हुआ है, जिनमें हिन्दी भाषा-साहित्य एवं संस्कृति के विविध आयामों के साथ ही हिन्दी कम्प्यूटिंग,वेब पत्रकारिता, दृश्य जनसंचार-माध्यम,मशीनी अनुवाद, राजभाषा हिन्दी आदि के अधुनातन संदर्भ उल्लेखनीय हैं। यहॉं विश्वभाषा हिन्दी के साथ ही लोकभाषा मालवी के साहित्य एवं संस्कृति को लेकर महत्त्वपूर्ण काम  हुआ है और आज भी जारी हैं। यहॉं स्थापित मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केंद्र के अंतर्गत मालवी और उसकी उपबोलियों-सोंधवाड़ी, रजवाडी, दशोरी, उमठवाडी, निमाडी आदि पर महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है। यहॉं स्थापित भारतीय लोक एवं जनजातीय संस्कृति केंद्र के अंतर्गत बुन्देली, हाडौती, मेवाडी, भोजपुरी, हरियाणवी, अवधी, ब्रजभाषा, निमाडी, भीली, बारेली, सहरिया, गोंडी आदि पर भी उल्लेखनीय कार्य हुआ है। मालवी लोक-संस्कृति के विविध पक्षों, यथा-व्रत पर्व उत्सव पर केंद्रित लोक साहित्य, लोकदेवता, साहित्य, पर्यावरण, शृंगारपरक लोकगीत, हीड काव्य, माच परम्परा, संजा पर्व, चित्रावण, मांडणा, विरद बखाण, गाथा साहित्य, लोकोक्ति आदि पर भी महत्त्वपूर्ण अनुसंधान एवं अभिलेखन जारी है। हिन्दी अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन हिन्दी के साथ ही भारत की विविध बोलियों के लोक-साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में कार्य के लिए कृत- संकल्पित है। इसदिशा में रचनात्मक सुझावों का सदैव स्वागत रहेगा। इस प्रथम विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र के समुचित विकास की दिशा में संभावनाओं के द्वार खुले हुए हैं। इस हेतु देश-विदेश की अकादमिक संस्थाओं, साहित्यकारों तथा विद्वानों से सहयोग का अनुरोध है।

प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
संस्थापक-समन्वयक
विश्व हिन्दी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र
हिन्दी अध्ययनशाला                      
 विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन

[म.प्र.] भारत


संग्रहालय का अवलोकन करते हुए अशोक वाजपेयी 
अशोक वाजपेयी को संग्रहालय का अवलोकन कराते हुए
डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा


संग्रहालय का अवलोकन करते हुए अशोक चक्रधर 
अशोक चक्रधर को संग्रहालय का अवलोकन कराते हुए
डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा 







सृजन संस्कार वर्ष 2007-08:
एक शताब्दी हिन्दी के सात स्वरों की
 के अवसर पर
जारी   पोस्टर
             

20130125

आधुनिक हिन्दी कविता में राष्ट्रीयता के अमर स्वर - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Immortal Voices of Nationalism in Modern Hindi Poetry - Prof. Shailendra Kumar Sharma

हिन्दी कविता में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति : राष्ट्रीय काव्य धारा

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा


वैसे तो वसुधैवकुटुम्बकम्का सूत्र साहित्य एवं अन्य कला रूपों के केंद्र में रहा है, फिर भी अलग-अलग स्तरों पर जीते हुए कभी हम स्थानीयता या आंचलिकता के मान-बिन्दुओं की तलाश करते हैं तो कभी राष्ट्रीयता के। वस्तुतः स्थानीयता, राष्ट्रीयता और वैश्विकता के आयाम परस्पर पूरक भूमिका निभाते चलते हैं। अथर्ववेद का सूत्र माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याःप्रत्येक व्यक्ति के सामने पृथ्वीपुत्र होने का प्रादर्श रखता है। इसी बात को रामायणकार वाल्मीकि राम के मुख से कुछ इस तरह कहलवाते हैं, ‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।अपनी जन्मभूमि या भूखण्ड के प्रति प्रेम की इसी अभिव्यक्ति से राष्ट्रकी अवधारणा ने जन्म लिया। राष्ट्र का प्रयोग हमारी परम्परा में तीन परस्पर सम्बद्ध अर्थों में होता आ रहा है। पहला राज्य, देश या साम्राज्य के अर्थ में, जैसे राष्ट्रदुर्गबलानि-अमरकोश, मनुस्मृति, (7/109, 10/61), दूसरा जिले, देश, प्रदेश या मंडल (मनु 7/73) के अर्थ में, जैसा आज भी सौराष्ट्र या महाराष्ट्र जैसे शब्दों में होता है, तथा तीसरा प्रजा, जनता या अधिवासी के अर्थ में (मनु. 9/254)।  जाहिर है, जब हम राष्ट्रकी बात करते हैं, तब उसमें भूमि, जन और उनकी संस्कृति - सब कुछ समाहित हो जाते हैं। यजुर्वेद इसी राष्ट्र के प्रति जागरूक होने का आह्वान करता है, ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहितः।स्थानीयता  के आग्रहों के बावजूद भारतीय जनमानस में आसेतुहिमालयजैसे विस्तृत भूभाग के प्रति गहरा अनुराग सहस्राब्दियों से रहा है। यज्ञानुष्ठानों में जम्बूदीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गतेकहकर अपनी भूमि के प्रति लगाव की अभिव्यक्ति कई शताब्दियों से जारी है। पुराणकालीन भारत का चित्र समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण के भूभाग को समेटता है, जिसकी प्रजा या संतति को भारती की संज्ञा मिली हुई है -

                                                                
उत्तरैण समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणे।
                                                                
वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्रा संततिः।। (ब्रह्मपुराण)

                
विष्णु पुराण (20/3/24) तो इसे स्वर्ग से भी बेहतर ठहराता है -
                                                                
‘‘गायन्ति देवाः किल गीतिकानि धन्यास्तु ते भारतभूमि भागे।
                                                               

स्वर्गापर्गास्पद हेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषः सुरत्वात्।।’’

                
अर्थात् भारत में जन्म लेना सौभाग्य की बात है, तभी देवगण स्वर्ग का सुख भोगते हुए भी मोक्ष साधना के लिए कर्मभूमि भारत में जन्म लेने की कामना करते हैं।

                
राष्ट्र-निर्माण के लिए जरूरी घटकों में देश, जाति, धर्म, संस्कृति और भाषा को मान्यता दी जाती है। देश से आशय उसके अपने भूगोल से है, जाति वहाँ रहने वाले जनसमुदाय की बोधक है और फिर सबको धारण करने वाले धर्म का होना भी जरूरी है। यहाँ धर्म संकीर्ण अर्थ का वाचक नहीं है। संस्कृति उस राष्ट्र के जन-समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति यदि उच्चतम चिंतन का मूर्त रूप है तो  है तो भाषा उसका माध्यम है। जाहिर है किसी भी राष्ट्र की एकता इन सभी घटकों के प्रति गहरी आत्मीयता पर निर्भर करती है। राष्ट्रीयता के लिए बेहद जरूरी है बाहरी तौर पर दिखाई देने वाले अंतर के बावजूद आंतरिक समभावना और संगठन। इसीलिए बालकृष्ण शर्मा नवीनजैसे प्रखर राष्ट्रचेता कवि ने राष्ट्रीयता को एक भावना मात्र पर अवलम्बित माना है। वे इस भावना  के उदय के पीछे आर्थिक, ऐतिहासिक, भाषा विषयक, भौगोलिक एवं सभ्यता विषयक एकता को नहीं मानते हैं, वरन् प्रेम, घृणा, र्ष्या द्वेष आदि मनोभावों के विकास की श्रेणी में राष्ट्रीय भावना को भी स्थान देते हैं। मनुष्य की एक स्वाभाविक मनोवृत्ति के रूप में विकसित राष्ट्रीयता राष्ट्र के भौतिक और आन्तरिक - समस्त प्रकार के कल्याण की कामना का संवहन करती है। भारतीय संदर्भ में देखें तो अनेक शताब्दियों से राष्ट्रीयता की भावना का उन्मेष होता आ रहा है। खासतौर पर परतंत्रता के दौर में इसका तीखा अहसास भारतीय जनमानस में पैबस्त रहा है।

जहाँ तक आधुनिक युग का सवाल है ब्रिटिश सत्ता के दमनकारी रवैये से क्षुब्ध हो भारतवासियों में राष्ट्रीयता का नया उन्मेष 1850 तक आते-आते दिखाई देने लगा था, जिसकी प्रखर अभिव्यक्ति 1857 के स्वातंत्रय समर में हुई। उस दौर के तराने और लोकाभिव्यक्तियों में फिरंगियों की फूट डालो और राज करोकी नीति की खरी पहचान दिखाई देती है, वहीं गुलामी की जंजीरों की तोड़ने की अकुलाहट भी नजर आती है। उसी दौर में राष्ट्रीयता के अभेद्य और अखंड रूप की नए सिरे से पहचान होने लगी थी, जो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन तक आते-आते और स्पष्ट होती चली गई

सन् 1857 ई. के क्रांतिकारी सैनिकों के कौमी गीत की ये पंक्तियाँ भारतीयता के पहचान बिन्दुओं का साक्ष्य देती हैं, जिसमें भारत का भूगोल भी है, तो यहाँ की आध्यात्मिकता का रंग भी।

                                                                
‘‘हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा
                                                                
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा
                                                                
ये है हमारी मिल्कियत हिन्दुस्तान हमारा    
                                                                
इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा
                                                                
कितनी कदीम कितना नईम, सब दुनिया से न्यारा
                                                                
करती है जरखेज़ जिसे गंगो-जमुन की धारा
                                                                
ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा
                                                                
नीचे साहिल पर बजता, सागर का नक्कारा’’

                
यह गीत राष्ट्रीय एकता के लिए सर्वधर्म सद्भाव को भी बेहद जरूरी मानता है -

                                                                
हिन्दु मुसलमां सिख हमारा भाई भाई प्यारा
                                                                
यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा।।

                
1857 से लेकर 1900 तक आते-आते भारत दुर्दशाकी पहचान भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाओं में तो दिखाई दी ही, द्विवेदी युग इसमें नए आयाम जुड़ने लगे। अपनी गाँव की मिट्टी से प्रेम के साथ सर्वमंगल की कामना और राष्ट्रीय जीवन के संदभों को उठाकर द्विवेदीयुगीन रचनाकारों ने राष्ट्रीयता के उभार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, जिनमें मैथिलीशरण गुप्त, प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चैधरी प्रेमधन’, पं. श्रीधर पाठक आदि उल्लेखनीय हैं। इस दौर की कविताओं में पुनर्जागरणकालीन मूल्यों का स्पष्ट विकास दिखाई देने लगा। छायावाद और उसके समानांतर, राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्यधारा में जहाँ स्वदेशाभियान साथ-साथ राष्ट्र के मर्म की बहुआयामी अभिव्यक्ति हुई, वहीं राष्ट्रमुक्ति के लिए निवृत्ति के स्थान पर प्रवृत्ति के पथ पर चलने का आह्वान जन-मन को आंदोलित करने लगा। अरुण यह मधुमय देश हमारा’, ‘वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला हो’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘वीरों का कैसा हो वसंतजैसे गीत राष्ट्र-जीवन को गति देते हुए नई पे्ररणा का संचार करने लगे। माखनलाल चतुर्वेदी पुष्प की अभिलाषामें न रीति-शृंगार की परम्परा से जुड़ना चाहते हैं और न सामंती व्यवस्था के अंग बनना चाहते हैं। इस नए दौर में ईश्वर की प्रार्थनालयों में खोजने की बजाय राष्ट्र के रूप में उसकी पहचान की गई। ईश्वर की नई परिभाषा को गढ़ते हुए माखनलाल जी जवानीका आह्वान करते हैं -
                                                                
‘‘प्राण अंतर में लिए पागल जवानी
                                                                
कौन कहता है कि तू विधवा हुई, खो आज पानी?
         _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
                                                                
क्या-जले बारूद? हिम के प्राण पाए,
                                                                
क्या मिला जो प्रणय के सपने न भाए,
                                                                
धरा यह तरबूज है, दो फाँक कर दे,
                                                                
चढ़ा दे स्वातंत्र्य -प्रभु पर अमर पानी।
                                                                
विश्व माने तू जवानी है, जवानी।’’

                
भारतीय राष्ट्रीयता के उन्नेष में बहुविध स्वर मिले हैं। इन सबसे मिलकर भारत माता का जो स्वरूप बना है, वह आज अधिक काम्य हो गया है। चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थीके जरिये सन् 1857 के लोक स्वर को दर्ज करने के साथ सुभद्राकुमारी चैहान ने राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने के लिए पुराख्यानों की पुनराख्या की राह भी अपनाई थी, जो सर्वथा नवीन प्रभाव को रचती है। उनकी विजयादशमीकविता हमारे सांस्कृतिक प्रतिमानों की युगोचित व्याख्या कुछ इस तरह करती है-
                                                                
‘‘दो विजये ! वह आत्मिक बल दो वह हुंकार मचाने दो।
                                                                
अपनी निर्बल आवाजों से दुनिया को दहलाने दो।
                                                                
जय स्वतंत्रिणी भारत माँयों कहकर मुकुट लगाने दो।
                                                                
हमें नहीं इस भू-मण्डल को माँ पर बलि-बलि जाने दो।
                                                                
छेड़ दिया संग्राम, रहेगी हलचल आठों याम सखी!
                                                                
असहयोग सर तान खड़ा है भारत का श्रीराम सखी!
                                                                        
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ __
                                                                
भारत लक्ष्मी लौटाने को रच दें लंका काण्ड सखी!’’

                
यहाँ महात्मा गाँधी राम की भूमिका में हैं जो परतंत्रता रूपी बेड़ी को काटने के लिए असहयोग की मुद्रा अपनाते हैं। इस नई रामकथा के नए लंकाकांड को रचते हुए सुभद्राजी आत्मिक बल का संचार चाहती हैं, जो राष्ट्रीयता की अहम पहचान है।

                
हमारे महान् क्रांतिकारियों ने तन-मन-धन सब न्यौछावर कर इस राष्ट्र को गुलामी की जंजीरों से मुक्त अवश्य कर दिया है, किन्तु हम अब भी मातृभूमि को संतापों से मुक्त नहीं करा पाए हैं। आज की सबसे बड़ी पीड़ा यही है कि कहीं हम भाषा, धर्म या जाति के नाम पर लड़े रहे हैं तो कहीं क्षेत्र या नस्ल के नाम पर। हिंदू पंचका बलिदान अंक जनवरी 1930 में कोलकाता से प्रकाशित हुआ था, जिसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था। उसी अंक में प्रकाशित धनंजय भट्ट सरलकी कविता जन्मभूमिचंद पंक्तियों में बहुत कुछ कर जाती है।

पाल-पोस कर जिसने मुझको
इतना बड़ा बनाया है।
जिसे जल-मिट्टी आदिक से
मेरा तन गया रचाया है।
उस जन्मभूमि की रक्षा हित
तन, मन, धन सब वार करें।
यही जीवनोद्देश्य हमारा
जननी का संताप हरें।
(हिंदू पंच, बलिदान अंक, ‘जन्मभूमिकविता, पृ. 206)
                
समकालीन संदर्भ में राष्ट्रीयता के उन्मेष के लिए जरूरी है कि हमें अपने इतिहास के काल-उजले पन्नों का भान हो, अन्यथा स्वाधीनता पर्व महज रस्म अदायगी से आगे नहीं बढ़ पाएगा। हिंदू पंच के बलिदान अंक में ही प्रकाशित छैलबिहारी दीक्षित कंटककी कविता बलिदानइस दिशा में महत्त्वपूर्ण संकेत देती है -

                                                                
‘‘वीर शहीदों की करनी पर हँसते होंगे मंगलमूल,
                                                                
बरसा रहे गगन से देखो? सादर सुर-समूह भी फूल।
                                                                
ये रहस्य से भरे न कोई इनको सकता यों ही भूल
                                                                
तरुण-तपस्वी तर जाते हैं धर कर इनके पद की धूल।

                
कंटक जी इस नए दौर में सर्वथा नए पर्वों, नए तीर्थ स्थलों के निर्माण का संकेत देते हैं। बलि-वेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीरों का निस्पृह बलिदान व्यर्थ नहीं गया है, जिसकी दशकों पहले कल्पना की गई थी -

                                                               
जिस दिन जहाँ करेंगे ये सब
                                                                            स्वर्ग लोक को चिर-प्रस्थान।
                                                                
वह दिन होगा पर्व और
                                                                            होगा वह स्थल तीर्थ-स्थान।।
                                                                
चमकेगा - दिन-दिन चमकेगा - वीरों का निस्पृह बलिदान,
                                                                
उठा सकेगा जग के सम्मुख फिर सगर्व सिर हिन्दुस्थान।
                                                                
नस-नस में बिजली दौड़ेगी सुनकर इनका गौरव-गान,
                                                                
गर्म खू़न खौलेगा, फड़केगी फिर शूरों की सन्तान।।
                                                                                                पढ़कर यह इतिहास गुलामी का,
                                                                                                सचमुच आयेगा रोष।
                                                                                                देखेंगे दाँतों में ऊँगली दिये,
                                                                                                लोग वह जीवित जोश।।

                
नागार्जुन की कविता उनको प्रणाम!भी बलिवेदी पर प्राणोत्सर्ग करने वाले मातृभूमि के असंख्य वीर पुत्रों का  भावविह्वल स्मरण कराती है। इस कविता का संकेत साफ है कि यदि हम इन बलिदानियों को भूल गए, तो हमारी कृतघ्नता की कोई सीमा नहीं।

                                                                
‘‘जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
                                                                
मैं उनको करता हूँ प्रणाम।
                                                                
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _
                                                               
कृत-कृत नहीं जो हो पाए,
                                                                
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
                                                                
कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी
                                                                
यह दुनिया जिनको गई भूल ! - उनको प्रणाम!
                                                               
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
                                                                
पर विज्ञापन से रहे दूर
                                                                
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
                                                                
कर दिए मनोरथ चूर-चूर! - उनको प्रणाम!

                
सच्ची राष्ट्रीयता वहाँ है, जब राष्ट्र का हर जर्रा प्रिय हो। इकबाल ने कहा है-

                                                                
पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है
                                                                
खाके वतन का मुझको हर जर्रा देवता है।

                
वे राष्ट्र की जो तस्वीर आँकते हैं, उसमें तुंग हिमालय से लेकर गंगा सहित हजारों नदियाँ अठखेलियाँ करती नज़र आती हैं।

                                                                
परबत को सबसे ऊँचा हमसाया आस्मां का
                                                                
वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा
                                                                
गोदी में खेलती हैं इसकी हजारों नदियाँ
                                                                
गुलशन है जिनके दम से रश्के-जना हमारा। सारे जहाँ से  अच्छा हिंदुस्ता हमारा ...

                
फिर देश-प्रेम का यह जज्ब़ा तब ज्यादा रंग लाता है, जब हम देश से दूर होते हैं -

                                                                
गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
                                                                

समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा। सारे जहाँ से अच्छा....

                
बालकृष्ण नवीन’, रामधारीसिंह दिनकरश्यामनारायण पांडे, जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द आदि की रचनाओं में जहाँ एक ओर आजादी के आंदोलन की आहट सुनाई देती है, वहीं स्वातंत्र्योत्तर भारत में औपनिवेशिक दासता से मुक्ति की छटपटाहट भी दिखाई देती है। वस्तुतः राष्ट्रीय चेतना को सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से पृथक् मानना बहुत बड़ी भूल होगी। इन सभी कवियों का संकेत साफ है कि हम राजनीतिक दृष्टि से ही स्वाधीनता न हों, वैचारिक धरातल पर भी स्वातंत्र्य चेता बनें। इसीलिए दिनकर को लगता है, आज भी समर शेष है-

                                                                
‘‘समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा।
                                                                
और नहीं तो तुझ पर पापिनी महावज्र टूटेगा।’’

                
बालकृष्ण शर्मा नवीनको उस जन-गण की चिंता है, जो भूख और अभाव से ग्रस्त हैं। वे नयी सामाजिक संरचना को गढ़ने को जरूरी मानते हैं, जिसके बिना आजादी का कोई अर्थ नहीं रहेगा।
                                                                
हाय! इन्हीं आँखों से देखे
                                                                
ज्वाला में लिपटे मानव-तन
                                                                
होते भस्मीभूत विलोके
                                                                
मैंने अपने ही सब जन-गण।
                                                                                                आज चतुर्दिक धधक रही है
                                                                                                अति विकराल भूख की होली,
                                                                                                और बनी जन-गण की आँखें
                                                                                                फैली, फटी भीख की झोली!
                                                                
देखो, छाती पर पत्थर रख,
                                                                
वह समूह नर-कंकालों का।
                                                                
देखो, झुण्ड आ रहा है वह
                                                                
भूखे, नंगे कंगालों का!
                                                                                                यूँ तो वह आ नहीं रहा है,
                                                                                                वह तो रंच लड़खड़ाता है,
                                                                                                सामाजिकता के पिंजड़े में
                                                                                                पंछी तनिक फड़फड़ाता है!
                                                                                    _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
                                                                
हम पत्थर हैं, या कायर है
                                                                
जो यह सर्वनाश लखकर भी-
                                                                
रच न सके नव सामाजिक क्रम,
                                                                
ये इतने कटु फल चखकर भी!
                                                                                                क्या यह बात असम्भव थी कुछ
                                                                                                कि सब सूत्र अपने कर होते ?
                                                                                                अपना घर अपना ही होता
                                                                                                यदि हम कुछ कम कायर होते (दग्ध हो रहे हैं मेरे जन)
                
समकालीन हिन्दी कविता में भी राष्ट्र के सामने मौजूद संकटों और राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्त्वों को लेकर चिंता का स्वर उभार पर है। आज की कविता भारत की समकालीन दुरावस्था से बेचैनी का साक्ष्य देती है। कवि धूमिल को यदि आजादी के भटकाव का बेचैन कर देने वाला अनुभव होता है, तो उनकी पीड़ा समझी जानी चाहिए -
                                                                
या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
                                                                
जिन्हें एक पहिया ढोता है या
                                                                
इसका कोई खास मतलब होता है।

                
आज का कवि भी भारत में जन्म लेने का अर्थ पाना चाहता है, किंतु उसे वह पारस्परिक वैमनस्य, हिंसा और आतंक की भेंट चढ़ गया-सा लगता है। इसी तरह भूमण्डलीकरण के नाम पर भारत का पश्चिमीकरण और उपभोक्तावाद का सर्वग्रासी विस्तार जारी है। आलोकधन्वा की कविता सफेद रातकी पंक्तियाँ हमारे राष्ट्र-जीवन के इन्हीं त्रासों को मूर्त करती हैं -
                                                                
लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ
                                                                
इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद
                                                                
कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़
                                                                
अब इन्हीं शहरों में
                                                               
कई तरह की हिंसा कई तरह के बाजार
                                                                
कई तरह के सौदाई
                                                                
इनके भीतर इनके आसपास
                                                               
इनसे बहुत दूर बम्बई हैदराबाद अमृतसर
                                                                
और श्रीनगर तक
                                                                
हिंसा
                                                                
और हिंसा की तैयारी
                                                                
और हिंसा की ताकत
                                                                
बहस नहीं चल पाती
                                                                
हत्याएँ होती हैं
                                                                
फिर जो बहस चलती है
                                                                
उसका भी अंत हत्याओं में होता है
                                                                
भारत में जन्म लेने का
                                                                
मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था
                                                                
अब वह भारत भी नहीं रहा
                                                                
जिसमें जन्म लिया’’
                
आजादी की रक्षा तभी सम्भव है, जब हम राष्ट्रीयता के निर्धारक तत्त्वों की खरी पहचान ही नहीं रखें, उन्हें जीवन में आत्मसात् भी करें। वस्तुतः हमें राष्ट्रजीवन को सम्पूर्णता में ही देखना होगा। राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अस्मिता की बात करते हुए समाज के किसी खास वर्ग या समुदाय को छोड़कर लक्ष्य की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है। आज जब देश में अलग-अलग प्रांत और इलाकों के नाम पर अलगाव और विभेद के बीज बोए जा रहे हैं, वहीं एक और अखंड राष्ट्रीयता को खंडित राष्ट्रीयता में ढाले जाने के षडयंत्र जारी हैं, तब आधुनिक कविता के राष्ट्रीय स्वर की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। गिरिजाकुमार माथुर पंद्रह अगस्तको केवल रस्म अदायगी के रूप में नहीं लेते हैं, इसके जरिये वे गहरी सजगता का आह्वान भी करते हैं, जिसकी जरूरत आज ज्यादा महसूस हो रही है -

                                                                
‘‘आज जीत की रात
                                                                
पहरुए सावधान रहना
                                                                
खुले देश के द्वार
                                                               
अचल दीपक समान रहना

                                                                
प्रथम चरण है नए स्वर्ग का
                                                               
है मंजि़ल का छोर
                                                                
इस जन-मन्थन से उठ आई
                                                                
पहली रत्न हिलोर
                                                                
अभी शेष है पूरी होना
                                                                
जीवन मुक्ता डोर
                                                                
क्योंकि नहीं मिट पाई दुःख की
                                                                
विगत साँवली कोर
                                                               
ले युग की पतवार
                                                                
बने अम्बुधि महान रहना
                                                                
पहरुए, सावधान रहना!
                                                               
_ _ _ _ _ _ _ _ _
                                                                
‘‘ऊँची हुई मशाल हमारी
                                                                
आगे कठिन डगर है
                                                                
शत्रु हट गया, लेकिन
                                                                
उसकी छायाओं का डर है
                                                                
शोषण से मृत है समाज
                                                                
कमज़ोर हमारा घर है
                                                                
किन्तु आ रही नई जिन्दगी
                                                                
यह विश्वास अमर है

                                                                
जन गंगा में ज्वार
                                                               
लहर तुम प्रवहमान रहना
                                                                
पहरुए, सावधान रहना!’’


डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा 
आचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय , उज्जैन 





ब्रिटिशकालीन भारत 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र 



रामधारीसिंह दिनकर 

माखनलाल चतुर्वेदी 




नागार्जुन 


बालकृष्ण शर्मा नवीन 



गिरिजाकुमार माथुर 

आलोकधन्वा के साथ डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा 

वर्धा में गांधी प्रतिमा 


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