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20150523

फार्मूलाबद्ध लेखन से परे युगल की लघुकथाएँ - प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

लघुकथा को हाशिये में कैद होने से बचाने की बेचैनी लिए युगल की लघुकथाएँ
              प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

लघुकथा समकालीन साहित्य की एक अनिवार्य और स्वायत्त विधा के रूप में स्थापित हो गई है। नई सदी में यह सामाजिक बदलाव को गति देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। विशेष तौर पर मूल्यों के क्षरण के दौर में अनेक लघुकथाकार तीखा शर- संधान कर रहे हैं। इस क्षेत्र में सक्रिय कई रचनाकारों ने अपनी सजग क्रियाशीलता और प्रतिबद्धता से लघुकथा की अन्य विधाओं से विलक्षणता को न सिर्फ सिद्ध कर दिखाया है, वरन उससे आगे जाकर वे निरंतर नए अनुभवों के साथ नई सौंदर्यदृष्टि और नई पाठकीयता को गढ़ रहे हैं। लघुकथा विशद जीवनानुभवों की सुगठित, सघन, किन्तु तीव्र अभिव्यक्ति है। यह कहानी का सार या संक्षिप्त रूप न होकर बुनावट और बनावट में स्वायत्त है। यह ब्योरों में जाने के बजाय संश्लेषण से ही अपनी सार्थकता पाती है।एक श्रेष्ठ लघुकथाकार इसके आण्विक कलेवर में 'यद्पिंडे तद्ब्रह्मांडे' के सूत्र को साकार कर सकता है। वह वामन चरणों से विराट को मापने का दुरूह कार्य अनायास कर जाता है।

वैसे तो नीति या बोधकथा और दृष्टांत के रूप में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से जारी है, किन्तु इसे साहित्य की विशिष्ट विधा के रूप में प्रतिष्ठा हाल के दौर में ही मिली । नए आयामों को छूते हुए इस विधा ने सदियों की यात्रा दशकों में कर ली है। प्रारंभिक तौर पर माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय जैसे कई प्रतिष्ठित रचनाकारों ने इस विधा के गठन में अपनी समर्थ भूमिका निभाई । फिर तो कई लोग जुडने लगे और यह एक स्वतंत्र विधा का गौरव प्राप्त करने में कामयाब हुई। शुरूआती दौर में इसकी कोई मुकम्मल संज्ञा तो नहीं थी, कालांतर में इस संज्ञा को व्यापक स्वीकार्यता मिल गई। यद्यपि समय – समय पर कई संज्ञाएँ भी अस्तित्व में आईं,  किन्तु वे स्थिर न रह सकीं।     
     
बिहार की सृजन उर्वरा भूमि के रत्न,  वरिष्ठ कथाकार युगल जी (जन्म : 17 अक्टूबर, 1925 निधन : 26 अगस्त, 2016) ने लघुकथा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम देर से ही बनाया, किन्तु वे लघुकथा के विधागत गठन में योगदान देने वाले प्रमुख सर्जकों में शुमार किए जाते हैं। उन्होंने अपने रचना काल के चार दशक उपन्यास, पूरी तरह कहानी, नाटक, कविता जैसी विविध विधाओं के सृजन को दिए। फिर 1985-86 के आसपास लघुकथा पर विशेष फोकस किया। तब तक विधा के नाम और आकार से जुड़ी बहस थम चुकी थी। तब से वे अन्य माध्यमों के साथ- साथ लघुकथाओं के सृजन को भी बेहद संजीदगी और निष्ठा से लेते रहे। उन्होंने तीन उपन्यास, तीन कहानी संग्रह, तीन नाटक, दो कविता संग्रह और दो निबंध संग्रहों के साथ पाँच लघुकथा संग्रह दिए हैं। वे महज बंद कमरों में बैठकर रचना करने वाले लेखक नहीं हैं। उन्होंने जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए जो भी देखा-भोगा, उसे लघुकथाओं के जरिये साकार कर दिखाया है। लघुकथा के क्षेत्र में उनके द्वारा प्रणीत संचयन - उच्छवास, फूलों वाली दूब, गरम रेत, जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई और पड़ाव के आगे पर्याप्त चर्चित और प्रशंसित रहे हैं।    
लघुकथाकार युगल Laghukatha kar Yugal


लघुकथा के क्षेत्र में फार्मूलाबद्ध लेखन बड़ी सीमा के रूप में दिखाई दे रहा है, वहीं युगल जी उसे निरंतर नया रूपाकार देते आ रहे। उनकी लघुकथाओं में इस विधा को हाशिये में कैद होने से बचाने की बेचैनी साफ तौर पर देखी जा सकती है। उनकी लघुकथाओं में प्रतीयमान अर्थ की महत्ता निरंतर बनी हुई है। भारतीय साहित्यशास्त्र में ध्वनि को काव्यात्मा के रूप प्रतिष्ठित करने के पीछे ध्वनिवादियों की गहरी दृष्टि रही है। वे जानते थे कि शब्द का वही अर्थ नहीं होता है जो सामान्य तौर पर हम देखते-समझते हैं। साहित्य में निहित ध्वनि तत्व तो घंटा अनुरणन रूप है, जिसका बाद तक प्रभाव बना रहता है। अर्थ की इस ध्वन्यात्मकता को युगल जी ने अनायास ही साध लिया था। उनकी अनेक लघुकथाएँ इस बात का साक्ष्य देती हैं।

युगल जी की निगाहें  कथित आधुनिक सभ्यता में मानव मूल्यों के क्षरण पर निरंतर बनी रही है। इसी परिवेश में कथित सभ्य समाज के अंदर बैठे आदिम मनोभावों को उनकी लघुकथा ‘जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई' पैनेपन के साथ प्रत्यक्ष करती है। मेले में खबर उड़ती है कि द्रौपदी चीरहरण खेल में द्रौपदी की भूमिका में युवा पंचमबाई उतरेंगी और दुःशासन द्वारा उसका चीरहरण यथार्थ रूप में मंचित होगा। रंगशाला में दर्शकों की भीड़ उमड़ आती है। अंततः द्रौपदी तो नग्न नहीं होती है, किन्तु वहाँ जुटे दर्शक जरूर नग्न हो जाते हैं। कभी मेलों – ठेलों में दिखाई देने वाली यह आदिम मनोवृत्ति आज के दौर में भी निरंतर बनी हुई है।

पारिवारिक सम्बन्धों का छीजना युगल जी को अंदर तक झकझोर देता है। उनकी लघुकथा 'विस्थापन' घरेलू वातावरण में दिवंगतों की तसवीरों के विस्थापन के बरअक्स इंसानी रिश्तों के विस्थापन की त्रासदी को जीवंत कर देती है। एक और लघुकथा तीर्थयात्रा में माँ की यह यात्रा अंतिम यात्रा में बदल जाती है, किन्तु बेटा संवेदनशून्य बना रहता है।

युगल जी ने जनतंत्र के राजतंत्र में बदल जाने की विडम्बना को अपनी कई लघुकथाओं का विषय बनाया है।  जनतंत्र शीर्षक रचना पब्लिक स्कूल में समाज अध्ययन की कक्षा में पढ़ते बच्चों के साथ शिक्षक के संवादों के जरिये हमारे सामने गहरा प्रश्न छोड़ जाती है कि क्या हम आजादी के दशकों बाद भी राजतंत्र से इंच भर दूर आ पाये हैं। चेहरे बदल गए हैं, किन्तु सत्ता का चरित्र जस का तस बना हुआ है।

बागड़ ही जब खेत को खाने लगे तो आस किससे की जाए? इस बात को वे पैनेपन के साथ उभारते हैं। आश्रय शीर्षक लघुकथा में बलात्कृता को सुरक्षित आश्रय में रख  दिया जाता है, किन्तु वह वहाँ भी महफूज नहीं रह पाती है। अंततः  आश्रय स्थल ही उसका मृत्यु स्थल सिद्ध होता है। उनकी एक और लघुकथा ‘पुलिस' रक्षकों के ही भक्षक बन जाने की भयावह स्थिति का बयान है ।

उनकी ‘पेट का कछुआ' एक अलग अंदाज की चर्चित लघुकथा है, जहाँ लेखक की आँखों देखी घटना रचना का कलेवर लेकर आती है। बन्ने के पेट में कछुआ है। उसके इलाज के लिए पहले तो उसके पिता चंदा जुटाने के लिए तत्पर हो जाते हैं, फिर यही कार्य व्यवसाय बन जाता है। बेटे के पेट के कछुए से पिता के पेट की भूख का कछुआ जीत जाता है।

उनकी लघुकथाएँ सर्वव्यापी सांप्रदायिकता पर तीखा प्रहार करती हैं । मुर्दे शीर्षक लघुकथा में मुर्दाघर में रखे मुर्दे भी कौम की बात करते दिखाये गए हैं। वहीं पर आया एक समाजसेवी भी अपनी कौम को ध्यान में रखे हुए है, फिर किसकी बात की जाए? एक गहरा प्रश्न युगल जी छोड़ जाते हैं। ‘नामांतरण’ लघुकथा में लेखक ने मानवीय सम्बन्धों के बीच धर्म के बढ़ते हस्तक्षेप को बड़ी शिद्दत से उभारा है।    अंध धार्मिकता के प्रसार के बावजूद युगल जी समाज के उन हिस्सों की ओर भी संकेत करते हैं, जहाँ अब भी संभावनाएं शेष हैं। ‘कर्फ्यू की वह रात’ इसी प्रकार की लघुकथा है, जहाँ एक माँ धर्म या जाति के नाम पर जारी भेदों को निस्तेज कर जाती है।       
   
युगल जी की लघुकथाओं में निरंतर नए प्रयोग करते रहे। उन्होंने प्रारम्भिक दौर में प्रतीक, मिथक आदि को लेकर महत्त्वपूर्ण कार्य किया , जो धीरे – धीरे ट्रेंड बन गया। उनके यहाँ पूर्वांचल की स्थानीयता का चटक रंग यहाँ-वहाँ उभरता हुआ दिखाई देता है, वहीं वे सहज, किन्तु बेहद गहरे प्रतीकों की योजना से बरबस ही हमारा ध्यान खींच लेते हैं। युगल जी मानते थे कि लघुकथा विचार, दृष्टि और प्रेरणा के सम्प्रेषण में एक तराशी हुई विधा है। यही तराश उनकी लघुकथाओं की शक्ति है और उन्हें इस सृजन धारा में विलक्षण बनाती है।

प्रो॰ शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष 
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन [म.प्र.] 456 010

देवनागरी विमर्श

देवनागरी विमर्श: भारतीय लिपि परम्परा में देवनागरी की भूमिका अन्यतम है। सुदूर अतीत में ब्राह्मी इस देश की सार्वदेशीय लिपि थी, जिसकी उत्तरी और दक्षिणी शैली से कालांतर में भारत की विविध लिपियों का सूत्रपात हुआ। इनमें से देवनागरी को अनेक भाषाओँ की लिपि बनने का गौरव मिला। देवनागरी के उद्भव-विकास से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी के साथ हमकदमी तक समूचे पक्षों को समेटने का प्रयास है डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा द्वारा सम्पादित ग्रन्थ- देवनागरी विमर्श। चार खण्डों में विभक्त इस पुस्तक की संरचना में नागरी लिपि परिषद्, राजघाट, नई दिल्ली और कालिदास अकादेमी के सौजन्य-सहकार में मालव नागरी लिपि अनुसन्धान केंद्र की महती भूमिका रही है। अविस्मरणीय सम्पादन-सहकार संस्कृतविद् डॉ जगदीश शर्मा, साहित्यकार डॉ जगदीशचन्द्र शर्मा, डॉ संतोष पण्ड्या और डॉ मोहसिन खान का रहा। यह ग्रन्थ प्रख्यात समालोचक गुरुवर आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी को समर्पित कर हम कृतार्थ हुए थे। आवरण-आकल्पन कलाविद् अक्षय आमेरिया का है।

देवनागरी विमर्श
सम्पादक: डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रकाशक: मालव नागरी लिपि अनुसन्धान केंद्र
उज्जैन (म प्र)

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20150516

अंतर-अनुशासनिक अध्ययन-अनुसंधान के अपूर्व प्रसार का दौर -प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अंतर-अनुशासनिक अध्ययन-अनुसंधान : नई सम्भावनाएं - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा 

वर्तमान दौर ज्ञान-विज्ञान की विविधमुखी प्रगति के साथ अंतर-अनुशासनिक अध्ययन और अनुसंधान के अभूतपूर्व प्रसार का दौर है। ज्ञान की रूढ़ सीमाओं के पार कुछ नया बनाने और उन्हें विस्तार देने का महत्त्वपूर्ण नजरिया है- अंतर-अनुशासनात्मकता। अंतरानुशासनिक विशेषण का प्रयोग मुख्य तौर पर शैक्षिक हलकों में किया जाता है, जहां दो या दो से अधिक अनुशासनों के शोधकर्ताओं द्वारा अपने दृष्टिकोणों का समन्वय किया जाता है तथा सामने आई समस्या के बेहतर रूप से अनुकूलित समाधान के लिए उन दृष्टिकोणों को संशोधित किया जाता है। इसी तरह यह पद्धति वहाँ भी प्रयुक्त होती है, जब समूह शिक्षण पाठ्यक्रम के मामले में छात्रों को कई पारंपरिक अनुशासनों के संदर्भ में किसी एक विषय को समझने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, भूमि के उपयोग के विषय को जब विभिन्न अनुशासनों, जैसे जीवविज्ञान, रसायनविज्ञान, अर्थशास्त्र, भूगोल, राजनीति विज्ञान आदि की दृष्टि से जांचा-परखा जाता है, तब वह हर बार अलग ढंग से सामने आ सकता है। अंतरानुशासनिकता दो या अधिक अकादमिक अनुशासनों का किसी एक गतिविधि, जैसे शोध परियोजना, में संयोजन है। यह विषयों की सीमाओं को अतिक्रांत कर उनसे परे सोचते हुए कुछ नया रचने का उपक्रम है। यह नई उभरती जरूरतों और व्यवसायों के अनुरूप किसी अंतरानुशासनिक क्षेत्र से सम्बद्ध एक ऐसी प्रक्रिया है, जो अकादमिक अनुशासनों या चिंतन के विभिन्न संप्रदायों की पारंपरिक सीमाओं को तोड़ते हुए उसे एक संगठनात्मक इकाई में पर्यवसित करती है। अंतरानुशासनिक अनुसंधान की पद्धति ज्ञान की बुनियादी समझ को विकसित करने या समस्याओं को हल करने के लिए विशेष कारगर रहती है। अंतरानुशासनिक अनुसंधान दो या दो से अधिक अध्ययन क्षेत्रों या विशेष ज्ञान के निकायों के माध्यम से शोध की एक ऐसी पद्धति है, जहां टीमों या व्यक्तियों द्वारा विविध सूचनाओं, डेटा, तकनीक, उपकरण, दृष्टिकोणों और अवधारणाओं को एकीकृत किया जाता है। अंतर-अनुशासनात्मक अध्ययन को लेकर डबल्यू नेवेल द्वारा संपादित ‘एडवांसिंग इंटरडिसिप्लिनरी स्टडीज़' पुस्तक में जे. क्लेन और डबल्यू. नेवेल (1998) द्वारा दी गई इसकी परिभाषा कुछ इस तरह है, जो व्यापक रूप से उद्धृत भी की जाती है- “किसी प्रश्न का उत्तर खोजने या किसी समस्या के समाधान, अथवा किसी ऐसे विषय को लक्ष्य बनाने की प्रक्रिया अंतरानुशासनात्मक अध्ययन है, जहाँ उस प्रश्न, समस्या या विषय के अत्यधिक व्यापक या जटिल होने के कारण है, किसी एकल अनुशासन या पेशे से उसका समुचित रूप में समाधान नहीं हो पाता है। इसके माध्यम से हम अनुशासनात्मक दृष्टिकोणों को ग्रहण करते हैं और फिर अपेक्षाकृत कहीं अधिक व्यापक दृष्टिकोण की निर्मिति करते हुए गहरी अंतर्दृष्टि को समाहित करते हैं।“ (पृ. 393-4) जाहिर है यह अध्ययन पद्धति ज्ञान-विज्ञान की जटिलता और व्यापकता को अपेक्षया सुगम बनाने में विशेष तौर पर कारगर सिद्ध हो सकती है। वैसे तो अंतरानुशासनिक अनुसंधान प्राचीन युग से होते आ रहे हैं, जिनके प्रमाण पूर्व और पाश्चात्य- उभयदेशीय संदर्भों में बिखरे पड़े हैं। किन्तु आधुनिक युग में अंतर-अनुशासनात्मक शोध की विविधमुखी प्रगति दिखाई दे रही है। इसके विकास के पीछे कई कारण आधार में रहे हैं। जैसे- समाज एवं प्रकृति की जटिलता, नित-नई सामाजिक समस्याओं को सुलझाने की आवश्यकता, उन समस्याओं या प्रश्नों के उत्तर पाने की जिज्ञासा, जिसे किसी एक अनुशासन के अंतर्गत प्राप्त नहीं किया जा सकता है, नई तकनीक की सामर्थ्य और उससे प्राप्त सुविधाएं, विश्वयुद्धों के बाद सामाजिक कल्याण, आवास, जनसंख्या, अपराध आदि से जुड़े प्रश्नों और समस्याओं का हल निकालने के लिए आदि आदि। एक अन्य स्तर पर अंतरानुशासनात्मकता को अत्यधिक विशेषज्ञता के हानिकारक प्रभावों के लिए एक ठोस उपाय के रूप में भी देखा जाता रहा है। कहीं पर अंतर-अनुशासनात्मक अध्ययन किसी विषय विशेषज्ञ के बिना है और कहीं पर एकाधिक क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। निश्चय ही दोनों स्थितियों में फर्क होगा।जहां कई अंतरानुशासनिकों द्वारा कार्य किया जाता है, वहाँ जरूरी है कि विषय के विशेषज्ञगण अपने-अपने विषयों के पार देखने और नया करने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित रखें। वे सभी ज्ञानमीमांसीय रूप से अपनी अत्यधिक विशेषज्ञता को समस्याओं के नए समाधान प्राप्त करने पर खुद को केन्द्रित करते हुए अंतःविषय सहयोग में प्रभावी भूमिका निभाएँ। तभी शोध के परिणामों को विभिन्न विषयों के ज्ञान को अद्यतन करने के लिए प्रत्यार्पित किया जा सकता है। इसीलिए अनुशासनिकों और अंतरानुशासनिकों- दोनों को एक दूसरे के पूरक संबंध में देखा जा सकता है। वर्तमान में विविध ज्ञानानुशासनों और भाषा-साहित्य के क्षेत्र में शोध की अपार संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। सभी अध्ययन क्षेत्रों में अंतरानुशासनिक अनुसंधान सहित शोध की अद्यतन प्रवृत्तियों को लेकर व्यापक चेतना जाग्रत करने की जरूरत है, तभी हम शोध में गुणवत्ता उन्नयन के प्रादर्श को साकार कर पाने में समर्थ सिद्ध होंगे। इस दिशा में दृष्टि-सम्पन्न शोधकर्ताओं और युवाओं से गंभीर प्रयत्नों की अपेक्षा व्यर्थ न होगा। 'अक्षर वार्ता' परिवार शोध की नित-नूतन दिशाओं में सक्रिय मनीषियों, शोधकर्ताओं और लेखकों के शोध-आलेखों और सार्थक प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत करता है। 

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा- प्रधान संपादक 0 डॉ मोहन बैरागी - संपादक 

(सम्पादकीय April 2015 Editorial अक्षर वार्ता अप्रैल 2015 @ Akshar varta April 2015)

 
अक्षर वार्ता अप्रैल 2015 @ Akshar varta April 2015 आवरण:अरालिका शर्मा cover: Aralika Sharma कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक शोध की अधुनातन प्रवृत्तियों को लेकर सजगता की दरकार करता है....अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस) प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com 
 

20141204

घर-आँगन से व्यापक लोक-जीवन तक जीवंत रहने दें लोक-संस्कृति को


अक्षर वार्ता : लोक-संस्कृति पर एकाग्र विशिष्ट अंक कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक लोक विरासत के प्रति नई चेतना का आह्वान करता है। पेश है कुछ अंश ------ सम्पादकीय: किसी भी परम्पराशील राष्ट्र की सही पहचान लोक एवं जनजातीय भाषा और संस्कृति के बिना संभव नहीं है। इधर एशियाई-अफ्रीकी राष्ट्रों, विशेष तौर पर भारत को ही देखें तो हम पाते हैं कि यहाँ की संस्कृति और सभ्यता न जाने किस सुदूर अतीत से आती हुई परम्पराओं पर टिकी हुई है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति विविध लोक एवं जनजातीय संस्कृतियों का जैविक समुच्चय है, जिसके निर्माण में अज्ञात अतीत से सक्रिय विविध जनसमुदायों की सहभागी भूमिका चली आ रही है। सारे भारत की भाषा और बोलियाँ तथा उनसे जुड़ी संस्कृति एक-दूसरे के हाथों में हाथ डाले इस तरह से खड़ी हैं कि उन्हें एक-दूसरे से विलग किया जाना संभव नहीं है। इनके बीच मेल-मिलाप का सिलसिला पुरातन काल से चला आ रहा है। लोक और जनजातीय समुदायों से उनकी संस्कृति, परम्परा और कलारूपों का रिश्ता इतना नैसर्गिक और जीवन्त है कि उनके बीच विभाजक रेखा खींच पाना असंभव है। वस्तुतः लोक-संस्कृति परंपराबद्ध समूहों द्वारा स्थानीय रूप से अधिनियमित रोजमर्रा की जिंदगी के एकीकृत प्रभावपूर्ण घटकों को मूर्त करती है। एक दौर में लोक-संस्कृति की अवधारणा मुख्य रूप से अन्य समूहों से पृथक रहने वाले लघु, सजातीय और ग्राम्य समूहों में प्रचलित परंपराओं पर केंद्रित थी। किन्तु आज लोक-संस्कृति आधुनिक और ग्रामीण घटक - दोनों के एक गतिशील निरूपण के रूप में चिह्नित की जाती है। ऐतिहासिक रूप से यह मौखिक परंपरा के माध्यम से हस्तांतरित होती आ रही थी, वहीं अब तेजी से गतिशील कंप्यूटरसाधित संचार के माध्यम से विस्तार पा रही है। इसके जरिये समूहगत पहचान और समुदाय के विकास की दिशाएँ भी खुल रही हैं। लोक-संस्कृति बहुधा स्थानीयता की भावना के साथ गहराई से रंजित रही है। यहाँ तक कि जब किसी परदेशी द्वारा एक लोक-संस्कृति के तत्वों की नकल की जाती है या उसे अपने यहाँ स्थानांतरित करने की कोशिश की जाती है, तो वह अभी भी अपने सृजन के मूल स्थान के संपृक्तार्थों को मजबूती के साथ ले जाती है। वर्तमान दौर में लोक-संस्कृति के अनेक तत्त्व लोकप्रिय और आभिजात्य संस्कृति में अंतर्लीन होते हुए भी दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में लोक-संस्कृति का अध्ययन-अनुसंधान नई चुनौतियाँ उपस्थित कर रहा है। इस दिशा में अक्षर वार्ता अपने विनत प्रयासों के साथ उपस्थित है। हमारी समृद्ध लोक-संस्कृति से जुड़े शोध-अनुशीलन को प्रोत्साहन देने के लिए अक्षर वार्ता सन्नद्ध है, प्रस्तुत अंक में इसकी बानगी मालवा-निमाड़ अंचल से जुड़ी महत्त्वपूर्ण सामग्री से मिलेगी। भारत के हृदय अंचल मालवा-निमाड़ ने एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को ‘गागर में सागर’ की तरह आत्मसात किया हुआ है। यहाँ की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को यहाँ की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा-निमाड़ अंचल के निकटवर्ती अंचलों में मेवाड़, हाड़ौती, गुजरात, भीलांचल, महाराष्ट्र और बुन्देलखण्ड इन्द्रधनुष की तरह अपने-अपने रंग इस क्षेत्र में बिखेरते आ रहे हैं। इन सभी की मिठास और ऐश्वर्य को इस अंचल ने अपने अंदर समाया है, वहीं इन सभी को अपने जीवन रस से सींचा भी है। यहाँ की संस्कृति का भारतीय संस्कृति, जीवनशैली और परम्परा के साथ गहरा तादात्म्य रहा है। इसके प्रमाण वैदिक वाङ्मय से लेकर महाभारत और पुराणकाल तक सहज ही उपलब्ध हैं। लोक-भाषाएँ, साहित्य और विविध कलाभिव्यक्तियाँ वस्तुतः भारतीय संस्कृति के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में विविध समुदाय अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। वैसे तो दुनियाभर में छह हजार भाषाएँ बोली जाती हैं, लेकिन भाषागत विविधता का आबादी की सघनता से कोई नाता दिखाई नहीं दे रहा है। संसार में हर साल कहीं न कहीं दस भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। यह संकट उन तमाम बोली-उपबोलियों के समक्ष गहराता जा रहा है, जिनके प्रयोक्ता या तो इन्हें पिछड़ेपन की निशानी मानकर इनसे दूर हो रहे हैं या कथित आधुनिकता की दौड़ में पराई भाषा की ओर उन्मुख हो रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजें और लोक-भाषाओं को उसके घर-आँगन से लेकर व्यापक लोक जीवन के बीच बहने-पनपने दें। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रेमियों, शोधकर्ताओं और लोक-संस्कृतिविदों के समेकित प्रयत्नों की दरकार है।------------ प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा (प्रधान संपादक) एवं डॉ मोहन बैरागी (संपादक) (आवरण-छायांकन: प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा) (ईमेल aksharwartajournal@gmail.com)

20141124

शोध की नितनूतन दिशाओं की तलाश में गतिशील 'अक्षर वार्ता'

सम्पादकीय- नवंबर 2014 मानवीय ज्ञान की उन्नति और जीवन की सुगमता के लिए शोध की महत्ता एक स्थापित तथ्य है। प्रारम्भिक शोध का लक्ष्य नवीन तथ्यों का अन्वेषण था। इसके साथ क्रमशः व्याख्या-विवेचना का पक्ष जुड़ता चला गया। शोध की नई-नई प्रक्रिया-प्रविधियों के विकास के साथ मानवीय ज्ञान का क्षितिज भी विस्तृत होता चला गया। यह कहना उचित होगा कि वर्तमान विश्व शोध की असमाप्त यात्रा का एक पड़ाव भर है, चरम नहीं। मनुष्य के कई स्वप्न, कई कल्पनाएँ अब वास्तविकता में परिणत हो चुके हैं और अनेक साकार होने जा रहे हैं। यह सब अनुसंधान कर्ताओं की शोध-दृष्टि और उस पर टिके रहकर किए गए अथक प्रयासों से ही संभव हो सका है। सदियों पहले किए गए कई शोध आज की हमारी नई दुनिया की नींव बने हुए हैं। मुश्किल यह है कि हमारी नज़र कंगूरों पर टिकी होती है, नींव ओझल बनी रहती है। वस्तुतः ऐसे नींव के पत्थर बने शोधकर्ताओं को स्मरण किया जाना चाहिए। अनुसंधान की अनेकानेक पद्धतियाँ हैं, जो ज्ञानमीमांसा पर निर्भर करती हैं। यह दृष्टिकोण ही मानविकी और विज्ञान के भीतर और उनके बीच - दोनों में पर्याप्त भिन्नता ले आता है। अनुसंधान के कई रूप हैं- वैज्ञानिक, तकनीकी, मानविकी, कलात्मक, सामाजिक, आर्थिक, व्यापार, विपणन, व्यवसायी अनुसंधान आदि। यह शोधकर्ता के दृष्टिकोण पर ही निर्भर करता है कि वह किस पद्धति को आधार बनाता है या उसका फोकस किस पर है। वर्तमान दौर में वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में तेजी आई है। यह अनुसंधान डेटा संग्रह, जिज्ञासा के दोहन का एक व्यवस्थित तरीका है। यह शोध व्यापक प्रकृति और विश्व की सम्पदा की व्याख्या के लिए वैज्ञानिक सूचनाएं और सिद्धांत उपलब्ध कराता है। यह विविध क्षेत्रों से जुड़े व्यावहारिक अनुप्रयोगों को संभव बनाता है। वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए पहले समस्या की तलाश करना होती है। तत्पश्चात उसकी प्राक्कल्पना करना होती है। उसके बाद अन्वेषण आगी बढ़ता है, जहां विविध प्रकार के आंकड़ों का परीक्षण-विश्लेषण कर एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है। पूर्व-कल्पनाएं और अब तक प्राप्त तथ्य बार-बार पुनरीक्षित किए जाते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान विभिन्न प्रकार के संगठनों और कंपनियों सहित निजी समूहों द्वारा वित्तपोषित होते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान उनके अकादमिक और अनुप्रयोगात्मक अनुशासनों के अनुरूप विभिन्न आयामों में वर्गीकृत किए जा सकता हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान एक अकादमिक संस्था की प्रतिष्ठा को पहचानने के लिए व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली कसौटी माना जाता है। लेकिन कुछ लोग तर्क देते हैं कि इस आधार पर संस्था का गलत आकलन होता है, क्योंकि अनुसंधान की गुणवत्ता शिक्षण की गुणवत्ता का संकेत नहीं करती है और इन्हें आवश्यक रूप से पूरी तरह एक-दूसरे से सहसंबद्ध नहीं किया जा सकता है। मानविकी के क्षेत्र में अनुसंधान में कई तरह प्रविधियाँ, उदाहरण के तौर पर व्याख्यात्मक और संकेतपरक आदि समाहित होती हैं और उनके सापेक्ष ज्ञानमीमांसा आधार बनती है। मानविकी के अध्येता आम तौर पर एक प्रश्न के परम सत्य उत्तर के लिए खोज नहीं करते हैं, वरन उसके सभी ओर के मुद्दों और विवरणों की तलाश में सक्रिय होते हैं। संदर्भ सदैव महत्वपूर्ण बना रहता है और यह संदर्भ, सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या जातीय हो सकता है। मानविकी में अनुसंधान का एक उदाहरण ऐतिहासिक पद्धति में सन्निहित है, जो ऐतिहासिक पद्धति पर प्रस्तुत किया जाता है। इतिहासकार एक विषय के व्यवस्थित अन्वेषण के लिए प्राथमिक स्रोतों और साक्ष्यों का प्रयोग करते हैं और तब अतीत के लेखे-जोखे के रूप में इतिहास का लेखन करते हैं। रचनात्मक अनुसंधान को 'अभ्यास आधारित अनुसंधान' के रूप में भी देखा जाता है। यह अनुसंधान वहाँ आकार लेता है, जब रचनात्मक कार्यों को स्वयं शोध या शोध के लक्ष्य के रूप में लिया जाता है। यह चिंतन का विवादी रूप है, जो ज्ञान और सत्य की तलाश में अनुसंधान की विशुद्ध वैज्ञानिक प्रविधियों के समक्ष एक विकल्प प्रदान करता है। शोध की प्रयोजनपरकता, स्तरीयता और गुणवत्ता की राह सुगम हो, यह विचार इस पत्रिका के लक्ष्यों में अन्तर्निहित है। शोध की नितनूतन दिशाओं की तलाश में सक्रिय अनेक विद्वानों, मनीषियों और शोधकर्ताओं का सक्रिय सहयोग हमें मिल रहा है। सांप्रतिक शोध परिदृश्य में 'अक्षर वार्ता' रचनात्मक हस्तक्षेप का विनम्र प्रयास है , इस दिशा में आप सभी के सहकार के लिए हम कृतज्ञ हैं। पत्रिका को बेहतर बनाने के लिए आपके परामर्श हमारे लिए सार्थक सिद्ध होंगे, ऐसा विश्वास है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा -प्रधान संपादक एवं डॉ मोहन बैरागी - संपादक

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