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20180125

जीवनानुभवों की संक्षिप्त - सुगठित, किन्तु तीक्ष्ण अभिव्यक्ति है लघुकथा : प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा | Interview with Prof. Shailendra Kumar Sharma

समालोचक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा से सन्तोष सुपेकर का साक्षात्कार


प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof. Shailendrakumar Sharma
(समीक्षक, निबंधकार और लोक संस्कृतिविद् प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का जन्म भारत के प्रमुख सांस्कृतिक नगर उज्जैन में हुआ। उच्च शिक्षा देश के प्रतिष्ठित विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से प्राप्त की। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए डा शर्मा ने अनेक नवाचारी उपक्रम किए हैं, जिनमें विश्व हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र, मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र तथा भारतीय जनजातीय साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र एवं भारतीय भक्ति साहित्य केंद्र की संकल्पना एवं स्थापना प्रमुख हैं। तीन दशकों से आलोचना, निबंध-लेखन, नाटक तथा रंगमंच समीक्षा, लोकसाहित्य एवं संस्कृति के विमर्श, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी के विविध पक्षों पर अनुसंधान एवं लेखन कार्य में निरंतर सक्रिय प्रो शर्मा ने पैंतीस से अधिक ग्रन्थों का लेखन एवं सम्पादन किया है। शोध स्तरीय पत्रिकाओं और ग्रन्थों में आपके 300 से अधिक शोध एवं समीक्षा निबंधों एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में 800 से अधिक कला एवं रंगकर्म समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है। डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा जाने-माने समीक्षक एवं लघुकथा के अध्येता हैं। सम्प्रति विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिन्दी विभाग के आचार्य और विभागाध्यक्ष  के रूप में कार्यरत हैं।  प्रस्तुत है, वरिष्ठ लघुकथाकार और कवि संतोष सुपेकर द्वारा लघुकथा से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनसे की गई बातचीत।) 

संतोष सुपेकर : सहस्रों वर्ष लम्बी लघुकथा परम्परा में इस विधा की शर्तें कमोबेश तय हो चुकने के बावजूद, डॉ. गोपाल राय द्वारा लिखित ‘हिन्दी कहानी का इतिहास’ में लघुकथा को कथा-साहित्य के नौ पदों में से एक स्वीकारने जैसी उपलब्धि के बाद भी एक विधा के रूप में लघुकथा को स्थान देने या न देने के प्रश्न क्यों उठते रहते हैं?


शैलेंद्रकुमार शर्मा :  लघुकथा एक स्वतंत्र और स्वायत्त विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है। हमारे वृहत् जीवनानुभवों की संक्षिप्त, सुगठित किन्तु तीक्ष्ण अभिव्यक्ति का नाम लघुकथा है। यह वर्णन या विवरण के बजाय संश्लेषण में विश्वास करने वाली साहित्यिक विधा है, जिसकी परिणति प्रायः विस्फोटक होती है। बीसवीं सदी के अंत तक आते-आते इस विधा ने नए-नए अनुभव क्षेत्रों और अभिव्यक्तिगत आयामों को छूते हुए अपनी विलक्षण पहचान बना ली है। शैलीगत परिमार्जन के बाद लघुकथा का स्वरूप अब और अधिक स्पष्ट और सुसंयत होता जा रहा है। ऐसे दौर में लघुकथाकारों का दायित्व भी बढ़ा है। उन्हें लघुकथा परम्परा में आए बदलावों को लक्षित कर अपनी पहचान बनानी होगी। इसके साथ सम्पादकों का भी दायित्व बनता है कि वे उन्हीं लघुकथाओं को स्थान दें, जो इसकी परम्परा को समृद्ध करती हैं। अन्यथा कमजोर लघुकथाओं के लेखन/प्रकाशन से यह प्रश्न बारम्बार उभरता रहेगा कि इसे स्वतंत्र विधा माना जाये या नहीं? कभी बिहारी के दोहों  के लिए कहा गया था, ‘‘सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर।’’ यह बात आज की लघुकथाओं पर खरी उतर रही है। इसे शुभ संकेत माना जा सकता है।



सन्तोष सुपेकर Santosh Supekar
संतोष सुपेकर : ‘लघुकथा’ शब्द का नामकरण कब और कैसे हुआ? बीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखी गईं लघुकथाएँ क्या ‘लघुकथा’ नाम से ही प्रकाशित होती थीं?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  दृष्टांत, नीति या बोध कथा के रूप में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से होता आ रहा है। मूलतः दृष्टांतों के रूप में लघुकथाएँ विकसित हुईं। इस प्रकार के दृष्टांत नैतिक और धार्मिक दोनों क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं। नैतिकतापरक लघुकथाओं में हम पंचतंत्र, हितोपदेश, महाभारत, बाइबिल, जातक, ईसप आदि की कथाओं को रख सकते हैं। इसी प्रकार धार्मिक दृष्टांतों के रूप में भी देश-विदेश में लघुकथाओं के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। इधर आधुनिक युग में ‘लघुकथा’ नामकरण काफी बिलंब से हुआ है, किन्तु यह तय बात है कि इस नए अवतार में लघुकथा ने शताब्दियों की यात्रा दशकों में तय कर ली है।

‘लघुकथा’ शब्द मूल रूप में अंग्रेजी के ‘शार्ट स्टोरी’ का सीधा अनुवाद है, किन्तु इसके तौल का एक और शब्द ‘कहानी’ हिन्दी में रूढ़ हो चुका है। इधर कहानी और लघुकथा- दोनों अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं। लघुकथा को कहानी का सार या संक्षिप्त रूप मानना उचित नहीं होगा। लघुकथा बनावट और बुनावट में कहानी से अपना स्वतंत्र अस्तित्व और महत्व रखती है। 

आधुनिक काल में हिन्दी लघुकथा की शुरूआत सन् 1900 के आसपास मानी जा सकती है। माखनलाल चतुर्वेदी की ‘बिल्ली और बुखार’ को पहली लघुकथा माना जा सकता है। इस शृंखला में माधवराव सप्रे, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय तक कई महत्वपूर्ण नाम जुड़ते चले गए। सप्रे जी के विशिष्ट अवदान को दृष्टिगत रखते हुए उनके जन्मदिवस पर 19 जून को लघुकथा दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रेमचंद ने अपने सृजन के उत्कर्ष काल में कई लघुकथाएँ लिखीं, जैसे नशा, मनोवृत्ति, दो सखियाँ, जादू आदि। प्रसाद की गुदड़ी के लाल, अघोरी का मोह, करुणा की विजय, प्रलय, प्रतिमा, दुखिया, कलावती की शिक्षा आदि लघुकथा के अनूठे उदाहरण हैं। बंगला साहित्य में भी टैगोर, बनफूल ने महत्वपूर्ण लघुकथाएँ रचीं हैं। हिन्दी में सुदर्शन, रावी, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, रांगेय राघव आदि ने मार्मिक लघुकथाएँ लिखीं। बाद में इस धारा में कई और नाम जुड़ते चले गए - उपेन्द्रनाथ अश्क,  रामनारायण उपाध्याय, हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी, नरेन्द्र कोहली, लक्ष्मीकान्त वैष्णव, संजीव, शंकर पुणताम्बेकर, बलराम, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, डॉ. सतीश दुबे, सतीश राठी, जगदीश कश्यप, डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. कृष्ण कमलेश, चित्रा मुद्गल, मालती जोशी, कमल गुप्त, विक्रम सोनी, भगीरथ, युगल, रमेश बतरा, डॉ. श्यामसुंदर व्यास, पारस दासोत, विक्रम सोनी, मुकेश शर्मा, सूर्यकांत नागर, कमल चोपड़ा, कुमार नरेंद्र, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, माधव नागदा, मधुदीप गुप्ता, सुरेश शर्मा, माधव नागदा, डॉ योगेंद्रनाथ शुक्ल, योगराज प्रभाकर, सन्तोष सुपेकर, राजेन्द्र नागर ‘निरंतर’, अरविंद नीमा, मीरा जैन, कांता राय, अंतरा करवड़े, वसुधा गाडगिल, राजेन्द्र देवधरे दर्पण आदि। युवा लघुकथाकारों के जुड़ने से यह सिलसिला आज भी जारी है। 

हाल के दौर में सुधी कथाकार मधुदीप ने लघुकथा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उनके संयोजन-सम्पादन में लघुकथा के सृजन-आलोचन की अविराम शृंखला पड़ाव और पड़ताल अनेक खण्डों में और प्रमुख लघुकथाकारों के प्रतिनिधि संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इसमें मुझे भी एक समीक्षक के रूप में सहभागी  बनने का अवसर मिला है। 

सुधी लघुकथाकार और सम्पादक श्री सतीश राठी विगत कई दशकों से क्षितिज के माध्यम से लघुकथा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। 

शुरुआती दौर में लघुकथा जैसी स्वतंत्र संज्ञा अस्तित्व में नहीं आई थी, धीरे-धीरे यह संज्ञा ‘कहानी’ से बिलगाव बताने के लिए प्रचलित और स्थापित हुई है। कुछ लोगों ने ‘लघुकथा’ के अतिरिक्त नई संज्ञाएं या विशेषण देने की भी कोशिश की, जैसे मिनी कहानी, मिनीकथा, कथिका, अणुकथा, कणिका, त्वरितकथा, लघुव्यंग्य आदि; लेकिन ये संज्ञाएँ पानी के बुलबुले के समान बहुत कम समय में निस्तेज हो गईं।

संतोष सुपेकर : आपने कहीं कहा है कि अतिशय स्पष्टीकरण लघुकथा की मारक क्षमता को कम करता है। अपने इस कथन के संदर्भ में लघुकथा के आकार पर प्रकाश डालें। यह भी बताएँ कि क्या रचना का कुछ भाग, जो लेखक कहना चाहता है, पाठक को सोचने के लिए छोड़ दिया जाए, अलिखित?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  निश्चय ही मितकथन लघुकथा की अपनी मौलिक पहचान है। अतिशय स्पष्टीकरण या वर्णन के लिए लघुकथा में अवकाश नहीं है। आकार की दृष्टि से लघुकथा को शब्द या पृष्ठों की गणना में बाँधना संभव नहीं है। अनुभूति की सघनता, शब्दों की मितव्ययता, सुगठित बनावट और लघुता-इसे विलक्षण बनाती है। वैसे तो लघुकथा के लिए कोई सुनिश्चित फार्मूला बनाना इसके साथ अन्याय होगा, फिर भी यह तय बात है कि रचना का कुछ भाग, जो लेखक कहना चाहता है, पाठक के लिए छोड़ दिया जाए तो बेहतर होगा।

संतोष सुपेकर : ऐसा कहा गया है कि लघुकथा का शीर्षक तो दूर पहाड़ी पर बने मंदिर के समान होना चाहिए। इस संदर्भ में लघुकथा में शीर्षक की भूमिका पर अपने विचार बताएँ। 

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  किसी भी अन्य विधा की तुलना में लघुकथा के शीर्षक की अपनी विलक्षण भूमिका होती है। कहीं यह उसके मूल मर्म को संप्रेषित करता है, तो कहीं उसके संदेश को। कहीं वह अप्रत्यक्ष रूप से लघुकथा के कथ्य का विस्तार करता है। इसका शीर्षक देना अपने आप में चुनौती भरा काम है। इसमें सर्जक से अतिरिक्त श्रम की अपेक्षा होती है।

संतोष सुपेकर : एक कथ्य, जो लघुकथा में माध्यम बनता है, कहानी में अपना प्रभाव खो देता है, आप क्या कहना चाहेंगे?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  निश्चय ही किसी भी विधा या रूप का रचाव कथ्य की जरूरतों पर निर्भर करता है। इसलिए जो कथ्य लघुकथा के अनुरूप होता है, वह कहानी या किसी भी दूसरी विधा में जाकर अपना प्रभाव खो देगा।

संतोष सुपेकर : प्रेमचंद के अनुसार अतियथार्थवाद निराशा को जन्म देता है। आज की लघुकथाओं में छाया अतियथार्थवाद क्या पाठक को निराश कर रहा है?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  आज की लघुकथाएँ हमारे वैविध्यपूर्ण जीवनानुभवों को मूर्त कर रही हैं। आज का पाठक सभी प्रकार की लघुकथाओं से गुजरते हुए अपनी संवेदनाओं का विकास करता है। केवल निराश होने जैसी कोई बात नहीं है। 

संतोष सुपेकर : डॉ. कमल किशोर गोयनका के अनुसार लघुकथा एक लेखकहीन विधा है। क्या लघुकथाकार को हमेशा रचना में अनुपस्थित ही होना चाहिए? 

शैलेंद्रकुमार शर्मा : लघुकथा को लेखकहीन विधा कहना उचित नहीं है। एक ही कथ्य को लघुकथा में दर्ज करने का हर लेखक का अपना ढंग होता है। श्रेष्ठ लघुकथाओं में लेखक की उपस्थिति सहज ही महसूस की जा सकती है।

संतोष सुपेकर : फ्लैश/कौंध रचनाओं (चौंकाने वाली) को कुछ विद्वान अगंभीर लघुकथा लेखन मानते हैं, जबकि कुछ इसके पक्ष में हैं। हरिशंकर परसाईं ने एक साक्षात्कार में कहा था कि लघुकथा में चरम बिंदु का महत्व होना ही चाहिए, आपकी राय?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  चौंकाने वाली लघुकथाएँ भी समकालीन लघुकथा लेखन को एक खास पहचान देती हैं। इन्हें अगंभीर लेखन मानना उचित नहीं है। लघुकथा में चरम या समापन बिन्दु की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इससे लघुकथा का निहितार्थ असरदार ढंग से पाठक तक पहुँचता है।

संतोष सुपेकर : लघुकथा में क्या पद्यात्मक पंक्तियों की गुंजाइश है? ऐसी आवश्यकता महसूस हो तो लेखक क्या करे?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  लेखकीय आवश्यकता के अनुरूप या अन्य प्रकार के प्रयोगों के लिए लघुकथा में पर्याप्त गुंजाइश है। ये सारे प्रयोग अंततः लघुकथा की सम्प्रेषणीयता में साधन ही बन सकते हैं, यही इनकी सार्थकता है।

संतोष सुपेकर : लघुकथा को और सशक्त होने के लिए क्या आवश्यक मानते हैं- संकलनों का प्रकाशन, समीक्षा गोष्ठियों, लघुकथा सम्मेलनों का आयोजन, रचनात्मक आन्दोलन या कुछ और?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  वर्तमान दौर में लघुकथाएँ बड़े पैमाने पर लिखी जा रही हैं। कुछ रचनाकार इसे बेहद आसान रास्ते के रूप में चुन रहे हैं। इसीलिए कई ऐसी रचनाएँ भी आ रही हैं, जिन्हें लघुकथा कहना उचित नहीं लगता है। वे महज हास-परिहासनुमा संवाद या किस्सों से आगे नहीं बढ़ पाती हैं। इसलिए जरूरी है कि लघुकथा सृजन की कार्यशालाएँ समय-समय पर आयोजित हों, जहाँ इस विधा से जुड़े वरिष्ठ सर्जक और विद्वान भी जुटें। श्रेष्ठ रचनात्मकता के लिए महज आंदोलनधर्मिता से कुछ नहीं  हो सकता है। इसके लिए गंभीर प्रयास जरूरी हैं। लघुकथा कार्यशाला, परिसंवाद, समीक्षा गोष्ठी, सम्मेलन और प्रकाशन-इन सभी की सार्थक भूमिका हो तो बात बने।

संतोष सुपेकर : कथ्य चयन, कथ्य विकास तथा भाषा-शैली क्या कहानी की तुलना में लघुकथा में अतिरिक्त सावधानी की माँग करते हैं?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  कथ्य चयन, उसका विकास और अभिव्यक्ति के उपादान-सभी दृष्टियों से लघुकथा क्षणों में बँटे जीवन के कोमल और खुरदरे यथार्थ की निर्लेप और संक्षिप्त अभिव्यक्ति होती है। इसलिए थोड़े में बहुत कहने की जिम्मेदारी एक लघुकथाकार की होती है। कहानीकार इससे मुक्त हो सकता है, लघुकथाकार नहीं।

संतोष सुपेकर : श्रेष्ठ विधा वही है जो कागज पर खत्म होने के बाद पाठक के मस्तिष्क में प्रारम्भ हो और उसे सोचने के लिए विवश करे। इस कथन के मद्देनजर विषयवस्तु का दोहराव क्या लघुकथा के विकास में बाधक बन रहा है?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  निश्चय ही लघुकथा के सामने एक बड़ी चुनौती उसके दीर्घकालीन और सघन प्रभाव से जुड़ी हुई है। लघुकथाकारों को अपने अनुभव क्षेत्र को विस्तार देते हुए सृजनरत रहना चाहिए अन्यथा विषयवस्तु का दोहराव लघुकथा के विकास में बाधक बना रहेगा।

संतोष सुपेकर : हिंदी लघुकथा के भविष्य को लेकर आप क्या सोचते हैं?

शैलेंद्रकुमार शर्मा :  किसी भी अन्य विधा की तुलना में लघुकथा का भविष्य अधिक उज्ज्वल है। समय के अभाव और जनसंचार माध्यमों के अकल्पनीय विस्तार के बीच लघुकथा के लिए पर्याप्त स्पेस अब भी बना हुआ है। इस स्पेस को पहचानकर लघुकथाकार उसका बेहतर उपयोग करेंगे, ऐसी आशा व्यर्थ न होगी। 

संतोष सुपेकर : प्रतीकात्मक लघुकथाओं पर अपने विचार बताएँ?

शैलेंद्रकुमार शर्मा : लघुकथाओं में प्रतीकों की विशिष्ट भूमिका होती है। सार्थक प्रतीक-प्रयोग से रचनाकार अपनी रचना को देशकाल के कैनवास पर वृहत्तर परिप्रेक्ष्य दे सकता है।


-प्रो. डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष, कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन-456010 (म.प्र.)
-संतोष सुपेकर, 31, सुदामा नगर, उज्जैन (म.प्र.)

(यह विशेष साक्षात्कार लघुकथाकार श्री उमेश महादोषी के संपादन में प्रकाशित अविराम साहित्यिकी के लघुकथा विशेषांक के लिए लिया गया था, जिसके अतिथि संपादक सुधी साहित्यकार श्री बलराम अग्रवाल थे।)

20171221

चंद्रकांत देवताले: जीवन की साधारणता के असाधारण कवि

        जीवन की साधारणता के असाधारण कवि 


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में सुविख्यात श्री चंद्रकांत देवताले अब हमारे बीच नहीं रहे, सहसा विश्वास नहीं होता। नई कविता के फार्मूलाबद्ध होने के बाद उन्होंने अपना अलग काव्य मुहावरा गढ़ा था। पिछली सदी के महानतम कवि मुक्तिबोध पर उन्होंने न केवल महत्त्वपूर्ण शोध किया था, वरन उनकी कविताओं की पृष्ठभूमि पर खड़े होकर तेजी से बदलते समय और समाज की पड़ताल भी गहरी रचनात्मकता के साथ की। उनकी कविताएँ जहाँ माँ, पिता, औरत, पेड़, बारिश और आसपास के आम इंसान को बड़ी सहजता, किन्तु नए अंदाज से दिखाती हैं तो भयावह होती सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों को तीखेपन के साथ उजागर भी करती हैं। मेहनतकश जनता और निम्न वर्ग सदैव उनके दृष्टिपथ में रहे, जिनके असमाप्त अहसान को वे आपाद मस्तक स्वीकार करते हैं। उन्होंने लिखा है, 

‘जो नहीं होते धरती पर

अन्न उगाने, पत्थर तोड़ने वाले अपने

तो मेरी क्या बिसात जो मैं बन जाता आदमी।‘ 

Chandrkant Dewtale by Prabhu Joshi व्यक्ति चित्र: श्री प्रभु जोशी 

संवेदनविहीन व्यवस्था और प्रजातन्त्र की विद्रूपताओं के बीच असमाप्त संघर्ष के साथ जीवन यापन करते आम आदमी की पीड़ा उनमें पैबस्त थी। इसीलिए वे प्रेम और ताप को बचाए रखने की चिंता करते रहे,

‘ अगर नींद नहीं आ रही हो तो

हँसो थोड़ा, झाँको शब्दों के भीतर

खून की जाँच करो अपने

कहीं ठंडा तो नहीं हुआ।‘ 

उनकी कविताओं में एक खास किस्म की बेचैनी नजर आती है, जो अमानवीय होते समय और समाज के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया देती है, 

‘पर कौन खींचकर लाएगा

उस निर्धनतम आदमी का फोटू  

सातों समुन्दरों के कंकडों के बीच से

सबसे छोटा-घिसा-पिटा-चपटा कंकड़

यानी वह जिसे बापू ने अंतिम आदमी कहा था।‘

उनकी कविताओं में वैसी ही सादगी, आत्मीयता और आम आदमी के प्रति निष्ठा नज़र आती है, जैसी उनके स्वभाव में थी। साधारणता को उन्होंने अपने जीवन और कविता में सदा बरकरार रखा, जो उनकी असाधारण पहचान का निर्धारक बन गया। वे लिखते हैं, 

‘यदि मेरी कविता साधारण है

तो साधारण लोगों के लिए भी

इसमें बुरा क्या मैं कौन खास

गर्वोक्ति करने जैसा कुछ भी तो नहीं मेरे पास।‘

गम्भीरता को उन्होंने कभी नहीं ओढ़ा। कोई व्यक्ति एक बार भी उनसे मिलता तो उन्हें भूल नहीं सकता था। प्रायः फोन पर वे बड़े गम्भीर अंदाज में अपने समानधर्मा साहित्यकारों से बात की शुरूआत करते, फिर कुछ ऐसी चुटकी लेते कि हँसी का झरना फूट पड़ता था। उज्जैन के साथ उनका एक बार जो सम्बन्ध बना, वह अटूट बना रहा। उनकी कविताओं में उज्जैन और मालवा के अनेक बिम्ब नई भंगिमा के साथ उतरे हैं। राजस्व कॉलोनी स्थित उनका आवास तरह तरह के पेड़ - पौधों के बीच पक्षियों और श्वानों का बसेरा था, जहाँ वे मूक प्राणियों की सेवा में जुटे रहते थे।
देवताले जी का यह कहना उनके काव्य रसिकों के लिए पता नहीं अब कैसे चरितार्थ हो सकेगा,
 ‘मैं आता रहूँगा उजली रातों में
 चंद्रमा को गिटार-सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए।‘

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

(देवताले जी का व्यक्ति  चित्र: श्री प्रभु जोशी, विख्यात चित्रकार और साहित्यकार)







(चित्र: प्रो चंद्रकांत देवताले के साथ उज्जैन प्रवास पर आए प्रो टी वी कट्टीमनी एवं प्रो जितेंद्र श्रीवास्तव संग प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा की अंतरंग मुलाकातें)


प्रो चन्द्रकान्त देवताले

आधुनिक हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर श्रीचंद्रकांत देवताले का जन्म 7 नवम्बर 1936 को जौलखेड़ा, जिला बैतूल, मध्य प्रदेश में हुआ था। उनकी उच्च शिक्षा इंदौर से हुई तथा पीएच.डी. सागर विश्वविद्यालय, सागर से की थी। देवताले जी उच्च शिक्षा में अध्यापन से संबद्ध रहे। देवताले जी की प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर(1973), दीवारों पर ख़ून से (1975); लकड़बग्घा हँस रहा है (1970), रोशनी के मैदान की तरफ़ (1982), भूखण्ड तप रहा है (1982), आग हर चीज में बताई गई थी (1987), पत्थर की बैंच (1996) आदि। वे उज्जैन के शासकीय कालिदास कन्या महाविद्यालय के प्राचार्य एवं प्रेमचंद सृजन पीठ, उज्जैन के निदेशक भी रहे। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में वे उज्जैन में साहित्य साधना कर रहे थे। उनका निधन 14 अगस्त 2017 को दिल्ली में लंबे उपचार के बाद हुआ। 

देवताले जी को उनकी रचनाओं के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इनमें प्रमुख हैं- कविता समय सम्मान -2011, पहल सम्मान -2002, भवभूति अलंकरण -2003, शिखर सम्मान -1986, माखन लाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, सृजन भारती सम्मान आदि। उन्हें कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूं' के लिए वर्ष 2012 में प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया गया था। उनकी कविताओं के अनुवाद प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में और कई विदेशी भाषाओं में हुए हैं। 

देवताले जी की कविता में समय और सन्दर्भ के साथ ताल्लुकात रखने वाली सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक प्रवृत्तियाँ समा गई हैं। उनकी कविता में समय के सरोकार हैं, समाज के सरोकार हैं, आधुनिकता के आगामी वर्षों की सभी सर्जनात्मक प्रवृत्तियां उनमें हैं। उत्तर आधुनिकता को भारतीय साहित्यिक सिद्धांत के रूप में न मानने वालों को भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि देवताले जी की कविता में समकालीन समय की सभी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से आप उत्तरआधुनिकता को मानें या न मानें, ये कविताएँ आधुनिक जागरण के परवर्ती विकास के रूप में रूपायित सामाजिक सांस्कृतिक आयामों को अभिहित करने वाली हैं। देवताले की कविता की जड़ें गाँव-कस्बों और निम्न मध्यवर्ग के जीवन में हैं। उसमें मानव जीवन अपनी विविधता और विडंबनाओं के साथ उपस्थित हुआ है। कवि में जहाँ व्यवस्था की कुरूपता के खिलाफ गुस्सा है, वहीं मानवीय प्रेम-भाव भी है। वह अपनी बात सीधे और मारक ढंग से कहते हैं। कविता की भाषा में अत्यंत पारदर्शिता और एक विरल संगीतात्मकता दिखाई देती है।

20171128

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा विद्यासागर सम्मानोपाधि से विभूषित

विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ के 18 वें अधिवेशन में सम्मानित हुए प्रो.शर्मा

विनत सारस्वत साधना, साहित्य- संस्कृति और हिन्दी के प्रसार एवं संवर्धन के लिए किए गए विनम्र प्रयासों के लिए मुझे विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, ईशीपुर, भागलपुर [बिहार] द्वारा विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। इस मौके पर डॉ अनिल जूनवाल की खबर -

विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं प्रसिद्ध समालोचक प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा को उनकी सुदीर्घ सारस्वत साधना, साहित्य- संस्कृति के क्षेत्र में किए महत्वपूर्ण योगदान और हिन्दी के व्यापक प्रसार एवं संवर्धन के लिए किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, ईशीपुर, भागलपुर [बिहार] द्वारा विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किया गया। उन्हें यह सम्मानोपाधि उज्जैन में गंगाघाट स्थित मौनतीर्थ में आयोजित विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ के 18 वें अधिवेशन में कुलाधिपति संत श्री सुमनभामानस भूषण’, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ योगेन्द्रनाथ शर्माअरुण’[रूड़की ], प्रतिकुलपति डॉ अमरसिंह वधान एवं कुलसचिव डॉ देवेन्द्रनाथ साह के कर-कमलों से अर्पित की गई । इस सम्मान के अन्तर्गत उन्हें सम्मान-पत्र, स्मृति चिह्‌न, पदक एवं साहित्य अर्पित किए गए। सम्मान समारोह की विशिष्ट अतिथि नोटिंघम [यू के] की वरिष्ठ रचनाकर जय वर्मा, प्रो नवीचन्द्र लोहनी [मेरठ] एवं डॉ नीलिमा सैकिया [असम] थे। इस अधिवेशन में देश-विदेश के सैंकड़ों संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

     प्रो. शर्मा आलोचना, लोकसंस्कृति, रंगकर्म, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि से जुड़े शोध,लेखन एवं नवाचार में विगत ढाई दशकों से निरंतर सक्रिय हैं । उनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित पच्चीस से अधिक ग्रंथ एवं आठ सौ से अधिक आलेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। उनके ग्रंथों में प्रमुख रूप से शामिल हैं- शब्द शक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा, देवनागरी विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, अवंती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, मालवा का लोकनाट्‌य माच एवं अन्य विधाएँ, मालवी भाषा और साहित्य, मालवसुत पं. सूर्यनारायण व्यास,आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता, हरियाले आँचल का  हरकारा : हरीश निगम, मालव मनोहर आदि। प्रो.शर्मा को देश – विदेश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में थाईलैंड में विश्व हिन्दी सेवा सम्मान, संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, आलोचना भूषण सम्मान आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, अक्षरादित्य सम्मान, शब्द साहित्य सम्मान, राष्ट्रभाषा सेवा सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान आदि प्रमुख हैं।
      प्रो. शर्मा को विद्यासागर सम्मानोपाधि से अलंकृत किए जाने पर म.प्र. लेखक संघ के अध्यक्ष प्रो. हरीश प्रधान, विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जवाहरलाल कौल,  पूर्व कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, पूर्व कुलपति प्रो. टी.आर. थापक, पूर्व कुलपति प्रो. नागेश्वर राव,  कुलसचिव डॉ. बी.एल. बुनकर, विद्यार्थी कल्याण संकायाध्यक्ष डॉ राकेश ढंड , इतिहासविद्‌ डॉ. श्यामसुन्दर निगम, साहित्यकार श्री बालकवि बैरागी, डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, डॉ. शिव चौरसिया, डॉ. प्रमोद त्रिवेदी, प्रो प्रेमलता चुटैल, प्रो गीता नायक, डॉ. जगदीशचन्द्र शर्मा, प्रभुलाल चौधरी, अशोक वक्त, डॉ. अरुण वर्मा, डॉ. जफर मेहमूद, प्रो. बी.एल. आच्छा, डॉ. देवेन्द्र जोशी, डॉ. तेजसिंह गौड़, डॉ. सुरेन्द्र शक्तावत, श्री युगल बैरागी, श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव 'नवनीत', श्रीराम दवे, श्री राधेश्याम पाठक 'उत्तम', श्री रामसिंह यादव, श्री ललित शर्मा, डॉ. राजेश रावल सुशील, डॉ. अनिल जूनवाल, डॉ. अजय शर्मा, संदीप सृजन, संतोष सुपेकर, डॉ. प्रभाकर शर्मा, राजेन्द्र देवधरे 'दर्पण', राजेन्द्र नागर 'निरंतर', अक्षय अमेरिया, डॉ. मुकेश व्यास, श्री श्याम निर्मल आदि ने बधाई दी।
                                                                         
                                                               डॉ. अनिल जूनवाल
संयोजक, राजभाषा संघर्ष समिति, उज्जैन

                                                             मोबा ॰ 9827273668 







नई विधा में प्रकाशित युगल बैरागी की रपट

20170721

कुरंडा की अनन्य अनुभूतियों से जुड़े बिम्ब: ऑस्ट्रेलिया प्रवास की जादुई स्मृतियाँ - दो

ऑस्ट्रेलिया के पूर्वोत्तर तट पर क्वींसलैंड राज्य में कैर्न्स नगर के समीपस्थ कुरंडा एक पहाड़ी गांव है। ऑस्ट्रेलिया के प्रमुख पर्यटन स्थलों में एक कुरंडा अपने नैसर्गिक वैभव, आदिम सभ्यता से जुड़े लोगों की संस्कृति, कला रूपों, सुदर्शनीय रेलमार्ग और स्काई रेल की रोमांचक यात्रा के लिए जाना जाता है। ऑस्ट्रेलिया प्रवास के दौरान कुरंडा से जुड़ी सपनीली यादों के साथ कुछ छायाचित्र यहाँ पेश हैं। 
कुरंडा ऑस्ट्रेलिया में शुरुआती तौर पर बसने वाले लोगों के साथ उष्ण कटिबंधीय वर्षावन की पहाड़ियों पर विकसित होने लगा था। कैर्न्स से मीटर गेज ट्रेन से जाना और लौटने में स्काई रेल की रोमांचकारी सवारी इस यात्रा को अविस्मरणीय बना गए। इस इलाके की प्रमुख नदी बैरोन है। रेल यात्रा के दौरान सम्मोहक बैरोन फॉल्स को निहारने के लिए ट्रेन कुछ देर रुकती है।
कुरंडा में क्वाला और वन्यजीव पार्क 1996 में खोला गया है। यहाँ ऑस्ट्रेलिया की पहचान को निर्धारित करने वाले क्वाला, कंगारू, मगरमच्छ, वेलेबिज, डिंगो, वोम्बेट, कैसॉवरी, छिपकली, मेढक और सांप सहित कई ऑस्ट्रेलियाई मूल के अचरजकारी जीवों को निकट से महसूस करना अनन्य अनुभूति दे गया। 
कुरंडा में अनेक प्रकार का भोजन उपलब्ध है, जो इस क्षेत्र की विविधता को दर्शाता है। दुकानों, कला दीर्घाओं, कैफे और रेस्तरां की दिलचस्प सरणियाँ यहाँ मिलीं, जहाँ से कुछ स्मृति चिह्न भी संचित किए। ऑस्ट्रेलिया के आदि निवासियों, जिन्हें अबोरजिनल कहा जाता है, की कला और सांस्कृतिक विरासत के अवलोकन का यादगार मौका भी इस गाँव में मिला। आदि निवासियों के परिवार से जुड़ा एक युवा एक हाथ में बूमरैंग लिए और दूसरे हाथ में सुषिर वाद्य डिजरीडू (didgeridoo) या डिडजेरिडू बजाते हुए मिला। भारतीय संगीत परम्परा में वायु द्वारा बजाये जाने वाले वाद्य सुषिर वाद्य या वायुवाद्य या फूँक वाद्य कहे जाते हैं, जैसे- बाँसुरी, शंख, तुरही, भूंगल, शहनाई आदि। ऑस्ट्रेलियाई डिजरीडू (didgeridoo) काष्ठ निर्मित वाद्य यंत्र है। डिजरीडू (didgeridoo) ऑस्ट्रेलिया के आदिवासी समुदाय द्वारा विकसित एक वायुवाद्य है, जिसमें श्वास या वायु द्वारा ध्वनि उत्पन्न की जाती है। अनुमान लगाया जाता है कि इसका विकास उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में पिछले 1500 वर्षों में कभी हुआ था। वाद्य यंत्रों के होर्नबोस्तेल-साक्स वर्गीकरण में यह एक वायुवाद्य है। वैसे तो ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों ने प्रकृति के साथ तादात्म्य लिए तीन वाद्ययंत्र विकसित किए हैं - डिजरीडू (didgeridoo), बुलरोअरर और गम-लीफ। इनमें दुनियाभर में सबसे अच्छी तरह से जाना जाता है  डिजरीडू। यह एक सादी सी लकड़ी की ट्यूब जैसा वाद्य है, जो तुरही की तरह एक वादक के होंठ के साथ मुख मार्ग के नियंत्रणीय अनुनादों से ध्वनिगत लचीलापन हासिल करता है। आधुनिक डिजरीडू प्रायः 1 से 3 मीटर (3 से 10 फ़ुट) लम्बे होते हैं और बेलन या शंकु का आकार रखते हैं। इन पर प्राकृतिक उपादानों से अनुप्राणित बहुत सुंदर अलंकरण किए जाते हैं।
कुरंडा ग्राम की अमिट छाप को सँजोते हुए हम लोगों की कैर्न्स वापसी स्काई रेल के जरिए हुई। स्काई रेल उत्तर क्वींसलैंड के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों के माध्यम से 7.5 किमी की दूरी तय करने का एक अनोखा अवसर प्रदान करती है। इसके जरिये दुनिया का अपने ढंग का पहला, सुरक्षित और पर्यावरण के अनुकूल तरीके से प्राचीन उष्ण कटिबंधीय वर्षावन को देखने और अनुभव करने का मौका मिलता है।
स्काई रेल 31 अगस्त 1995 को आम जनता के लिए खोला गया था। केबल वे को मूल रूप से 47 गोंडोला के साथ स्थापित किया गया था, जो प्रति घंटा 300 लोगों की क्षमता से युक्त थी। मई 1997 में इसका उन्नयन पूरा हुआ और गोंडोला की कुल संख्या बढ़कर 114 हो गयी। अब यह प्रति घंटे 700 लोगों को क्षमता रखता है। दिसंबर 2013 में, स्काई रेल ने 11 डायमंड व्यू ग्लास फर्श गोंडोला की शुरुआत की, जिसमें 5 लोगों की सीट है और नीचे के रेन फोरेस्ट के अवलोकन का एक और अद्भुत परिप्रेक्ष्य सामने आया है। कुरंडा नेशनल पार्क और  बैरोन गोर्ज नेशनल पार्क विश्व विरासत में शामिल किए गए ऑस्ट्रेलियाई वर्षा वन के अंग हैं। इनके संरक्षण के लिए अपनाई गई रीतियों से दुनिया बहुत कुछ सीख सकती है।




20170712

गजानन माधव मुक्तिबोध: एक रूपक - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

गजानन माधव मुक्तिबोध: एक रूपक
आलेख प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof Shailendrakumar Sharma

गजानन माधव मुक्तिबोध के जन्मशती वर्ष पर आकाशवाणी के लिए तैयार किये गए विशेष रूपक का वीडियो रूपांतर यूट्यूब पर प्रस्तुत किया गया है। आकाशवाणी से प्रसारित इस रूपक का आलेख प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा का है।
साक्षात्कार: प्रो चंद्रकांत देवताले, प्रो प्रमोद त्रिवेदी, प्रो राजेन्द्र मिश्र, प्रो सरोज कुमार।
प्रस्तुति: सुधा शर्मा एवं जयंत पटेल।
वीडियो रूपान्तरण: प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा।
आभार: आकाशवाणी।
इस रूपक का वीडियो रूपांतर को यूट्यूब पर देखा जा सकता है: 



आधुनिक हिंदी कविता को कई स्तरों पर समृद्ध करते हुए नया मोड़ देने वाले रचनाकारों में गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। जन्मशताब्दी वर्ष पर मुक्तिबोध पर केंद्रित रूपक का प्रसारण आकाशवाणी, दिल्ली से  साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य भारती’ में हुआ था। इस रेडियो फ़ीचर का लेखन समालोचक एवं विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने किया है। रूपक में मुक्तिबोध के योगदान और रचनाओं के साथ उन पर केंद्रित वरिष्ठ साहित्यकारों के साक्षात्कार भी समाहित किए गए हैं। इनमें वरिष्ठ कवि प्रो चंद्रकांत देवताले, डॉ. प्रमोद त्रिवेदी (उज्जैन), प्रो राजेन्द्र मिश्र और सरोज कुमार (इंदौर) शामिल हैं।

मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर 1917 को मध्य प्रदेश के श्योपुर कस्बे में हुआ था। उन्होंने स्कूली शिक्षा उज्जैन में रहकर प्राप्त की। 1935 में उज्जैन के माधव कॉलेज में पढ़ते हुए साहित्य लेखन आरंभ हुआ। उनकी आरंभिक कविताएँ माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा संपादित ‘कर्मवीर’ सहित कई साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने बी. ए. की पढ़ाई इन्दौर के होल्कर कॉलेज से की थी। उनकी अधिकांश रचनाएँ 11 सितम्बर 1964 को निधन के बाद ही प्रकाशित हो सकीं। उनके कविता संग्रह हैं चांद का मुँह टेढ़ा है और भूरी भूरी खाक धूल, कहानी संग्रह हैं काठ का सपना, सतह से उठता आदमी तथा उपन्यास विपात्र भी चर्चित रहा है। उनकी आलोचना कृतियाँ में प्रमुख हैं- कामायनी: एक पुनर्विचार, नयी कविता का आत्मसंघर्ष, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी। उनकी सभी रचनाएं 1980 में छह खंडों में प्रकाशित मुक्तिबोध रचनावली में संकलित हैं। मुक्तिबोध का सही मूल्यांकन उनके निधन बाद ही संभव हो पाया, लेकिन उनकी कविताएँ और विचार निरन्तर प्रेरणा देते आ रहे हैं।

मुक्तिबोध का उज्जैन से गहरा तादात्म्य था। सेंट्रल कोतवाली में आवास और माधव कॉलेज में अध्ययनरत रहे तार सप्तक के इस कवि का जन्मशती वर्ष मनाया गया। उज्जयिनी जैसे पुरातन नगर की कई छबियाँ उनकी कविताओं में नई अर्थवत्ता के साथ उतरी हैं। तार सप्तक के वक्तव्य में उन्होंने मालवा और उज्जैन को कुछ इस तरह याद किया है:

तार सप्तक/ गजानन माधव मुक्तिबोध / वक्तव्य

मालवे के विस्तीर्ण मनोहर मैदानों में से घूमती हुई क्षिप्रा की रक्त-भव्य साँझें और विविध-रूप वृक्षों की छायाएँ मेरे किशोर कवि की आद्य सौन्दर्य-प्रेरणाएँ थीं। उज्जैन नगर के बाहर का यह विस्तीर्ण निसर्गलोक उस व्यक्ति के लिए, जिसकी मनोरचना में रंगीन आवेग ही प्राथमिक है, अत्यन्त आत्मीय था।

उस के बाद इन्दौर में प्रथमतः ही मुझे अनुभव हुआ कि यह सौन्दर्य ही मेरे काव्य का विषय हो सकता है। इसके पहले उज्जैन में स्व. रमाशंकर शुक्ल के स्कूल की कविताएँ—जो माखनलाल स्कूल की निकली हुई शाखा थी- मुझे प्रभावित करती रहीं, जिनकी विशेषता थी बात को सीधा न रखकर उसे केवल सूचित करना। तर्क यह था कि वह अधिक प्रबल होकर आती है। परिणाम यह था कि अभिव्यंजना उलझी हुई प्रतीत होती थी। काव्य का विषय भी मूलतः विरह-जन्य करुणा और जीवन-दर्शन ही था। मित्र कहते हैं कि उनका प्रभाव मुझ पर से अब तक नहीं गया है। इन्दौर में मित्रों के सहयोग और सहायता से मैं अपने आन्तरिक क्षेत्र में प्रविष्ट हुआ और पुरानी उलझन-भरी अभिव्यक्ति और अमूर्त करुणा छोड़ कर नवीन सौन्दर्य-क्षेत्र के प्रति जागरूक हुआ। यह मेरी प्रथम आत्मचेतना थी। उन दिनों भी एक मानसिक संघर्ष था। एक ओर हिन्दी का यह नवीन सौन्दर्य-काव्य था, तो दूसरी ओर मेरे बाल-मन पर मराठी साहित्य के अधिक मानवतामय उपन्यास-लोक का भी सुकुमार परन्तु तीव्र प्रभाव था। तॉल्स्तॉय के मानवीय समस्या-सम्बन्धी उपन्यास—या महादेवी वर्मा ? समय का प्रभाव कहिए या वय की माँग, या दोनों, मैंने हिन्दी के सौन्दर्य-लोक को ही अपना क्षेत्र चुना; और मन की दूसरी माँग वैसे ही पीछे रह गयी जैसे अपने आत्मीय राह में पीछे रह कर भी साथ चले चलते हैं।

मेरे बाल-मन की पहली भूख सौन्दर्य और दूसरी विश्व-मानव का सुख-दुःख—इन दोनों का संघर्ष मेरे साहित्यक जीवन की पहली उलझन थी। इस का स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान मुझे किसी से न मिला। परिणाम था कि इन अनेक आन्तरिक द्वंद्वों के कारण एक ही काव्य-विषय नहीं रह सका। जीवन के एक ही बाजू को ले कर मैं कोई सर्वाश्लेषी दर्शन की मीनार खड़ी न कर सका। साथ ही जिज्ञासा के विस्तार के कारण कथा की ओर मेरी प्रवृत्ति बढ़ गयी।इस का द्वन्द्व मन में पहले से ही था। कहानी लेखन आरम्भ करते ही मुझे अनुभव हुआ कि कथा-तत्त्व मेरे उतना ही समीप है जितना काव्य। परन्तु कहानियों में बहुत ही थोड़ा लिखता था, अब भी कम लिखता हूँ। परिणामतः काव्य को मैं उतना ही समीप रखने लगा जितना कि स्पन्दन; इसीलिए काव्य को व्यापक करने की, अपनी जीवन-सीमा से उस की सीमा को मिला देने की चाह दुनिर्वार होने लगी। और मेरे काव्य का प्रवाह बदला।

मुक्तिबोध पर एकाग्र विशेष रूपक यहाँ प्रस्तुत है: प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा


















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