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20160925

महर्षि सान्दीपनि - श्रीकृष्ण विद्यांजलि: ग्रन्थ समीक्षा

भारतीय ज्ञान परम्परा के औदात्य को समर्पित सार्थक उपक्रम / ग्रन्थ समीक्षा
प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा  Shailendrakumar Sharma
विश्व सभ्यता के अनन्य केंद्र रूप में उज्जयिनी का नाम सुविख्यात है। शास्त्र और विद्या की विलक्षण रंग-स्थली रही है यह नगरी। शास्त्रीय और लोक दोनों ही परम्पराओं के उत्स, संरक्षण और विस्तार में उज्जैन न जाने किस सुदूर अतीत से निरंतर निरत  है। अपने समूचे अर्थ में यह पुरातन नगरी भारत की समन्वयी संस्कृति की संवाहिका है, जहाँ एक साथ कई छोटी-बड़ी सांस्कृतिक धाराओं के मिलन, उनके समरस होने और नवयुग के साथ हमकदम होने के साक्ष्य मिलते हैं। ऐसी विलक्षण नगरी के विख्यात ज्योतिर्विद् पं आनन्दशंकर व्यास के साथ वरिष्ठ साहित्यकार श्री रमेश दीक्षित, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित एवं डॉ जगन्नाथ दुबे के सुधी संयोजन एवम् सम्पादन में सद्यः प्रकाशित ग्रन्थ महर्षि सान्दीपनि - श्रीकृष्ण विद्यांजलि एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में आया है।
शिक्षा, संस्कृति जैसे महनीय कार्य से जुड़े महत्वपूर्ण विचारों, परम्पराओं और लेखन को समर्थ मंच और दिशा देने की दृष्टि से पण्डितप्रवर आनन्दशंकर व्यास विविधायामी गतिविधियों के साथ विगत अनेक वर्षों से सन्नद्ध हैं। यह विशेष प्रसन्नता का विषय है कि उनके इस ग्रन्थ का बीजांकुरण और प्रकाशन सम्पूर्ण भारत को संस्कृति, सभ्यता और विविध ज्ञानानुशासनों के प्रति गहरे दायित्वबोध से जोड़ने वाली पुरातन नगरी उज्जैन से ही हुआ है, जो महर्षि सान्दीपनि और श्रीकृष्ण के आदर्श गुरु - शिष्य सम्बन्ध की साक्षी है।
पं व्यास के परिवार द्वारा नव संवत्सरारम्भ, पंचांग प्रकाशन, गुरु पूर्णिमा उत्सव सहित विभिन्न प्रकल्प अनेक दशकों से निरंतर जारी हैं। यह परिवार संस्कृतिकर्म में नवोन्मेषी सक्रियता से अपनी अलग पहचान रखता है। पं व्यास द्वारा महर्षि सान्दीपनि एवम् श्रीकृष्ण के चरित को केंद्र में रखते हुए गुरु शिष्य परम्परा के प्रति सम्मान के साथ ही भारतीय विद्या की महनीयता को रेखांकित करने की दृष्टि से किए जा रहे प्रयत्नों की शृंखला में यह प्रकाशन अभिनव उपलब्धि बना है।
इस बृहद् ग्रन्थ का प्रथम खण्ड सान्दीपनि एवम् कृष्ण के बहाने भारतीय शिक्षा परम्परा के प्रादर्शों को रूपांकित करता है। मनुष्य की अविराम यात्रा में ज्ञान की महिमामयी उपस्थिति रही है। इसी दृष्टि से ज्ञान की अनादि और अखंडित परंपरा को समर्पित विलक्षण पर्व गुरु पूर्णिमा का भारतीय परम्परा में विशिष्ट स्थान रहा है। यह गुरु के व्याज से ज्ञान की उपासना का पर्व है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा तक आते-आते भारतभूमि न्यूनाधिक रूप से शुरूआती बारिश से भीग जाती है। ऐसे अमल-मनोरम मौसम में गुरु की भक्ति का पर्व गुरु पूर्णिमा आता है, जिस दिन गुरु पूजा का विधान है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता और फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति,  भक्ति और योग-शक्ति प्राप्त करने की सामर्थ्य मिलती है। ग्रन्थ के पहले खण्ड में गुरु तत्व महिमा,  गुरु पूर्णिमा और गुरु शिष्य परम्परा पर महत्वपूर्ण सामग्री संजोई गई है। भारतीय परंपरा में गुरु की महिमाशाली स्थिति सुस्थापित तथ्य है,जिसे इस ग्रन्थ में स्थान स्थान पर रेखांकित किया गया है। गुरु शब्द के व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ को लेकर शास्त्रों में पर्याप्त विचार हुआ है। गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात् अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी।  बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।  गुरु को परिभाषित किया गया है- ‘गृणाति उपदिशति वेदशास्त्राणि यद्वा गीर्यते स्तूयते शिष्यवर्गे।‘ अर्थात गुरु वह है जो वेदशास्त्रों का गृणन या उपदेश करता है तथा जो शिष्यवर्ग द्वारा स्तुत होता है। मनुष्य जन्म से अनगढ़ होता है, जो उसे सुसंस्कृत बनाता है, वह गुरु है। प्रथम गुरु माता-पिता हैं तो गुरु स्वयं दूसरे माता-पिता की भूमिका निभाते हैं। यास्क ने निरुक्त में बड़ी सुंदर उपमा दी है- सत्य की कुरेदनी से कानों को कुरेदकर जो अमृत भरे, वही गुरु है। गुरु की भूमिका कुम्हार की तरह है, जो अंदर से सहाय देता है और बाहर से चोट मार कर हमारी खोट को निकलता है, कबीर वचन है-
गुरु कुम्हार सिख घट्ट है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहाय दे, बाहर मारे चोट ।।        
ग्रन्थ के इसी भाग में सान्दीपनि एवम् कृष्ण के चरित, शिक्षा प्रणाली, विविधविध कलारूप, काल गणना परम्परा, पुरातन शिक्षा सिद्धांत, आश्रम आदि के साथ ही उज्जयिनी की ज्ञान परम्परा और यहाँ के विद्यारत्न, ज्योतिर्लिंग श्री महाकालेश्वर की महिमा, स्तोत्र आदि का समावेश किया गया है। वेदभूमि से लेकर मोक्षभूमि तक उज्जैन ने सुदीर्घ यात्रा तय की है, जिसका महिमांकन इस ग्रन्थ में अनेक मनीषियों ने किया है। इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति, ज्ञान विज्ञान, साहित्य आदि की समृद्धता में इस परिक्षेत्र के योगदान की चर्चा इस खण्ड की उपलब्धि बनी है।
द्वितीय खण्ड शिक्षा पर केंद्रित है। इस खण्ड में प्राचीन एवम् अर्वाचीन शिक्षा पद्धति सहित विद्यार्जन के विविध पहलुओं पर स्तरीय आलेखों का संचय किया गया है। ग्रन्थ में अनेक स्वनामधन्य विद्वानों के आलेखों को स्थान मिला  है, वहीं कुछ धरोहर लेख भी समाहित किए गए हैं। स्वामी करपात्री जी महाराज, पं संकर्षण व्यास, स्वामी महेश्वरानंद सरस्वती, पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास, डॉ शिवमंगलसिंह सुमन, आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, आचार्य श्रीनिवास रथ, डॉ ब्रजबिहारी निगम, रोचक घिमिरे व्यास, प्रो रहसबिहारी निगम, डॉ श्यामसुंदर निगम,  देवर्षि कलानाथ शास्त्री, पं आनन्दशंकर व्यास, डॉ रुद्रदेव त्रिपाठी, डॉ शिवनन्दन कपूर, डॉ पुरु दाधीच, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ दयानन्द भार्गव, डॉ घनश्याम पाण्डेय, डॉ केदारनारायण जोशी,  डॉ केदारनाथ शुक्ल,  डॉ विन्ध्येश्वरीप्रसाद मिश्र, डॉ बालकृष्ण शर्मा, डॉ श्रीकृष्ण मुसलगाँवकर, स्वामी भक्तिचारु, डॉ जगन्नाथ दुबे, डॉ श्रीकृष्ण जुगनू, डॉ शिव चौरसिया प्रभृति विद्वानों के आलेख इस ग्रंथ की समृद्धि के सूचक हैं। लगभग सवा सौ आलेखों का संचयन और सम्पादन निश्चय ही श्रमसाध्य कार्य था। इसके लिए संपादकों और लेखकों की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी।
पंचांग प्रकाशन विभाग, बड़ा गणेश, उज्जैन से प्रकाशित इस ग्रन्थ में जहां भारतीय ज्ञान परम्परा से जुड़े अनेक नवीन तथ्य और विचार उद्घाटित हुए हैं, वहीं कई पूर्वोपलब्ध तथ्यों की अभिनव पहचान और पड़ताल भी हुई है। पं व्यास ने अपने आद्य पुरुष महर्षि सांदीपनि की स्मृति को प्रणामांजलि अर्पित करने के लिए लगभग डेढ़ दशक पूर्व इस ग्रंथ के प्रकाशन का संकल्प लिया था, जो बड़े ही सुंदर रूप में साकार हो गया है। वस्तुतः इस प्रकार के महनीय प्रयत्नों से ही उज्जयिनी का गौरववर्धन होता है और वह अपनी प्रतिकल्पा रूप को साकार करती है।

ग्रन्थ : महर्षि सान्दीपनि - श्रीकृष्ण विद्यांजलि
सम्पादक: पं आनन्दशंकर व्यास, रमेश दीक्षित, डॉ भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ जगन्नाथ दुबे
प्रकाशक: पंचांग प्रकाशन विभाग, बड़ा गणेश, उज्जैन
प्रथम संस्करण विक्रम संवत 2073
पृष्ठ 448 एवम्  बहुरंगी प्लेट्स 26

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा                                      
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन 456010
मोबा :098260-47765
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com



20150819

जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती है लोक-संस्कृति

अक्षर वार्ता July 2015: सम्पादकीय
(आवरण: बंसीलाल परमार )
कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का संपादकीय विविध लोकभिव्यक्तियों के अध्ययन, अनुसन्धान और नवाचार को लेकर सजगता की दरकार करता है।..
लोक-साहित्य और संस्कृति जीवन की अक्षय निधि के स्रोत हैं। इनकी धारा काल-प्रवाह में बाधित भले ही हो जाए, कभी सूखती नहीं है। लोक-कथा, गीत, गाथा, नाट्य, संगीत, चित्र सहित विविध लोकाभिव्यक्तियाँ जीवन की जड़ता और एकरसता को तोड़ती हैं। विकास के नए प्रतिमान एक जैसेपन को बढ़ाते हैं, इसके विपरीत लोक-साहित्य और संस्कृति एक जैसेपन और एकरसता के विरुद्ध हैं। मनुष्य की सजर्नात्मक सम्भावनाएँ साहित्य एवं विविध कला-माध्यमों में प्रतिबिम्बित होती आ रही हैं। इनमें शब्दमयी अभिव्यक्ति का माध्यम ‘साहित्य’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ‘शब्द’ ही मनुष्य की अनन्य पहचान है, जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करता है। शब्दार्थ केन्द्रित अभिव्यक्ति के अनेक माध्यमों में से लोक द्वारा रचा गया साहित्य अपनी संवेदना और शिल्प में विशुद्धता और मौलिकता की आंच से युक्त होने के कारण अपना विशिष्ट प्रभाव रचता है, जो कथित आभिजात्य साहित्य द्वारा सम्भव नहीं है। लोक-साहित्य मानव समुदाय की विविधता और बहुलता को गहरी रागात्मकता के साथ प्रकट करता है, वहीं देश-काल की दूरी के परे समस्त मनुष्यों में अंतर्निहित समरसता और ऐक्य को प्रत्यक्ष करता है।
वस्तुतः लोक से परे कुछ भी अस्तित्वमान नहीं है। समस्त लोग ‘लोक’ हैं और इस तरह लोक-संस्कृति से मुक्त कोई भी नहीं है। कोई स्वीकार करे, न करे, उसे पहचाने, न पहचाने,  सभी की अपनी कोई न कोई लोक-संस्कृति होती है। उसका प्रभाव कई बार इतना सूक्ष्म-तरल और अंतर्यामी होता है कि उसे देख-परख पाना बेहद मुश्किल होता है, किन्तु असंभव नहीं। लोक-जीवन में परम्परा और विकास न सिर्फ साथ-साथ अस्तित्वमान रहते हैं, वरन् एक दूसरे पर भी निर्भर करते हैं। लोक-साहित्य और संस्कृति इन दोनों की अन्योन्यक्रिया का जैविक साक्ष्य देते हैं।
लोक-साहित्य सहित लोक की विविधमुखी अभिव्यक्तियों को आधार देती हुई लोक-संस्कृति का स्वरूप अत्यंत व्यापक और विपुलतासम्पन्न है। लोक-साहित्य और संस्कृति तमाम प्रकार के परिवर्तन और विकास के बावजूद अपने अंदर की कई चीजों को बचाये रखते हैं, कभी रूपांतरित करके तो कभी अंतर्लीन करके। सूक्ष्मता से विचार करें तो हमारा सामूहिक मन ऐतिहासिक स्मृतियों, व्यक्तियों और घटनाओं के साथ मानव समूह और क्रियाओं के तादात्म्य को प्रत्यक्ष करता है। यही वह विचारणीय बिंदु है जो लोक-साहित्य, संस्कृति के साथ इतिहास और मानव-शास्त्र का जैविक सम्बन्ध रचता है।
भारत में लोक साहित्य और संस्कृति कथित विकसित सभ्यताओं की तरह भूली हुई विरासत, आदिम या पुरातन नहीं हैं। वे सतत वर्तमान हैं, जीवन का अविभाज्य अंग हैं। भारत के हृदय अंचल मालवा का लोक-साहित्य और विविध परम्पराएँ भी इन्हीं अर्थों में अपने भूगोल और पर्यावरण का अनिवार्य अंग हैं। मालवी लोक-संस्कृति की विलक्षणता के ऐतिहासिक कारण रहे हैं। यह अंचल सहस्राब्दियों से शास्त्र, इतिहास और संस्कृति की अनूठी रंगस्थली रहा है। इनके साथ यहाँ की लोक-संस्कृति की अन्तःक्रिया निरंतर चलती चली आ रही है। यहाँ कभी शास्त्रों ने लोक परम्परा को आधार दिया है तो कभी लोकाचार ने शास्त्र का नियमन किया है, उसको व्यवहार्य बनाया है। यह बात देश के प्रायः अधिकांश भागों की लोक-संस्कृति में देखी-समझी जा सकती है।
लोक में व्याप्त व्रत-पर्व-उत्सवों को कई बार महज धार्मिक अनुष्ठान या रूढ़ि के रूप में देखा जाता है, वस्तुतः ऐसा है नहीं। ये सभी पुराख्यान, इतिहास और जातीय स्मृतियों से जुड़ने और उन्हें दोहराते हुए निरन्तर वर्तमान करने की चेष्टा हैं। उदाहरण के लिए मालवा सहित पश्चिम-मध्य भारत में मनाया जाने वाला संजा पर्व और उससे जुड़ा लोक-साहित्य सही अर्थों में भारतीय इतिहास, जातीय स्मृति, परम्परा और लोक-संस्कृति की आपसदारी का अनुपम दृष्टांत है। फिर यह काल के अविराम प्रवाह से अनछुआ भी नहीं है। इसमें परिवर्तन और विकास की आहटें भी सुनी जा सकती हैं। संजा पर्व में हम देखते हैं कि उसमें चित्रित आकृतियों में शास्त्रोक्त स्वस्तिक (सात्या) और सप्तऋषि तो आते ही हैं, छाबड़ी (डलिया), घेवर, घट्टी जैसे लोक प्रतीकों का भी अंकन होता है। काल-प्रवाह में इससे सम्बद्ध लोक-साहित्य और भित्ति-चित्रों में नए-नए बिम्ब भी संपृक्त होते जा रहे हैं।
जरूरत इस बात की है कि मालवा सहित किसी भी क्षेत्र की लोक-संस्कृति को नितांत बौद्धिक विमर्श से हटकर यहाँ के लोकजीवन के साथ सहज और जैविक अन्तःक्रिया के रूप में देखा-समझा जाए। तभी अध्ययन, शोध और नवाचार में उसके निहितार्थ उजागर होंगे और फिर उसका जीवन और पर्यावरण-बोध हमारे आज और कल के लिए भी कारगर सिद्ध होगा।
वर्तमान में लोक-साहित्य, संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र और नृतत्त्वशास्त्र के क्षेत्र में नित-नूतन अनुसंधान की संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। मानव जीवन के इन सचल क्षेत्रों में शोध की अभिनव प्रविधियों को लेकर जागरूकता की दरकार है। तभी हम शोध में स्तरीयता, मौलिकता और गुणवत्ता के प्रादर्श को साकार कर पाएँगे। इस दिशा में आपके रचनात्मक योगदान और प्रतिक्रियाओं का ‘अक्षर वार्ता’ में स्वागत है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com     डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- डॉ भेरूलाल मालवीय, एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com



20150808

इतिहास और लोक-संस्कृति के अन्तः सम्बन्धों की तलाश

अक्षर वार्ता: june 2015 सम्पादकीय
भारत सहित दक्षिण-मध्य एशिया अपने ढंग का विलक्षण भूभाग है, जहां ज्ञान की वाचिक और लिखित- दोनों परम्पराओं का अद्वितीय समन्वय मिलता है। ‘लोके वेदे च’ सूत्र को चरितार्थ करते हुए ये दोनों एक-दूसरे के पूरक बने हुए हैं। लोक-साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से भारत की पहचान का उपक्रम उतना ही महत्त्वपूर्ण हो सकता है, जितना लिखित साहित्य की दृष्टि से। आज भारत सहित समूचे एशियाई इतिहास के पुनर्लेखन में लोक साहित्य और संस्कृति के वैज्ञानिक प्रयोग की जरूरत है। भारतीय दृष्टि मानती है कि परिवर्तनशील अतीत में से अपरिवर्तनीय तत्वों का अन्वेषण है- इतिहास। कोई भी अतीत मृत भूतकाल नहीं होता, वह एक सीमा तक वर्तमान में जीवित रहता है। इसी तरह का निरन्तर प्रवहमान अतीत है- लोक-संस्कृति।
नृतत्त्वशास्त्रीय इतिहास की निर्मिति में लोक-संस्कृति का विशेष योगदान रहता है। लोक-संस्कृति के उपादानों के प्रकाश में विभिन्न प्रजातियों के प्रारम्भिक से लेकर परवर्ती दौर तक की भाषा, पुरातत्व और भौतिक जीवन के अध्ययन की दिशा अत्यंत रोचक निष्कर्षों तक पहुँचा सकती है।
वस्तुतः हमारा सामूहिक मन ऐतिहासिक स्मृतियों, व्यक्तियों और घटनाओं के साथ मानव समूह का तादात्म्य है। यही वह बिंदु है जो इतिहास और लोक-संस्कृति का अन्तः सम्बन्ध बनाता है। लोक-संस्कृतिवेत्ता टेफ्ट की मान्यता है कि सभी लोग ‘लोक’ हैं और इस तरह सभी की अपनी लोक-संस्कृति होती है। लोक संस्कृति अत्यंत व्यापक है। इसके अंतर्गत लोगों की कहानियों, घटनाओं, मान्यताओं, रीति-रिवाजों, किंवदंतियों, कथा-गाथा, गीत, संगीत, नृत्य, चिकित्सा, आदि सबका समावेश है। साथ ही यह पूर्व-बसाहट के दिनों, उदाहरण के लिए आरंभिक आखेट, पशुपालन, कृषिकर्म आदि की कहानियों, मूलस्थान के देशों या अन्य क्षेत्रों से प्रत्यारोपित सांस्कृतिक जड़ों की कहानियों को भी समाहित करती है। लोक-संस्कृति से प्राप्त कई तथ्य प्रारंभिक पशुपालन, कृषिकर्म से लेकर घरों की बसाहट, ग्रामों, कस्बों और शहरों तक के विकास का लेखा प्रकट करते हैं। साथ ही सामाजिक संरचना और विविध समुदायों की अंतरक्रियाओं का संकेत भी इनसे प्राप्त होता है।
लोक-संस्कृति और साहित्य आम जन के इतिहास तक हमें ले जाते हैं, जहां आम जन की आशा-हताशा, सुख दुःख, जय-पराजय का रमणीय वृत्तांत होता है। यह आम आदमी की संवेदना का लेखा है। वस्तुतः लोक संवेदना के इतिहास की निर्मिति बिना लोक साहित्य के सम्भव नहीं है। ‘बंगालेर इतिहासेर’ (1966) में प्रो निहार रंजन रे लिखते हैं, जनता का इतिहास लोकविधाओं एवम् लोककर्म आदि से ही निर्मित किया जा सकता है।
यदि अतीत का लेखा-जोखा इतिहास है तो समकाल का लेखा-जोखा पत्रकारिता। इनसे हटकर साहित्य शाश्वत का इतिहास है। वह इनसे आगे ले जाता है। इसलिए लोक-साहित्य इतिहास के लिए उपयोगी है, किन्तु उसमें कितना यथार्थ और कितना कल्पना है, इसकी छानबीन बेहद जरूरी हो जाती है। लोक-साहित्य इतिहास की टूटी कड़ियों को जोड़ने के साथ ही भिन्न दृष्टि से अतीत को देखने का नजरिया भी दे सकता है। वह इतिहास से प्राप्त चरित्रों और घटनाओं के मृत ढाँचे में अस्थि-मांस-मज्जा भरने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
ब्लादिमीर प्रोप ने थ्योरी एंड हिस्ट्री ऑफ़ फोकलोर (1984) में लिखा है, लोक-संस्कृति एक ऐतिहासिक परिघटना है और लोक-संस्कृति का विज्ञान एक ऐतिहासिक अनुशासन है। इस रूप में लोक सांस्कृतिक तत्वों पर गहन और वैज्ञानिक मन्थन आवश्यक हो जाता है। हमारे प्राचीन साहित्य, यथा- जातक कथा, दीघ निकाय, मज्झिम निकाय, खुद्दक निकाय आदि में लोक संस्कृति और परम्परा के कई सूत्र बिखरे हुए हैं, वहीं इतिहास के कई सन्दर्भ उपलब्ध हैं। विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता को लेकर भले ही इतिहास जगत् में विवाद रहा है किन्तु उनसे जुड़े कई तथ्य हमारी समृद्ध लोक परम्परा का अंग बने हुए हैं। यही स्थिति गोरखनाथ, भर्तृहरि, वररुचि, भोज आदि की है। अनुश्रुतियों और लोक-साहित्य में उपलब्ध इस प्रकार के चरित नायकों से जुड़े कई पक्षों की पड़ताल और इतिहास की कड़ियों से उनका समीकरण जरूरी है।
लोकव्यापी व्रत-पर्व-उत्सव महज धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, इतिहास और जातीय स्मृतियों से जुड़ने और उन्हें दोहराते हुए निरन्तर वर्तमान करने की चेष्टा हैं। मालवा सहित पश्चिम-मध्य भारत में मनाया जाने वाला संजा पर्व भारतीय इतिहास, जातीय स्मृति और लीक-संस्कृति की आपसदारी का अनुपम उदाहरण है। इसी तरह अनेकानेक लोक देवताओं से सम्बद्ध लोक-साहित्य और संस्कृति भी इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं।
आज इतिहास एवं लोक-संस्कृति के क्षेत्र में शोध की अपार संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। इन अध्ययन क्षेत्रों में शोध की नवीनतम प्रवृत्तियों को लेकर व्यापक चेतना जाग्रत करने की जरूरत है, तभी हम शोध में गुणवत्ता के प्रादर्श को साकार कर पाएँगे। शोधकर्ताओं और युवाओं से गंभीर प्रयत्नों की अपेक्षा व्यर्थ न होगी। शोध की नवीन दिशाओं में क्रियाशील मनीषियों, शोधकर्ताओं और लेखकों के शोध-आलेखों और सार्थक प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof. Shailrndrakumar Sharma
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता Akshar varta
कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक लोक संस्कृति और इतिहास के अंतः सम्बंधों को लेकर सजगता की दरकार करता है... अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com




20150806

विराट भारतीय चेतना के रचनाकार मैथिलीशरण गुप्त - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

विराट भारतीय चेतना के रचनाकार मैथिलीशरण गुप्त
 - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
मैथिलीशरण गुप्त विराट भारतीय चेतना के रचनाकार थे। राष्ट्रीय आंदोलन को गति देने में राष्ट्रकवि गुप्त जी की अविस्मरणीय भूमिका रही है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रप्रेम को जगाने के साथ ही अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध प्रतिरोध की ताकत पैदा की। वे आलोचकों के सामने सदैव चुनौती बने रहे, जिन्होंने उन्हें अपने पूर्व निश्चित साँचों में बांधने की कोशिश की। उनकी दृष्टि में भारत केवल भूखंड नहीं है, वह साक्षात परमेश्वर की मूर्ति है। उनके लिए भारत एक भाव का नाम है: 

नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥



राष्ट्रीय चेतना को सामाजिक चेतना से अलग करके देखना उचित नहीं है। गुप्त जी ने नारी सशक्तीकरण को भी उतना ही महत्त्व दिया है, जितना राष्ट्रोत्थान को। वे एक और अखण्ड राष्ट्रीयता के प्रादर्श को रचते हैं। जब देश को भाषा, क्षेत्र, जाति, संप्रदाय आदि के आधार पर विभाजित करने के प्रयास किए जा रहे हों, तब मैथिलीशरण गुप्त का काव्य हमारा सही मार्गदर्शन करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने मौलिक चिंतन बंद कर दिया है। गुप्त जी हमें सभी प्रकार से जगाने आए थे। 

(श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति द्वारा इंदौर में आयोजित समारोह में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को याद करते हुए वक्तव्य के अंश और विभिन्न अख़बारों की कटिंग्स के साथ साभार प्रस्तुत हैं।)








                                                 



20150524

यथास्थिति नहीं, परिवर्तन की पक्षधर हैं दिनकर सोनवलकर की कविताएँ - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

परिवर्तन की पक्षधरता और दिनकर सोनवलकर का काव्य 

प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा


स्वतंत्रता के बाद की हिंदी कविता  में समाज और व्यवस्था से जुड़े व्यंग्य की व्याप्ति और विस्तार के लिए दिनकर सोनवलकर (24 मई 1932 – 7 नवम्बर 2000) का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। वे अत्यंत सरल - निश्छल स्वभाव के धनी थे। उनकी कविताएं भी उनके स्वभाव के अनुरूप पारदर्शी हैं। सहज - तरल प्रतीक और बिम्बों की अजस्र माला से बुनी उनकी कविताओं ने साठ के दशक से ही अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया था। फिर सत्तर से नब्बे के दशक तक वे देश के तमाम मंचों और पत्र पत्रिकाओं में छाए रहे। शीशे और पत्थर का गणित, अ से असभ्यता, इकतारे पर अनहद राग, दीवारों के खिलाफ सहित एक दर्जन से अधिक काव्य संग्रहों के रचनाकार और अनुवादक श्री सोनवलकर जी की कविताओं में एक साथ जीवन बोध, व्यंग्य बोध और मूल्य बोध का त्रिवेणी संगम हुआ है।

कविता एक अन्वेषण में उन्होंने लिखा है-

कविता
कोई लबादा तो नहीं
कि ओढ़कर फिरते रहो
और न कोई आवरण
कि स्वयं को छिपाते रहो।
यह कोई पिस्तौल नहीं
कि लुक छिप कर चलाते रहो
और न अंडरग्राउंड केबिन
कि युद्ध से खुद को बचाते रहो।
यह कोई माउथपीस नहीं
कि पार्टी के नारे गुंजाते रहो
और न कोई मठ
कि उपदेश का अमृत पिलाते रहो।
कविता तो बस
ऐसे कुछ क्षण हैं-
जिनमें डूब कर
हम ख़ुद को
तरोताज़ा और
जिंदा महसूस करते हैं।

सुविख्यात कवि, संगीतकार और मनीषी प्रो. दिनकर सोनवलकर ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के अनन्तर हिंदी कविता को बगैर किसी वाद या पन्थ विशेष के अंधानुकरण के मनुष्य के अंतरबाह्य बदलाव का माध्यम बनाया था। उनकी कविताओं में समय और समाज के यथार्थ का बहुकोणीय रूपांकन मिलता है। उनकी कविताएँ यथास्थिति नहीं, परिवर्तन की पक्षधर हैं। उनकी कई लघु, किन्तु मर्मवेधी काव्य-पंक्तियाँ आज भी उनके पाठकवर्ग के मन में पैबस्त हैं। उनके साथ आत्मीय सान्निध्य का सौभाग्य मुझे मिला है, वह अमिट और अविस्मरणीय है।

वे एक समूचे कवि थे। गोष्ठियों से लेकर बड़े बड़े काव्य मंचों तक उनके काव्य-पाठ की सम्प्रेषणीयता देखते ही बनती थी, वहीं मर्ममधुर कण्ठ से दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के सरस गायन का आस्वाद रसिकों के लिए यादगार अनुभव होता था। 

दिनकर सोनवलकर की स्मृति में समारोह की रूपरेखा बनाते हुए मैंने सुझाया कि उनके जीवन और व्यक्तित्व पर केंद्रित वृत्तचित्र के निर्माण के साथ उनकी कविताओं में मौजूद संगीत-नृत्य की संभावनाओं को तलाशा जाए। उनके कविमना सुपुत्र प्रतीक सोनवलकर ने तत्काल इन्हें मूर्त रूप देने का संकल्प ले लिया। इसी दिशा में नृत्य रूपक सविनय समर्पित है।

वस्तुतः कविताओं का दृश्यीकरण अनेक चुनौतियाँ देता आ रहा है। विशेष तौर पर मुक्त छन्द की रचनाओं को नृत्य- रूपक में ढालना और मुश्किल रहा है। लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि दिनकर सोनवलकर ने स्वयं कहा है, "संगीत है मेरा जीवन, साहित्य मेरा तन मन।" फिर उनकी रचनाओं में मौजूद आंतरिक लय स्वयं नृत्य -रूपक के लिए आधारभूमि दे देती है।
इस प्रस्तुति के लिए सोनवलकर जी की विविध रंगों की कविताएँ चुनी गई हैं। प्रयास रहा है कि उनका काव्यत्व बाधित न हो, वरन् अपनी नूतन अर्थवत्ता के साथ ये रचनाएँ रसिकजनों तक पहुंचे। प्रतिभा संगीत कला संस्थान द्वारा प्रस्तुत इस नृत्य रूपक में नृत्य गुरु पद्मजा रघुवंशी के निर्देशन में कथ्य और संवेदना की अनुरूपता में बहुवर्णी नृत्य संरचनाएँ की गई हैं। कहीं कथक, कहीं ओडिसी, कहीं मालवी लोक शैली तो कहीं सालसा और समकालीन पाश्चात्य नृत्य शैलियों की बुनावट से कविताओं को तराश मिली  है। संगीत-मनीषी इन्दरसिंह बैस द्वारा निर्देशित संगीत-लय नियोजन में भी इसी वैविध्य का मधुर समावेश हुआ है। ध्वन्यांकन संयोजन जगरूपसिंह चौहान और तकनीकी परामर्श भूषण जैन का है।
कुल पौन घण्टे का यह नृत्य रूपक रसिकजनों को पसन्द आया। काव्य और कला के एक अनन्य समाराधक के प्रति आत्मीय कृतज्ञता के साथ यह नृत्य-संगीतांजलि अर्पित की है।

आत्मीय स्पर्श कविता में दिनकर सोनवलकर लिखते हैं-

बड़ों के पाँव छूने का रिवाज़
इसलिए अच्छा है
कि उनके पैरों के छाले देखकर
और बिवाइयाँ छूकर
तुम जान सको
कि ज़िन्दगी उनकी भी कठिन थी
और कैसे-कैसे संघर्षों में चलते रहे हैं वे।
बदले में
वे तुम्हें सीने से लगाते हैं
और सौंप देते हैं
अपनी समस्त आस्था, अपने अनुभव।
वह आत्मीय विद्युत- स्पर्श
भर देता है तुम्हारे भीतर
कभी समाप्त न होने वाली
एक विलक्षण ऊर्जा।
प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन


क्या कोई चलेगा कवि पथ पर: जावरा के दिनकर सोनवलकर मार्ग पर कविमना प्रिय प्रतीक सोनवलकर के साथ यादगार छबि

































प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा

20150523

फार्मूलाबद्ध लेखन से परे युगल की लघुकथाएँ - प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

लघुकथा को हाशिये में कैद होने से बचाने की बेचैनी लिए युगल की लघुकथाएँ
              प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

लघुकथा समकालीन साहित्य की एक अनिवार्य और स्वायत्त विधा के रूप में स्थापित हो गई है। नई सदी में यह सामाजिक बदलाव को गति देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। विशेष तौर पर मूल्यों के क्षरण के दौर में अनेक लघुकथाकार तीखा शर- संधान कर रहे हैं। इस क्षेत्र में सक्रिय कई रचनाकारों ने अपनी सजग क्रियाशीलता और प्रतिबद्धता से लघुकथा की अन्य विधाओं से विलक्षणता को न सिर्फ सिद्ध कर दिखाया है, वरन उससे आगे जाकर वे निरंतर नए अनुभवों के साथ नई सौंदर्यदृष्टि और नई पाठकीयता को गढ़ रहे हैं। लघुकथा विशद जीवनानुभवों की सुगठित, सघन, किन्तु तीव्र अभिव्यक्ति है। यह कहानी का सार या संक्षिप्त रूप न होकर बुनावट और बनावट में स्वायत्त है। यह ब्योरों में जाने के बजाय संश्लेषण से ही अपनी सार्थकता पाती है।एक श्रेष्ठ लघुकथाकार इसके आण्विक कलेवर में 'यद्पिंडे तद्ब्रह्मांडे' के सूत्र को साकार कर सकता है। वह वामन चरणों से विराट को मापने का दुरूह कार्य अनायास कर जाता है।

वैसे तो नीति या बोधकथा और दृष्टांत के रूप में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से जारी है, किन्तु इसे साहित्य की विशिष्ट विधा के रूप में प्रतिष्ठा हाल के दौर में ही मिली । नए आयामों को छूते हुए इस विधा ने सदियों की यात्रा दशकों में कर ली है। प्रारंभिक तौर पर माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय जैसे कई प्रतिष्ठित रचनाकारों ने इस विधा के गठन में अपनी समर्थ भूमिका निभाई । फिर तो कई लोग जुडने लगे और यह एक स्वतंत्र विधा का गौरव प्राप्त करने में कामयाब हुई। शुरूआती दौर में इसकी कोई मुकम्मल संज्ञा तो नहीं थी, कालांतर में इस संज्ञा को व्यापक स्वीकार्यता मिल गई। यद्यपि समय – समय पर कई संज्ञाएँ भी अस्तित्व में आईं,  किन्तु वे स्थिर न रह सकीं।     
     
बिहार की सृजन उर्वरा भूमि के रत्न,  वरिष्ठ कथाकार युगल जी (जन्म : 17 अक्टूबर, 1925 निधन : 26 अगस्त, 2016) ने लघुकथा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम देर से ही बनाया, किन्तु वे लघुकथा के विधागत गठन में योगदान देने वाले प्रमुख सर्जकों में शुमार किए जाते हैं। उन्होंने अपने रचना काल के चार दशक उपन्यास, पूरी तरह कहानी, नाटक, कविता जैसी विविध विधाओं के सृजन को दिए। फिर 1985-86 के आसपास लघुकथा पर विशेष फोकस किया। तब तक विधा के नाम और आकार से जुड़ी बहस थम चुकी थी। तब से वे अन्य माध्यमों के साथ- साथ लघुकथाओं के सृजन को भी बेहद संजीदगी और निष्ठा से लेते रहे। उन्होंने तीन उपन्यास, तीन कहानी संग्रह, तीन नाटक, दो कविता संग्रह और दो निबंध संग्रहों के साथ पाँच लघुकथा संग्रह दिए हैं। वे महज बंद कमरों में बैठकर रचना करने वाले लेखक नहीं हैं। उन्होंने जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए जो भी देखा-भोगा, उसे लघुकथाओं के जरिये साकार कर दिखाया है। लघुकथा के क्षेत्र में उनके द्वारा प्रणीत संचयन - उच्छवास, फूलों वाली दूब, गरम रेत, जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई और पड़ाव के आगे पर्याप्त चर्चित और प्रशंसित रहे हैं।    
लघुकथाकार युगल Laghukatha kar Yugal


लघुकथा के क्षेत्र में फार्मूलाबद्ध लेखन बड़ी सीमा के रूप में दिखाई दे रहा है, वहीं युगल जी उसे निरंतर नया रूपाकार देते आ रहे। उनकी लघुकथाओं में इस विधा को हाशिये में कैद होने से बचाने की बेचैनी साफ तौर पर देखी जा सकती है। उनकी लघुकथाओं में प्रतीयमान अर्थ की महत्ता निरंतर बनी हुई है। भारतीय साहित्यशास्त्र में ध्वनि को काव्यात्मा के रूप प्रतिष्ठित करने के पीछे ध्वनिवादियों की गहरी दृष्टि रही है। वे जानते थे कि शब्द का वही अर्थ नहीं होता है जो सामान्य तौर पर हम देखते-समझते हैं। साहित्य में निहित ध्वनि तत्व तो घंटा अनुरणन रूप है, जिसका बाद तक प्रभाव बना रहता है। अर्थ की इस ध्वन्यात्मकता को युगल जी ने अनायास ही साध लिया था। उनकी अनेक लघुकथाएँ इस बात का साक्ष्य देती हैं।

युगल जी की निगाहें  कथित आधुनिक सभ्यता में मानव मूल्यों के क्षरण पर निरंतर बनी रही है। इसी परिवेश में कथित सभ्य समाज के अंदर बैठे आदिम मनोभावों को उनकी लघुकथा ‘जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई' पैनेपन के साथ प्रत्यक्ष करती है। मेले में खबर उड़ती है कि द्रौपदी चीरहरण खेल में द्रौपदी की भूमिका में युवा पंचमबाई उतरेंगी और दुःशासन द्वारा उसका चीरहरण यथार्थ रूप में मंचित होगा। रंगशाला में दर्शकों की भीड़ उमड़ आती है। अंततः द्रौपदी तो नग्न नहीं होती है, किन्तु वहाँ जुटे दर्शक जरूर नग्न हो जाते हैं। कभी मेलों – ठेलों में दिखाई देने वाली यह आदिम मनोवृत्ति आज के दौर में भी निरंतर बनी हुई है।

पारिवारिक सम्बन्धों का छीजना युगल जी को अंदर तक झकझोर देता है। उनकी लघुकथा 'विस्थापन' घरेलू वातावरण में दिवंगतों की तसवीरों के विस्थापन के बरअक्स इंसानी रिश्तों के विस्थापन की त्रासदी को जीवंत कर देती है। एक और लघुकथा तीर्थयात्रा में माँ की यह यात्रा अंतिम यात्रा में बदल जाती है, किन्तु बेटा संवेदनशून्य बना रहता है।

युगल जी ने जनतंत्र के राजतंत्र में बदल जाने की विडम्बना को अपनी कई लघुकथाओं का विषय बनाया है।  जनतंत्र शीर्षक रचना पब्लिक स्कूल में समाज अध्ययन की कक्षा में पढ़ते बच्चों के साथ शिक्षक के संवादों के जरिये हमारे सामने गहरा प्रश्न छोड़ जाती है कि क्या हम आजादी के दशकों बाद भी राजतंत्र से इंच भर दूर आ पाये हैं। चेहरे बदल गए हैं, किन्तु सत्ता का चरित्र जस का तस बना हुआ है।

बागड़ ही जब खेत को खाने लगे तो आस किससे की जाए? इस बात को वे पैनेपन के साथ उभारते हैं। आश्रय शीर्षक लघुकथा में बलात्कृता को सुरक्षित आश्रय में रख  दिया जाता है, किन्तु वह वहाँ भी महफूज नहीं रह पाती है। अंततः  आश्रय स्थल ही उसका मृत्यु स्थल सिद्ध होता है। उनकी एक और लघुकथा ‘पुलिस' रक्षकों के ही भक्षक बन जाने की भयावह स्थिति का बयान है ।

उनकी ‘पेट का कछुआ' एक अलग अंदाज की चर्चित लघुकथा है, जहाँ लेखक की आँखों देखी घटना रचना का कलेवर लेकर आती है। बन्ने के पेट में कछुआ है। उसके इलाज के लिए पहले तो उसके पिता चंदा जुटाने के लिए तत्पर हो जाते हैं, फिर यही कार्य व्यवसाय बन जाता है। बेटे के पेट के कछुए से पिता के पेट की भूख का कछुआ जीत जाता है।

उनकी लघुकथाएँ सर्वव्यापी सांप्रदायिकता पर तीखा प्रहार करती हैं । मुर्दे शीर्षक लघुकथा में मुर्दाघर में रखे मुर्दे भी कौम की बात करते दिखाये गए हैं। वहीं पर आया एक समाजसेवी भी अपनी कौम को ध्यान में रखे हुए है, फिर किसकी बात की जाए? एक गहरा प्रश्न युगल जी छोड़ जाते हैं। ‘नामांतरण’ लघुकथा में लेखक ने मानवीय सम्बन्धों के बीच धर्म के बढ़ते हस्तक्षेप को बड़ी शिद्दत से उभारा है।    अंध धार्मिकता के प्रसार के बावजूद युगल जी समाज के उन हिस्सों की ओर भी संकेत करते हैं, जहाँ अब भी संभावनाएं शेष हैं। ‘कर्फ्यू की वह रात’ इसी प्रकार की लघुकथा है, जहाँ एक माँ धर्म या जाति के नाम पर जारी भेदों को निस्तेज कर जाती है।       
   
युगल जी की लघुकथाओं में निरंतर नए प्रयोग करते रहे। उन्होंने प्रारम्भिक दौर में प्रतीक, मिथक आदि को लेकर महत्त्वपूर्ण कार्य किया , जो धीरे – धीरे ट्रेंड बन गया। उनके यहाँ पूर्वांचल की स्थानीयता का चटक रंग यहाँ-वहाँ उभरता हुआ दिखाई देता है, वहीं वे सहज, किन्तु बेहद गहरे प्रतीकों की योजना से बरबस ही हमारा ध्यान खींच लेते हैं। युगल जी मानते थे कि लघुकथा विचार, दृष्टि और प्रेरणा के सम्प्रेषण में एक तराशी हुई विधा है। यही तराश उनकी लघुकथाओं की शक्ति है और उन्हें इस सृजन धारा में विलक्षण बनाती है।

प्रो॰ शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष 
हिंदी विभाग
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन [म.प्र.] 456 010

देवनागरी विमर्श

देवनागरी विमर्श: भारतीय लिपि परम्परा में देवनागरी की भूमिका अन्यतम है। सुदूर अतीत में ब्राह्मी इस देश की सार्वदेशीय लिपि थी, जिसकी उत्तरी और दक्षिणी शैली से कालांतर में भारत की विविध लिपियों का सूत्रपात हुआ। इनमें से देवनागरी को अनेक भाषाओँ की लिपि बनने का गौरव मिला। देवनागरी के उद्भव-विकास से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी के साथ हमकदमी तक समूचे पक्षों को समेटने का प्रयास है डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा द्वारा सम्पादित ग्रन्थ- देवनागरी विमर्श। चार खण्डों में विभक्त इस पुस्तक की संरचना में नागरी लिपि परिषद्, राजघाट, नई दिल्ली और कालिदास अकादेमी के सौजन्य-सहकार में मालव नागरी लिपि अनुसन्धान केंद्र की महती भूमिका रही है। अविस्मरणीय सम्पादन-सहकार संस्कृतविद् डॉ जगदीश शर्मा, साहित्यकार डॉ जगदीशचन्द्र शर्मा, डॉ संतोष पण्ड्या और डॉ मोहसिन खान का रहा। यह ग्रन्थ प्रख्यात समालोचक गुरुवर आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी को समर्पित कर हम कृतार्थ हुए थे। आवरण-आकल्पन कलाविद् अक्षय आमेरिया का है।

देवनागरी विमर्श
सम्पादक: डॉ शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रकाशक: मालव नागरी लिपि अनुसन्धान केंद्र
उज्जैन (म प्र)

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20150516

अंतर-अनुशासनिक अध्ययन-अनुसंधान के अपूर्व प्रसार का दौर -प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

अंतर-अनुशासनिक अध्ययन-अनुसंधान : नई सम्भावनाएं - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा 

वर्तमान दौर ज्ञान-विज्ञान की विविधमुखी प्रगति के साथ अंतर-अनुशासनिक अध्ययन और अनुसंधान के अभूतपूर्व प्रसार का दौर है। ज्ञान की रूढ़ सीमाओं के पार कुछ नया बनाने और उन्हें विस्तार देने का महत्त्वपूर्ण नजरिया है- अंतर-अनुशासनात्मकता। अंतरानुशासनिक विशेषण का प्रयोग मुख्य तौर पर शैक्षिक हलकों में किया जाता है, जहां दो या दो से अधिक अनुशासनों के शोधकर्ताओं द्वारा अपने दृष्टिकोणों का समन्वय किया जाता है तथा सामने आई समस्या के बेहतर रूप से अनुकूलित समाधान के लिए उन दृष्टिकोणों को संशोधित किया जाता है। इसी तरह यह पद्धति वहाँ भी प्रयुक्त होती है, जब समूह शिक्षण पाठ्यक्रम के मामले में छात्रों को कई पारंपरिक अनुशासनों के संदर्भ में किसी एक विषय को समझने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, भूमि के उपयोग के विषय को जब विभिन्न अनुशासनों, जैसे जीवविज्ञान, रसायनविज्ञान, अर्थशास्त्र, भूगोल, राजनीति विज्ञान आदि की दृष्टि से जांचा-परखा जाता है, तब वह हर बार अलग ढंग से सामने आ सकता है। अंतरानुशासनिकता दो या अधिक अकादमिक अनुशासनों का किसी एक गतिविधि, जैसे शोध परियोजना, में संयोजन है। यह विषयों की सीमाओं को अतिक्रांत कर उनसे परे सोचते हुए कुछ नया रचने का उपक्रम है। यह नई उभरती जरूरतों और व्यवसायों के अनुरूप किसी अंतरानुशासनिक क्षेत्र से सम्बद्ध एक ऐसी प्रक्रिया है, जो अकादमिक अनुशासनों या चिंतन के विभिन्न संप्रदायों की पारंपरिक सीमाओं को तोड़ते हुए उसे एक संगठनात्मक इकाई में पर्यवसित करती है। अंतरानुशासनिक अनुसंधान की पद्धति ज्ञान की बुनियादी समझ को विकसित करने या समस्याओं को हल करने के लिए विशेष कारगर रहती है। अंतरानुशासनिक अनुसंधान दो या दो से अधिक अध्ययन क्षेत्रों या विशेष ज्ञान के निकायों के माध्यम से शोध की एक ऐसी पद्धति है, जहां टीमों या व्यक्तियों द्वारा विविध सूचनाओं, डेटा, तकनीक, उपकरण, दृष्टिकोणों और अवधारणाओं को एकीकृत किया जाता है। अंतर-अनुशासनात्मक अध्ययन को लेकर डबल्यू नेवेल द्वारा संपादित ‘एडवांसिंग इंटरडिसिप्लिनरी स्टडीज़' पुस्तक में जे. क्लेन और डबल्यू. नेवेल (1998) द्वारा दी गई इसकी परिभाषा कुछ इस तरह है, जो व्यापक रूप से उद्धृत भी की जाती है- “किसी प्रश्न का उत्तर खोजने या किसी समस्या के समाधान, अथवा किसी ऐसे विषय को लक्ष्य बनाने की प्रक्रिया अंतरानुशासनात्मक अध्ययन है, जहाँ उस प्रश्न, समस्या या विषय के अत्यधिक व्यापक या जटिल होने के कारण है, किसी एकल अनुशासन या पेशे से उसका समुचित रूप में समाधान नहीं हो पाता है। इसके माध्यम से हम अनुशासनात्मक दृष्टिकोणों को ग्रहण करते हैं और फिर अपेक्षाकृत कहीं अधिक व्यापक दृष्टिकोण की निर्मिति करते हुए गहरी अंतर्दृष्टि को समाहित करते हैं।“ (पृ. 393-4) जाहिर है यह अध्ययन पद्धति ज्ञान-विज्ञान की जटिलता और व्यापकता को अपेक्षया सुगम बनाने में विशेष तौर पर कारगर सिद्ध हो सकती है। वैसे तो अंतरानुशासनिक अनुसंधान प्राचीन युग से होते आ रहे हैं, जिनके प्रमाण पूर्व और पाश्चात्य- उभयदेशीय संदर्भों में बिखरे पड़े हैं। किन्तु आधुनिक युग में अंतर-अनुशासनात्मक शोध की विविधमुखी प्रगति दिखाई दे रही है। इसके विकास के पीछे कई कारण आधार में रहे हैं। जैसे- समाज एवं प्रकृति की जटिलता, नित-नई सामाजिक समस्याओं को सुलझाने की आवश्यकता, उन समस्याओं या प्रश्नों के उत्तर पाने की जिज्ञासा, जिसे किसी एक अनुशासन के अंतर्गत प्राप्त नहीं किया जा सकता है, नई तकनीक की सामर्थ्य और उससे प्राप्त सुविधाएं, विश्वयुद्धों के बाद सामाजिक कल्याण, आवास, जनसंख्या, अपराध आदि से जुड़े प्रश्नों और समस्याओं का हल निकालने के लिए आदि आदि। एक अन्य स्तर पर अंतरानुशासनात्मकता को अत्यधिक विशेषज्ञता के हानिकारक प्रभावों के लिए एक ठोस उपाय के रूप में भी देखा जाता रहा है। कहीं पर अंतर-अनुशासनात्मक अध्ययन किसी विषय विशेषज्ञ के बिना है और कहीं पर एकाधिक क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। निश्चय ही दोनों स्थितियों में फर्क होगा।जहां कई अंतरानुशासनिकों द्वारा कार्य किया जाता है, वहाँ जरूरी है कि विषय के विशेषज्ञगण अपने-अपने विषयों के पार देखने और नया करने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित रखें। वे सभी ज्ञानमीमांसीय रूप से अपनी अत्यधिक विशेषज्ञता को समस्याओं के नए समाधान प्राप्त करने पर खुद को केन्द्रित करते हुए अंतःविषय सहयोग में प्रभावी भूमिका निभाएँ। तभी शोध के परिणामों को विभिन्न विषयों के ज्ञान को अद्यतन करने के लिए प्रत्यार्पित किया जा सकता है। इसीलिए अनुशासनिकों और अंतरानुशासनिकों- दोनों को एक दूसरे के पूरक संबंध में देखा जा सकता है। वर्तमान में विविध ज्ञानानुशासनों और भाषा-साहित्य के क्षेत्र में शोध की अपार संभावनाएं उद्घाटित हो रही हैं। सभी अध्ययन क्षेत्रों में अंतरानुशासनिक अनुसंधान सहित शोध की अद्यतन प्रवृत्तियों को लेकर व्यापक चेतना जाग्रत करने की जरूरत है, तभी हम शोध में गुणवत्ता उन्नयन के प्रादर्श को साकार कर पाने में समर्थ सिद्ध होंगे। इस दिशा में दृष्टि-सम्पन्न शोधकर्ताओं और युवाओं से गंभीर प्रयत्नों की अपेक्षा व्यर्थ न होगा। 'अक्षर वार्ता' परिवार शोध की नित-नूतन दिशाओं में सक्रिय मनीषियों, शोधकर्ताओं और लेखकों के शोध-आलेखों और सार्थक प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत करता है। 

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा- प्रधान संपादक 0 डॉ मोहन बैरागी - संपादक 

(सम्पादकीय April 2015 Editorial अक्षर वार्ता अप्रैल 2015 @ Akshar varta April 2015)

 
अक्षर वार्ता अप्रैल 2015 @ Akshar varta April 2015 आवरण:अरालिका शर्मा cover: Aralika Sharma कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक शोध की अधुनातन प्रवृत्तियों को लेकर सजगता की दरकार करता है....अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस) प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)। कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये। ईमेल aksharwartajournal@gmail.com 
 

20141204

घर-आँगन से व्यापक लोक-जीवन तक जीवंत रहने दें लोक-संस्कृति को


अक्षर वार्ता : लोक-संस्कृति पर एकाग्र विशिष्ट अंक कला-मानविकी-समाज विज्ञान-जनसंचार-विज्ञान-वैचारिकी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका का यह अंक लोक विरासत के प्रति नई चेतना का आह्वान करता है। पेश है कुछ अंश ------ सम्पादकीय: किसी भी परम्पराशील राष्ट्र की सही पहचान लोक एवं जनजातीय भाषा और संस्कृति के बिना संभव नहीं है। इधर एशियाई-अफ्रीकी राष्ट्रों, विशेष तौर पर भारत को ही देखें तो हम पाते हैं कि यहाँ की संस्कृति और सभ्यता न जाने किस सुदूर अतीत से आती हुई परम्पराओं पर टिकी हुई है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति विविध लोक एवं जनजातीय संस्कृतियों का जैविक समुच्चय है, जिसके निर्माण में अज्ञात अतीत से सक्रिय विविध जनसमुदायों की सहभागी भूमिका चली आ रही है। सारे भारत की भाषा और बोलियाँ तथा उनसे जुड़ी संस्कृति एक-दूसरे के हाथों में हाथ डाले इस तरह से खड़ी हैं कि उन्हें एक-दूसरे से विलग किया जाना संभव नहीं है। इनके बीच मेल-मिलाप का सिलसिला पुरातन काल से चला आ रहा है। लोक और जनजातीय समुदायों से उनकी संस्कृति, परम्परा और कलारूपों का रिश्ता इतना नैसर्गिक और जीवन्त है कि उनके बीच विभाजक रेखा खींच पाना असंभव है। वस्तुतः लोक-संस्कृति परंपराबद्ध समूहों द्वारा स्थानीय रूप से अधिनियमित रोजमर्रा की जिंदगी के एकीकृत प्रभावपूर्ण घटकों को मूर्त करती है। एक दौर में लोक-संस्कृति की अवधारणा मुख्य रूप से अन्य समूहों से पृथक रहने वाले लघु, सजातीय और ग्राम्य समूहों में प्रचलित परंपराओं पर केंद्रित थी। किन्तु आज लोक-संस्कृति आधुनिक और ग्रामीण घटक - दोनों के एक गतिशील निरूपण के रूप में चिह्नित की जाती है। ऐतिहासिक रूप से यह मौखिक परंपरा के माध्यम से हस्तांतरित होती आ रही थी, वहीं अब तेजी से गतिशील कंप्यूटरसाधित संचार के माध्यम से विस्तार पा रही है। इसके जरिये समूहगत पहचान और समुदाय के विकास की दिशाएँ भी खुल रही हैं। लोक-संस्कृति बहुधा स्थानीयता की भावना के साथ गहराई से रंजित रही है। यहाँ तक कि जब किसी परदेशी द्वारा एक लोक-संस्कृति के तत्वों की नकल की जाती है या उसे अपने यहाँ स्थानांतरित करने की कोशिश की जाती है, तो वह अभी भी अपने सृजन के मूल स्थान के संपृक्तार्थों को मजबूती के साथ ले जाती है। वर्तमान दौर में लोक-संस्कृति के अनेक तत्त्व लोकप्रिय और आभिजात्य संस्कृति में अंतर्लीन होते हुए भी दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में लोक-संस्कृति का अध्ययन-अनुसंधान नई चुनौतियाँ उपस्थित कर रहा है। इस दिशा में अक्षर वार्ता अपने विनत प्रयासों के साथ उपस्थित है। हमारी समृद्ध लोक-संस्कृति से जुड़े शोध-अनुशीलन को प्रोत्साहन देने के लिए अक्षर वार्ता सन्नद्ध है, प्रस्तुत अंक में इसकी बानगी मालवा-निमाड़ अंचल से जुड़ी महत्त्वपूर्ण सामग्री से मिलेगी। भारत के हृदय अंचल मालवा-निमाड़ ने एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को ‘गागर में सागर’ की तरह आत्मसात किया हुआ है। यहाँ की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को यहाँ की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा-निमाड़ अंचल के निकटवर्ती अंचलों में मेवाड़, हाड़ौती, गुजरात, भीलांचल, महाराष्ट्र और बुन्देलखण्ड इन्द्रधनुष की तरह अपने-अपने रंग इस क्षेत्र में बिखेरते आ रहे हैं। इन सभी की मिठास और ऐश्वर्य को इस अंचल ने अपने अंदर समाया है, वहीं इन सभी को अपने जीवन रस से सींचा भी है। यहाँ की संस्कृति का भारतीय संस्कृति, जीवनशैली और परम्परा के साथ गहरा तादात्म्य रहा है। इसके प्रमाण वैदिक वाङ्मय से लेकर महाभारत और पुराणकाल तक सहज ही उपलब्ध हैं। लोक-भाषाएँ, साहित्य और विविध कलाभिव्यक्तियाँ वस्तुतः भारतीय संस्कृति के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में विविध समुदाय अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। वैसे तो दुनियाभर में छह हजार भाषाएँ बोली जाती हैं, लेकिन भाषागत विविधता का आबादी की सघनता से कोई नाता दिखाई नहीं दे रहा है। संसार में हर साल कहीं न कहीं दस भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। यह संकट उन तमाम बोली-उपबोलियों के समक्ष गहराता जा रहा है, जिनके प्रयोक्ता या तो इन्हें पिछड़ेपन की निशानी मानकर इनसे दूर हो रहे हैं या कथित आधुनिकता की दौड़ में पराई भाषा की ओर उन्मुख हो रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजें और लोक-भाषाओं को उसके घर-आँगन से लेकर व्यापक लोक जीवन के बीच बहने-पनपने दें। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रेमियों, शोधकर्ताओं और लोक-संस्कृतिविदों के समेकित प्रयत्नों की दरकार है।------------ प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा (प्रधान संपादक) एवं डॉ मोहन बैरागी (संपादक) (आवरण-छायांकन: प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा) (ईमेल aksharwartajournal@gmail.com)

20141124

शोध की नितनूतन दिशाओं की तलाश में गतिशील 'अक्षर वार्ता'

सम्पादकीय- नवंबर 2014 मानवीय ज्ञान की उन्नति और जीवन की सुगमता के लिए शोध की महत्ता एक स्थापित तथ्य है। प्रारम्भिक शोध का लक्ष्य नवीन तथ्यों का अन्वेषण था। इसके साथ क्रमशः व्याख्या-विवेचना का पक्ष जुड़ता चला गया। शोध की नई-नई प्रक्रिया-प्रविधियों के विकास के साथ मानवीय ज्ञान का क्षितिज भी विस्तृत होता चला गया। यह कहना उचित होगा कि वर्तमान विश्व शोध की असमाप्त यात्रा का एक पड़ाव भर है, चरम नहीं। मनुष्य के कई स्वप्न, कई कल्पनाएँ अब वास्तविकता में परिणत हो चुके हैं और अनेक साकार होने जा रहे हैं। यह सब अनुसंधान कर्ताओं की शोध-दृष्टि और उस पर टिके रहकर किए गए अथक प्रयासों से ही संभव हो सका है। सदियों पहले किए गए कई शोध आज की हमारी नई दुनिया की नींव बने हुए हैं। मुश्किल यह है कि हमारी नज़र कंगूरों पर टिकी होती है, नींव ओझल बनी रहती है। वस्तुतः ऐसे नींव के पत्थर बने शोधकर्ताओं को स्मरण किया जाना चाहिए। अनुसंधान की अनेकानेक पद्धतियाँ हैं, जो ज्ञानमीमांसा पर निर्भर करती हैं। यह दृष्टिकोण ही मानविकी और विज्ञान के भीतर और उनके बीच - दोनों में पर्याप्त भिन्नता ले आता है। अनुसंधान के कई रूप हैं- वैज्ञानिक, तकनीकी, मानविकी, कलात्मक, सामाजिक, आर्थिक, व्यापार, विपणन, व्यवसायी अनुसंधान आदि। यह शोधकर्ता के दृष्टिकोण पर ही निर्भर करता है कि वह किस पद्धति को आधार बनाता है या उसका फोकस किस पर है। वर्तमान दौर में वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में तेजी आई है। यह अनुसंधान डेटा संग्रह, जिज्ञासा के दोहन का एक व्यवस्थित तरीका है। यह शोध व्यापक प्रकृति और विश्व की सम्पदा की व्याख्या के लिए वैज्ञानिक सूचनाएं और सिद्धांत उपलब्ध कराता है। यह विविध क्षेत्रों से जुड़े व्यावहारिक अनुप्रयोगों को संभव बनाता है। वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए पहले समस्या की तलाश करना होती है। तत्पश्चात उसकी प्राक्कल्पना करना होती है। उसके बाद अन्वेषण आगी बढ़ता है, जहां विविध प्रकार के आंकड़ों का परीक्षण-विश्लेषण कर एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है। पूर्व-कल्पनाएं और अब तक प्राप्त तथ्य बार-बार पुनरीक्षित किए जाते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान विभिन्न प्रकार के संगठनों और कंपनियों सहित निजी समूहों द्वारा वित्तपोषित होते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान उनके अकादमिक और अनुप्रयोगात्मक अनुशासनों के अनुरूप विभिन्न आयामों में वर्गीकृत किए जा सकता हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान एक अकादमिक संस्था की प्रतिष्ठा को पहचानने के लिए व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली कसौटी माना जाता है। लेकिन कुछ लोग तर्क देते हैं कि इस आधार पर संस्था का गलत आकलन होता है, क्योंकि अनुसंधान की गुणवत्ता शिक्षण की गुणवत्ता का संकेत नहीं करती है और इन्हें आवश्यक रूप से पूरी तरह एक-दूसरे से सहसंबद्ध नहीं किया जा सकता है। मानविकी के क्षेत्र में अनुसंधान में कई तरह प्रविधियाँ, उदाहरण के तौर पर व्याख्यात्मक और संकेतपरक आदि समाहित होती हैं और उनके सापेक्ष ज्ञानमीमांसा आधार बनती है। मानविकी के अध्येता आम तौर पर एक प्रश्न के परम सत्य उत्तर के लिए खोज नहीं करते हैं, वरन उसके सभी ओर के मुद्दों और विवरणों की तलाश में सक्रिय होते हैं। संदर्भ सदैव महत्वपूर्ण बना रहता है और यह संदर्भ, सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या जातीय हो सकता है। मानविकी में अनुसंधान का एक उदाहरण ऐतिहासिक पद्धति में सन्निहित है, जो ऐतिहासिक पद्धति पर प्रस्तुत किया जाता है। इतिहासकार एक विषय के व्यवस्थित अन्वेषण के लिए प्राथमिक स्रोतों और साक्ष्यों का प्रयोग करते हैं और तब अतीत के लेखे-जोखे के रूप में इतिहास का लेखन करते हैं। रचनात्मक अनुसंधान को 'अभ्यास आधारित अनुसंधान' के रूप में भी देखा जाता है। यह अनुसंधान वहाँ आकार लेता है, जब रचनात्मक कार्यों को स्वयं शोध या शोध के लक्ष्य के रूप में लिया जाता है। यह चिंतन का विवादी रूप है, जो ज्ञान और सत्य की तलाश में अनुसंधान की विशुद्ध वैज्ञानिक प्रविधियों के समक्ष एक विकल्प प्रदान करता है। शोध की प्रयोजनपरकता, स्तरीयता और गुणवत्ता की राह सुगम हो, यह विचार इस पत्रिका के लक्ष्यों में अन्तर्निहित है। शोध की नितनूतन दिशाओं की तलाश में सक्रिय अनेक विद्वानों, मनीषियों और शोधकर्ताओं का सक्रिय सहयोग हमें मिल रहा है। सांप्रतिक शोध परिदृश्य में 'अक्षर वार्ता' रचनात्मक हस्तक्षेप का विनम्र प्रयास है , इस दिशा में आप सभी के सहकार के लिए हम कृतज्ञ हैं। पत्रिका को बेहतर बनाने के लिए आपके परामर्श हमारे लिए सार्थक सिद्ध होंगे, ऐसा विश्वास है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा -प्रधान संपादक एवं डॉ मोहन बैरागी - संपादक

20141008

संस्कृतिकर्म को प्रोत्साहित करे मीडिया

पत्रकारिता के बदलते सरोकार पर राष्ट्रीय परिसंवाद एवं सम्मान समारोह में विद्वानों ने जताई चिंता उज्जैन। बदलते दौर और व्यावसायिकता का गहरा प्रभाव पत्रकारिता पर दिखाई दे रहा हैं। ऐसे में भारतीय मीडिया जगत संस्कृतिकर्म को प्रोत्साहित करना भुलने लगा है,जबकि विदेशो में हमारी संस्कृति के आकर्षण को जिंदा रखा जा रहा है। यहां के मीडिया को चाहिये कि भाषा और संस्कृति को लेकर सजगता लाये और लिपि को बचाने में भी अपना योगदान दें। यह सीख वरिष्ठ मीडिया विशेषज्ञ एवं बैंक ऑफ बडौदा, मुंबई के सहायक महाप्रबंधक डॉ.जवाहर कर्नावट ने दी। वे रविवार को कालिदास अकादमी के अभिरंग नाट्यगृह में आयोजित राष्ट्रीय परिसंवाद एंव सम्मान समारोह में बोल रहे थे। संस्था कृष्णा बसंती और झलक निगम सांस्कृतिक न्यास के इस आयोजन में दैनिक भास्कर के एमपी-2 हेड नरेन्द्र सिंह अकेला ने भी पत्रकारिता के क्षेत्र में आ रहे बदलाव पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि बीते दौर में सीमित संसाधनों में पत्रकारिता का बेहतर निर्वहन होता था। आज संसाधन और सुविधाएं बढ़ीं, वहीं पत्रकारिता के ज्ञान का अभाव दिखाई देता है। इस क्षेत्र के लोगों में समर्पण और लगन के साथ ही अपने दायित्वों की जिम्मेदारी का अभाव झलकता है। समारोह की अध्यक्षता कर रहें विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक और समालोचक डॉ.शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने संस्कृति और समाज को गति देने में पत्रकारिता को आगे आने की बात की। डॉ.लक्ष्मीनारायण पयोधि, भोपाल ने आंचलिक पत्रकारिता के लिए क्षैत्रिय समाज और संस्कृति की पृष्ठभुमि का ज्ञान जरुरी होने पर जोर दिया। वरिष्ठ पत्रकार एवं कला समीक्षक विनय उपाध्याय, भोपाल ने संस्कृति कर्म को लेकर मीडिया में उपेक्षा का का जिक्र करते हुए इसे अनुचित करार दिया और कला और जीवन के अटूट रिश्ते को समझने की बात कही। डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित ने स्वर्गीय झलक निगम के मालवी साहित्य एवं सस्कृति के क्षेत्र में उनके अवदान पर प्रकाश डाला। वरिष्ठ अधिवक्ता सुभाष गौड ने भी स्वर्गीय निगम के मालवी के संवर्धन के लिए व्यापक प्रयत्न का उल्लेख किया। कार्यक्रम के शुभारंभ में लेखिका सुशीला निर्मोही के पांचवें काव्य संग्रह ‘कलरव’ तथा अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका अक्षर वार्ता का लोकापर्ण अतिथियों द्वारा किया गया। इसके अलावा प्रसन्नता शिंदे के अग्रेजी उपन्यास डिस्क्रीमिनेशन अगेंस्ट मेन ‘ए ट्रू लव टेल’ के कवर पेज का विमोचन किया। ‘कलरव’ की समीक्षा व्यंगकार डॉ.पिलकेन्द्र अरोरा ने की। अतिथि परिचय डॉ.जगदीशचंद्र शर्मा ने दिया। संस्था कृष्णा बसंती की गतिविधियों एवं उद्देश्यों की जानकारी संस्था अध्यक्ष डॉ.मोहन बैरागी ने दी। झलक निगम सांस्कृतिक न्यास की जेड श्वेतिमा निगम ने न्यास की जानकारी दी। इसी बीच संस्था कृष्णा बसंती द्वारा साहित्य,पत्रकारिता,लेखन एवं कला आदि क्षेत्र में योगदान देने वालों को सम्मानित किया गया। अतिथि स्वागत श्वेतिमा निगम,रुचिर प्रकाश निगम,डॉ. मोहन बैरागी,निशा बैरागी,भावना निगम,डॉ.ओ.पी.वैष्णव,सुरेश बैरागी, कृष्णदास बैरागी आदि ने किया। सरस्वती वंदना मालवी कवि मोहन सोनी ने की। परिसंवाद का संचालन श्री जीवनप्रकाश आर्य ने किया। वृहद काव्य गोष्ठी का संचालन कृष्णदास बैरागी द्वारा किया गया,जबकि पुस्तक विमोचन का संचालन कार्यक्रम का संचालन राजेश चौहान राज ने किया। आभार कृष्णा बसंती के डॉ.ओ.पी.वैष्णव ने माना। इनका किया सम्मान-साहित्य के क्षेत्र में वरिष्ठ कवि मोहन सोनी,व्यंग्यकार पिलकेन्द्र अरोरा,शायर रमेशचंद्र ‘सोज’,कवि अरविंद त्रिवेदी ‘सनन’,गीतकार कैलाश ‘तरल’,लघुकथाकार संतोष सुपेकर,रचनाकार संदीप सृजन,व्यंग्यकार राजेन्द्र देवधरे,गीतकार राजेश चौहान ‘राज’,पक्षीवैज्ञानिक डॉ. जे पी एन पाठक,चित्रकार अक्षय आमेरिया,पत्रकार राजीव सिंह भदौरिया (दैनिक भास्कर),रवि चंद्रवंशी (पत्रिका),निरुक्त भार्गव (फ्रीप्रेस) और सुधीर नागर (नईदुनिया) के अलावा इलेक्ट्रानिक मीडिया से फोटो जर्नलिस्ट प्रकाश प्रजापत (नईदुनिया) तथा सुनील मगरिया (हिंदुस्तान टाईम्स) आदि प्रमुख थे। [प्रस्तुति-डॉ.मोहन बैरागी,अध्यक्ष,संस्था कृष्णा बसंती, उज्जैन ]

20140809

अक्षर वार्ता : शोध की अभिनव दिशाओं की तलाश में एक उपक्रम AKSHARWARTA: RESEARCH PAPER SUBMISSION GUIDELINES

Aksharwarta ISSN 2349-7521 International research journal is an international academic , interdisciplinary, Monthly, and fully  refereed journal focusing on theories, methods and applications in various fields like Arts, Humanities, Social Science, Mass Communication, Science. The Journal promotes the submission of manuscripts that meet the general criteria of significance and Research excellence.
The following formats of the manuscripts can be accepted: Research Papers, Case Studies, Thematic Articles, Book Reviews and Conference Papers.
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Word Limit-  2500-5000 words are preferred. Type Your Research paper in MS-Word along with your name, Designation, Subject name of institution, E-mail Address, Postal Address, Contact Number.Font Size- Title 14 Point Bold, Text-12
Note: It is Compulsory for every Contributor that they should send used font(s) along with the research paper.For publication of research paper it is compulsory to send following items by post.
. Computer typed research paper
. CD/DVD of your research paper
. Copyright notice and membership form (download from website)
. Manuscripts may be submitted directly to this email address: 
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Decision of Publication:
The decision of publication will be based on the recommendations of the editorial board. once the board goes through the report of reviewers and doubtable blind review process. An acknowledgement of receipt of manuscripts would be sent to the authors.All the legal undertaking related to this research journal is subjected to be hearable at Ujjain jurisdiction only. Note: Authors will be answerable to the content of their articles 
शोध-पत्र भेजने संबंधी नियम
शोध-पत्र 2500-5000 शब्दों से अधिक नही होना चाहिए।  • हिन्दी माध्यम  के शोध-पत्रों को कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फोंट  (Kruti Dev 010) में टाईप करवाकर माइक्रोसाफट वर्डमें भेजें।  • अंग्रेजी माध्यम के शोध-पत्र टाइम्स न्यू रोमन (Times New Roman), एरियल फोंट (Arial)  में टाइप करवाकर माइक्रोसॉफ वर्डमें भेज सकते है।  • शोध-पत्र की सॉफ्टकॉपी अक्षरवार्ताके ईमेल आईडी पर भेजने के बाद हार्ड कॉपी, शोध-पत्र के मौलिक होने के घोषणा-पत्र के साथ हस्ताक्षर कर अक्षरवार्ताके कार्यालय को प्रेषित करें।  • Please Follow- APA/MLA Style for formatting • अक्षरवार्ता की वार्षिक सदस्यता का शुल्क रु 500 भुगतान  बैंक द्वारा सीधे ट्रांसफर या जमा किया जा सकता है। बैंक का विवरण निम्नानुसार है- बैंक : Corporation Bank, Branch- Rishi Nagar,Ujjain, IFSC- CORP0000762 ,Account Holder- Aksharwarta, Current Account NO. 076201601000018 भुगतान की मूल रसीद, शोध-पत्र एवं सीडी के साथ कार्यालय पते पर भेजना अनिवार्य है।अक्षर वार्ता का प्रबंधन और संपादन पूर्णत: अवैतनिक है, अक्षर वार्ता में प्रकाशित लेखों में व्यक्त विचार संबंधित लेखकों के अपने हैं। उनके प्रति वे स्वयं उत्तरदायी हैं। संपादक मण्डल व प्रकाशक का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं हैं। पत्रिका से संबंधित प्रत्येक विवाद का न्याय क्षेत्र उज्जैन ही मान्य होगा।

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अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका 'अक्षरवार्ता' का विमोचन

 'अक्षरवार्ताका विमोचन - प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल, प्रधान सम्पादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मासम्पादक डॉ. मोहन बैरागीसम्पादक डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा वं तिथि
अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका 'अक्षरवार्ताका विमोचन विदिशा में आयोजित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त समारोह में संपन्न हुआ।  साहित्य अकादेमी  मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद्, भोपाल द्वारा आयोजित दो दिवसीय समारोह के उद्घाटन अवसर पर इस मासिक शोध-पत्रिका का विमोचन अकादेमी के निदेशक एवं वरिष्ठ विद्वान प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल एवं मंचासीन अतिथियों ने किया। पत्रिका का विमोचन प्रधान सम्पादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, सम्पादक डॉ. मोहन बैरागी, सम्पादक मंडल सदस्य डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा ने करवाया। इस मौके पर विदिशा के शास. महाविद्यालय की प्राचार्य डॉ. कमल चतुर्वेदी, साहित्यकार डॉ. शीलचंद्र पालीवाल, डॉ. वनिता वाजपेयी, जगदीश श्रीवास्तव (विदिशा), डॉ. तबस्सुम खान (भोपाल), युवा शोधकर्ता पराक्रमसिंह (उज्जैन) आदि सहित अनेक संस्कृतिकर्मी और साहित्यकार उपस्थित थे।यह पत्रिका उज्जैन से प्रकाशित हो रही है। उज्जैन से प्रकाशित इस आई एस एस एन मान्य  अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में कला, मानविकी, समाजविज्ञान, जनसंचार, विज्ञान, वैचारिकी से जुड़े मौलिक शोध एवं विमर्शपूर्ण आलेखों का प्रकाशन किया जा रहा है। इस पत्रिका के अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल में देश-विदेश के अनेक विद्वानों, संस्कृतिकर्मियों और शोधकर्ताओं का सहयोग मिल रहा है। इनमें प्रमुख हैं- डॉ. सुरेशचन्द्र शुक्ल[नॉर्वे], श्री रामदेव धुरंधर [मॉरीशस], श्री शेर बहादुर सिंह [यूएसए], डॉ. स्नेह ठाकुर [कनाडा], डॉ. जय वर्मा [यू के], प्रो. टी.जी. प्रभाशंकर प्रेमी [कर्नाटक], प्रो. अब्दुल अलीम [उ प्र ], प्रो. आरसु [केरल], डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा [म प्र], डॉ. रवि शर्मा [दिल्ली], प्रो. राजश्री शर्मा [म प्र], डॉ. अलका धनपत [मॉरीशस] आदि। पत्रिका का आवरण कला मनीषी अक्षय आमेरिया ने सृजित किया है। यह पत्रिका देश-विदेश की विभिन्न अकादमिक संस्थाओं, संगठनों और शोधकर्ताओं के साथ ही  इंटरनेट पर भी उपलब्ध रहेगी।
 डॉ. मोहन बैरागी
सम्पादक 
अक्षरवार्ता ISSN 2349-7521
मोबा. 09424014366                                                                                   

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