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20201213

कालिदास मीमांसा : पुस्तक समीक्षा - प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा | Kalidas Mimansa : Book Review Prof. Shailendra Kumar Sharma

कालिदास मीमांसा : महाकवि के रचना विश्व पर दृष्टिपूर्ण मंथन

- प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा


संपूर्ण भारतीय साहित्य ही नहीं, विश्व साहित्य में महाकवि कालिदास अद्वितीय रचनाकार के रूप में सुस्थापित हैं। वे अनेक शताब्दियों से देश के असंख्य कवियों को अजस्र प्रेरणा दे रहे हैं। क्या व्यक्ति और परिवार जीवन, क्या समाज जीवन, क्या राष्ट्र जीवन और क्या विश्व जीवन -  महाकवि की दृष्टि से कुछ भी ओझल नहीं है। कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदास: ऐसे ही नहीं कहा गया और उनकी चर्चा के बाद  अनामिका को सार्थक होना ही था। सदियों से उनके साहित्य का मंथन विश्व के अनेक मनीषियों ने अपनी - अपनी दृष्टियों से किया है। इसी शृंखला में महाकवि के विराट रत्नराशिमय साहित्य सागर और काव्य सौंदर्य के अध्ययन - आकलन - विश्लेषण की दिशा में यशस्वी विद्वान पद्मश्री डॉ केशवराव मुसलगाँवकर का ग्रन्थ कालिदास मीमांसा महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बना है। पुस्तक का सुरुचिपूर्ण संपादन उनके सुपुत्र डॉ राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर ने किया है। लेखक ने इस बृहद् ग्रंथ के माध्यम से पूरी परम्परा में अनन्य महाकवि के गुणों का अन्वेषण और उसके साहित्य सागर में मग्न होकर बिखरे हुए रत्नों को ढूंढ निकालने का अथक परिश्रम किया है और इसमें वे सफल भी रहे हैं।


                  पुस्तक : कालिदास मीमांसा

लेखक - पद्मश्री डॉ केशवराव मुसलगाँवकर

संपादक – डॉ राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर


ग्रन्थ के संपादकीय में डॉ राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर ने कालिदास और कालिदासीय काव्य की मीमांसा की जरूरत की ओर सार्थक संकेत किया है -  जो अध्येता काव्य की सतह पर ही संतरण करता है तथा उसके अंतर में पैठने की योग्यता नहीं रखता वह कथमपि अपने उत्तरदायित्व का पूर्ण निर्वाह नहीं कर सकता। किसी भी कवि कर्म की दृढ़ परीक्षा किए बिना, , मार्मिक मीमांसा किए बिना, किसी काव्य के गुण दोष का पूर्णज्ञान हमें नहीं हो सकता। ….. मीमांसा की भी इसलिए आवश्यकता है कि सामान्य कवि तथा महाकवि के कर्म का अंतर स्पष्टतः ज्ञात हो सके और इसी कार्य के संपादन की योग्यता से व्यक्ति ही आलोचक का गौरवपूर्ण पद प्राप्त कर सकता है। ग्रंथकार पद्मश्री मुसलगांवकर आलोचक की इस कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरे हैं। 


महाकवि कालिदास की रचना शक्ति के वैशिष्ट्य को कई आलंकारिकों, कवियों और सुभाषितकारों ने विविध रूपों में प्रतिपादित किया है। इस ग्रन्थ के माध्यम से डॉ मुसलगांवकर ने उस महनीय परंपरा से स्वयं को जोड़ते हुए रस, ध्वनि, रीति, अलंकार आदि के महत्त्वपूर्ण उदाहरणों के साक्ष्य पर कालिदास की अनुपम साहित्यिक उपलब्धियों की पड़ताल की है। आचार्य दंडी ने मधुद्रव से लिप्त, महाकवि की निर्विषया वाणी और वैदर्भी रीति की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। ग्रंथकार भी उनके स्वर में स्वर मिलाते हुए कहता है, कालिदास उन महाकवियों में से हैं, जिनकी कोयल के शब्द के समान कर्णेन्द्रिय को सुख देने वाली, रस - अलंकार आदि से युक्त, चमत्कार पैदा करने वाली उक्तियों से अथवा कविता समूहों से विभूषित मुखों में सरस्वती अपनी वीणा बजाती सी सदैव शोभित होती है।


लेखक ने प्रारंभिक अनुच्छेद महाकवित्व कितना सुकर, कितना दुष्कर! के माध्यम से कविता रूपी तपश्चर्या पर खरे उतरे कालिदास के वैशिष्ट्य का हृदयग्राही निरूपण किया है। लेखक ने कालिदास को द्रष्टा और स्रष्टा के रूप में परखा है तो उनके क्रांतिदर्शत्व की भी पड़ताल की है। भारतीय काव्यशास्त्राचार्यों की दृष्टि में कवि के लिए दर्शन और वर्णन दोनों ही अत्यंत आवश्यक गुण हैं। उनका कथन है कि द्रष्टा होने पर भी कोई व्यक्ति तब तक कवि नहीं हो सकता, जब तक वह अपने प्रातिभचक्षु से अनुभूत दर्शन को कमनीय शब्दों में प्रकट नहीं करता। क्योंकि कवि - कर्म में दर्शन और वर्णन दोनों का ही समन्वय रहता है। लेखक ने कालिदास के काव्य से कतिपय उदाहरणों के साक्ष्य पर प्रतिपादित किया है कि अनुरूप अर्थ का अर्थ के अनुरूप शब्द प्रयोग करने की योग्यता महाकवि कालिदास में होने से ही वे आज अखिल विश्व के सहृदय पाठकों के कंठाभरण बने हुए हैं। उनके काव्यों में शब्द और अर्थ दोनों की अन्यूनानतिरिक्त परस्पर स्पर्धापूर्वक मनोहारिणी श्लाघनीय स्थिति देखने को मिलती है। निश्चित ही उस आस्वादमय - रस - भावरूप अर्थतत्व को प्रवाहित करने वाली कालिदास की वाणी उसके अलौकिक, प्रतिभासमान, प्रतिभा (अपूर्ववस्तु निर्माणक्षमा प्रज्ञा) के वैशिष्ट्य को प्रकट करती है। इसीलिए नानाविध कवि परंपराशाली इस संसार में कालिदास आदि दो - तीन अथवा पाँच – छह ही महाकवि गिने जाते हैं। आचार्य आनंदवर्धन के इस हृदयोद्गार का समर्थन लोचनकार आचार्य अभिनव गुप्त ने भी किया है। अभिव्यक्तेन स्फुरता प्रतिभाविशेषेन निमित्तेन  महाकवित्वगणनेति यावत् अर्थात् अभिव्यक्त या स्फुरित होते हुए प्रतिभा - विशेषरूप निमित्त से महाकवित्व की गणना (महाकवियों में गणना) होती है। 


लेखक की दृष्टि में कालिदास के महाकवि होने का एक कारण और है, उनका ऋषि तुल्य क्रांतदर्शित्व। सच्चा कवि क्रांतदर्शी होता है - कवयः क्रांतदर्शिनः। व्यक्तिविवेककार महिमभट्ट के साक्ष्य पर डॉ मुसलगांवकर संकेत करते हैं कि इने गिने भाग्यशालियों की परंपरा में कालिदास को ही पांक्तेय होने का गौरव आज तक प्राप्त है, जिनकी क्रांतिदर्शिता की जड़ें सहस्रों वर्षों की राष्ट्रीय - सांस्कृतिक परंपरा में गहराई तक गई हुई होती हैं और तद्जन्य होने वाली राष्ट्र की समग्रचेतना को अभिव्यक्ति देने की कला पर उनका विलक्षण अधिकार होता है। 


कालिदास के समय को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद रहा है। लेखक डॉ मुसलगांवकर ने उनका आविर्भाव काल चौथी शताब्दी के उत्तरार्ध या पांचवी शताब्दी के आरंभ को माना है। कालिदास के नाम और उनके जीवन से जुड़े विभिन्न गल्पों की सच्चाई पर भी लेखक ने पर्याप्त मंथन किया है। यहां लेखक का स्पष्ट आग्रह है कि कृती पाठक अन्वेषण करने जैसी बेकार बातों में उलझना नहीं चाहते और नहीं हम उन्हें उलझाना चाहते हैं और हमारे अभीष्ट कवि को भी यह रुचिकर नहीं है। कृतीपाठक को छककर कालिदास की कविता - कामिनी के सौंदर्य - रस का पान कराना चाहते हैं। फिर लेखक ने विक्रमोर्वशीय के पुरूरवा - विदूषक के संवाद के साक्ष्य पर निष्कर्ष निकाला है कि  कालिदास स्वयं कृती को ही धन्य मानते हैं। यहीं पर डॉ मुसलगांवकर ने तत्त्वान्वेषण की विडम्बना से मुक्त होने का आग्रह किया है, कवियों की डांट फटकार के बावजूद दुनिया से तत्त्वान्वेषण का कारोबार बंद नहीं हो गया है, वह आज भी निरंतर गतिशील है। निश्चय ही इससे कवि की अंतरात्मा को कष्ट होता होगा। इसलिए हम भी इस तत्त्वान्वेषण के झगड़े में न पड़कर इतना ही कहना चाहते हैं कि कवि के गुप्तकालीन काव्यों में तरलित होती हुई उसकी प्रतिभा को देखकर भी उसे न पहचानने का कोई बहाना न करें इसी से उसे संतोष होगा। 


ग्रंथ का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय कविता कामिनी के शृंगार पर केंद्रित है। लेखक ने यहाँ ऐसे तमाम विषयों का उल्लेख किया है, जिनका कवि ने अपनी कविता कामिनी के शृंगार के लिए उपयोग किया है। लेखक ने अनेक प्रसंगों के साक्ष्य पर उनकी बहुज्ञता प्रतिपादित की है। उदाहरण के लिए उदात्त आदि स्वरों के उल्लेख, अश्वमेध यज्ञ, अध्यात्मविद्या की ओर प्रवृत्ति से सिद्ध होता है कि कालिदास की व्युत्पत्ति वेद और वेदांग में बड़ी गहरी है। इसी तरह कालिदास स्मृतियों द्वारा प्रस्तुत राजधर्म, योगशास्त्र द्वारा प्रतिपादित ध्यान, आसन आदि, मीमांसाशास्त्रीय न्याय एवं धर्म के वास्तविक स्वरूप के निरूपण में भी निष्णात हैं। यहीं पर लेखक ने अनेकविध उदाहरणों से महाकवि कालिदास की सांख्यशास्त्र, न्याय एवं वैशेषिक दर्शन, गृह्यसूत्र, राजनीतिशास्त्र, कामशास्त्र, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, सामुद्रिक शास्त्र, संगीत, चित्रकला, इतिहास एवं भूगोल में गति का सविस्तार परिचय दिया है। 


लेखक ने महाकवि की कला सम्बन्धी मान्यताओं का भी सविस्तार निरूपण किया है। लेखक की दृष्टि में महाकवि कालिदास की कला विषयक मान्यताएं त्रिकालाबाधित और सार्वत्रिक मान्यता प्राप्त की हुई हैं। कला सृजन में विनिवेशन, अन्यथाकरण और अन्वयन की महिमा से कालिदास न केवल अवगत थे, वरन उनके लेखन से स्पष्ट संकेत मिलता है कि वे स्वयं बड़े कलानिष्णात थे। इसी प्रकार विभिन्न रचनाओं में भावाभिनिवेश, भावानुप्रवेश और यथालिखितानुभाव जैसे शब्दों का अर्थपूर्ण प्रयोग चित्रकला, नृत्य और अभिनय कला के क्षेत्र में कालिदास की विशेषज्ञता को सिद्ध करता है।


लेखक ने कालिदास की सातों रचनाओं ऋतुसंहार, कुमारसम्भव, मेघदूत, रघुवंश, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय और शाकुन्तल के वैशिष्ट्य की विशद पड़ताल इस ग्रंथ में की है। इन रचनाओं से जुड़ा हुआ कोई भी महत्वपूर्ण पक्ष लेखक की आंखों से ओझल नहीं है। चाहे ऋतुसंहार में अनुस्यूत महाकवि की मार्मिक निरीक्षण सृष्टि और उज्ज्वल नैसर्गिक प्रतिभा हो, चाहे मेघदूत की कलात्मक चारुता और मेघाच्छन्न प्रकृति के साथ प्राणिमात्र के अद्भुत रहस्यमय सम्बन्धों का अंकन या फिर कुमारसंभव के माध्यम से कालिदास द्वारा अपने जीवन दर्शन को विस्तृत कथा फलक पर अंकित करने का समर्थ प्रयत्न हो अथवा रघुवंश के माध्यम से राग और विराग, भोग और त्याग का संतुलित चित्र अंकित करने का प्रयास – ये सभी पहलू इस ग्रंथ में सहज ही उद्घाटित हो गए हैं। इसी प्रकार ग्रंथकार ने कालिदास की नाट्यत्रयी को उनकी नाट्य कला के क्रमशः विकासमान होने के क्रम में दिखाया है। वे लिखते हैं,  मालविकाग्निमित्रम् में कवि की नाट्यकला का अंकुर प्रस्फुटित होकर विक्रमोर्वशीय में वह पुष्पित होता हुआ अभिज्ञानशाकुंतल में पूर्ण रूप से संस्कृत नाट्यकला के मधुरतम फल के रूप में परिणत हुआ है। तीनों नाटकों की संविधानक रचना, पात्र – स्वभाव चित्रण, रस व्यंजना आदि की गम्भीर विवेचना इस ग्रंथ की उपलब्धि है। 


लेखक की दृष्टि में कालिदास का काव्य उत्तरकालीन सभी काव्यों से, सभी काव्य - क्षेत्रों में, अतिशय (बढ़ा – चढ़ा) है - किं बहुना अतिशेते सर्वमतो विशिष्ट:, इसलिए उनका काव्य विशिष्ट है। एक प्रकार से वे अपने काव्यप्रभाव से उन उत्तरवर्ती कवियों पर शासन करते हैं, इसलिए वे शिष्टकृत् भी हैं - शिष्टं शासनं तत् करोतीति शिष्टकृत्, काव्य कवि की आत्मा से प्रसूत होने से एक प्रकार से वह आत्मजन्मा होता है। (आत्मनो जन्म यस्य) उन दोनों में अभेद होता है। उसका काव्य कवि की चैतन्यमूर्ति होती है। दोनों एकाकार होते हैं। जब वह समाधिस्थ होता है, उसकी चित्तवृत्ति बाह्य विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। ऐसी दशा में कहां कवि कालिदास और कहां उसका प्रसूत काव्य। द्वैतभावना से मुक्त।


इस ग्रन्थ के माध्यम से लेखक ने स्थान स्थान पर कतिपय विद्वानों की सीमाबद्ध मान्यताओं का भी तर्कपूर्वक खंडन किया है। जैसे एक मान्यता रही है कि कालिदास कवि हैं, नाटककार नहीं। लेखक की दृष्टि में संस्कृत साहित्य का यह शलाका पुरुष मूर्धन्य नाटककार तथा कवि दोनों ही है। इसकी पुष्टि विक्रमोर्वशीय और शाकुंतल में रचित कथावस्तु विनियोग द्वारा हो जाती है। उन्होंने जीवन के गत्यात्मक चित्र का निर्वाह बड़ी कुशलता से किया है। इस दृष्टि से उत्तरकालीन विशाखदत्त नाटककार ही उनके समकक्ष प्रतीत होता है। भवभूति को जिन्होंने दांपत्य जीवन के आदर्श बीज को करुण रस से सींच कर उत्तररामचरित में पल्लवित किया है, नाटकीय दृष्टि से सफल नाटककार नहीं कहा जा सकता। महाकवि कालिदास की एक नाटककार के रूप में सफलता की वजह है कि वे अपने कवित्व के भार से नाटक की कथावस्तु को कहीं भी आक्रांत कर, गतिहीन नहीं करते हैं। विक्रमोर्वशीय के चतुर्थ अंक में अनुस्यूत पुरूरवा की भावात्मक उक्तियाँ भी प्रसंग के अनुरूप ही हैं, क्योंकि वहां पुरूरवा की विक्षिप्त दशा का संकेत देना कवि का अभीष्ट है।

परवर्ती साहित्य पर  महाकवि कालिदास के प्रभाव का भी पर्याप्त निरूपण इस ग्रंथ में किया गया है। भवभूति, हर्ष, राजशेखर, बिल्हण, माघ जैसे अनेक रचनाकारों ने कालिदास के दाय को किसी न किसी रूप में अंगीकार किया है। 


कालिदासीय साहित्य के सूक्ष्म पर्यालोचन के आधार पर लेखक ने संकेत दिया है कि महाकवि  ने अनेक शास्त्रों का अध्ययन तथा विविध विषयों का सूक्ष्म अवलोकन कर व्युत्पन्नता प्राप्त कर ली थी। धर्म, दर्शन, राजतंत्र, शिक्षा, नाट्यकला, चित्रकला आदि अनेक विषयों पर उन्होंने मननपूर्वक तद्विषयक अपने मत को निर्धारित करके अपने ग्रंथों में उनका यथास्थान उपयोग किया है। लेखक ने उनके काव्य में अंतर्निहित समन्वयवादी दृष्टिकोण को अनेक उदाहरणों के साक्ष्य पर स्पष्ट किया है। महाकवि कालिदास के लोकचरित्र, राजा और राजधर्म, यज्ञ कर्म, शिक्षा, व्रत - नियम, प्रसाधन, कहावतों, उक्ति वैचित्र्य आदि अनेक पक्षों की विशद चर्चा ग्रन्थकार ने की है। 


ग्रंथकार ने प्रारंभ में आचार्य श्रीनिवास रथ और डॉ विंध्येश्वरीप्रसाद मिश्र विनय द्वारा प्रणीत महाकवि कालिदास पर केंद्रित दो रचनाओं क्रमशः कालिदास कविता एवं नन्वहं कालिदासो ब्रवीमि को प्ररोचना के रूप में प्रस्तुत किया है, जो महाकवि की महिमा का सरस अनुकीर्तन करती हैं। 


ग्रंथ के अंत में परिशिष्ट में लेखक ने कालिदास के विश्वप्रसिद्ध सुभाषितों का संचयन किया है, जो काव्य रसिकों कालिदास साहित्य के जिज्ञासुओं और शोधकर्ताओं के लिए उपादेय सिद्ध होंगे। 



विगत लगभग छह दशकों से लेखनरत ग्रंथकार डॉ मुसलगांवकर ने अपने पिता और गुरु पं महामहोपाध्याय सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर से व्याकरण, न्याय, धर्मशास्त्र और मीमांसा तथा पं महामहोपाध्याय हरि रामचन्द्र शास्त्री दिवेकर से काव्यशास्त्र का गहन अध्ययन किया था। वे मीमांसकों की परंपरा के समर्थ  संवाहक हैं। उन्होंने तीस से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है, जिनमें प्रमुख हैं संस्कृत नाट्य मीमांसा - दो खण्डों में, रस मीमांसा, नाट्यशास्त्र पर्यालोचन, आधुनिक संस्कृत काव्य परम्परा, संस्कृत महाकाव्य की परंपरा, कालिदास मीमांसा आदि। इसके साथ ही उन्होंने अनेकानेक टीकाओं और विवेचनात्मक ग्रन्थों से जिज्ञासुजनों और शोधकर्ताओं को महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध करवाई है। इनमें प्रमुख हैं - शिशुपालवधमहाकाव्यम्, हर्षचरितम्, दशरूपकम्, नैषधीयचरितम्, विक्रमांकदेवचरितम्, रघुवंशम् आदि। उन्होंने प्रसिद्ध विद्वान डॉ वी वी मिराशी कृत ग्रंथ भवभूति का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया है। उनके द्वारा प्रणीत संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका का लाभ अनेक विद्यार्थी ले रहे हैं। उनका योगसूत्र पर सविवेचन भाष्य पूर्णता पर है, जिसके 2000 से अधिक पृष्ठ वे हाथ से लिख चुके हैं। इसका प्रकाशन चौखंभा प्रकाशन, वाराणसी से होगा।  उनके यशस्वी सुपुत्र डॉ. राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर स्वयं अनेक ग्रन्थों के प्रणयनकर्ता और मीमांसक हैं।


समग्रतः डॉ मुसलगांवकर का ग्रंथ कालिदास मीमांसा महाकवि के कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करने में तो सफल है ही, कई नवीन स्थापनाओं के लिए भी उल्लेखनीय बन पड़ा है। लेखक ने कालिदास को भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों के आलोक में देखा परखा है और उनकी रचनात्मक उपलब्धियों की बहुविध मीमांसा कर एक नई दिशा का भी सन्धान किया है। कालिदास साहित्य के जिज्ञासुओं से लेकर विशेषज्ञों तक सभी इस पुस्तक से लाभन्वित होंगे, ऐसी आशा व्यर्थ नहीं होगी। 


पुस्तक : कालिदास मीमांसा

लेखक : डॉ. केशवराव मुसलगाँवकर 

संपादक : डॉ. राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर

प्रकाशक : चौखंबा संस्कृत संस्थान, वाराणसी 

मूल्य :  रुपए 525

पृष्ठ :  324 

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प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा 
आचार्य एवं अध्यक्ष 
हिंदी अध्ययनशाला 
कुलानुशासक 
विक्रम विश्वविद्यालय 
उज्जैन मध्य प्रदेश

20201207

डॉ. अंबेडकर के चिंतन के विविध आयाम और उनकी प्रासंगिकता - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Various Aspects of Dr. Ambedkar's Thinking and their Relevance - Prof. Shailendra Kumar Sharma

भेदभावरहित मानवीय विश्व की रचना का संदेश है डॉअंबेडकर के चिंतन में 

डॉ अंबेडकर के चिंतन के विविध आयाम और उनकी प्रासंगिकता पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी 

   

देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा डॉ अंबेडकर के चिंतन के विविध आयाम और उनकी प्रासंगिकता पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश - दुनिया के अनेक विद्वान वक्ताओं और साहित्यकारों ने भाग लिया।  कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद् डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर शंभू पवार, झुंझुनू, श्री राकेश छोकर,  नई दिल्ली, डॉक्टर अलका पोतदार, मुंबई, डॉ आशीष नायक, रायपुर, महासचिव डॉ प्रभु चौधरी एवं उपस्थित वक्ताओं ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता संस्था के अध्यक्ष शिक्षाविद् श्री ब्रजकिशोर शर्मा, उज्जैन ने की।





वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार, पत्रकार एवं अनुवादक श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने कहा कि डॉक्टर अंबेडकर को भारत के साथ दुनिया के तमाम देशों में महान समाज सुधारक, विद्वान और न्यायविद् के रूप में जाना जाता है। उन्होंने पूरी दुनिया को समानता और बन्धुत्व की नई राह दिखाई।  







लेखक एवं संस्कृतिविद् प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि डॉ अंबेडकर के चिंतन के आयाम अत्यंत व्यापक हैं। वे श्रेष्ठ विचारक ही नहीं, महान कर्मयोद्धा भी थे। उनके विचारों में भेदभावरहित मानवीय विश्व की रचना का संदेश अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को राजनीतिक लोकतंत्र से अधिक महत्वपूर्ण माना है, जो स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व पर टिके हों। उन्होंने वर्ण, जाति, नस्ल, रंग जैसे समस्त प्रकार के विभेदकारी तत्त्वों से मुक्त होने की राह दिखाई। उन्होंने सामाजिक दरार और खूनी क्रांति से बचाव के लिए सामाजिक -  आर्थिक परिवर्तन को तेज करते हुए प्रजातांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने पर बल दिया। वे सामाजिक और आर्थिक ढांचे में एक व्यक्ति और एक मूल्य के सिद्धांत को मैदानी हकीकत में बदलने के लिए प्रेरणा देते हैं।




कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा ने कहा कि डॉ अंबेडकर की दृष्टि अत्यंत व्यापक थी। उन्होंने सामाजिक विषमता को समाप्त करने के लिए अविस्मरणीय प्रयास किए। सभ्यता के विकास में प्रेरणादायी व्यक्तित्वों के बीच डॉ आंबेडकर का नाम सदैव बना रहेगा। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं, जो आज प्रासंगिक हैं। 



विशिष्ट अतिथि डॉक्टर शंभू पंवार, झुंझुनू ने कहा कि डॉक्टर अंबेडकर जी समानता के लिए प्रतिबद्ध रहे। प्रत्येक व्यक्ति को विकास के समान अवसर उपलब्ध हो, इसके लिए उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने भारतीय समाज के व्याप्त कुरीतियों और वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध उद्घोष किया।



कार्यक्रम की संकल्पना और  डॉक्टर अंबेडकर के अवदान पर  महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि डॉ अम्बेडकर ने भारत के संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हुए शोषित - वंचित वर्ग को समानता का अधिकार दिलाया। वे नए भारत के राष्ट्र निर्माता थे। विश्व मानवतावादी डॉक्टर अंबेडकर ने ज्ञान के अद्वितीय प्रकाश से संपूर्ण मानवता को आलोकित किया। सामाजिक न्याय के सिद्धांत को प्रतिष्ठित करने में उनका अविस्मरणीय योगदान है।



संस्था के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि डॉ आंबेडकर भारतीय समाज के शुभचिंतक और स्वाभिमानी व्यक्तित्व के धनी थे। वे व्यक्ति पूजा के विरोधी थे। उन्होंने सामाजिक जकड़न को दूर करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए। 



विशिष्ट वक्ता डॉ अलका पोतदार, मुंबई ने कहा कि डॉक्टर अंबेडकर स्त्रियों की शिक्षा और समाज में समानता के पक्षधर थे। उन्होंने हिंदू कोड बिल लागू कर अविस्मरणीय योगदान दिया। भौतिक गुलामी से मानसिक गुलामी अधिक घातक है, इस बात की ओर उन्होंने संकेत दिया। विधिसम्मत संविधान से भारत की एकता और अखंडता परिपूर्ण हो रही है।


डॉ प्रतिभा येरेकार ने कहा कि डॉक्टर अंबेडकर का व्यक्तित्व बहुआयामी था वे एक साथ महान समाज सुधारक, पत्रकार, राजनीतिज्ञ, कानूनविद और लेखक थे।


प्रारंभ में सरस्वती वंदना साहित्यकार डॉ लता जोशी, मुंबई ने की। स्वागत गीत साहित्यकार डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर ने प्रस्तुत किया। स्वागत भाषण डॉ शैल चंद्रा, धमतरी ने दिया। संस्था का प्रतिवेदन  साहित्यकार डॉ गरिमा गर्ग, चंडीगढ़ ने प्रस्तुत किया। उन्होंने डॉक्टर अंबेडकर पर केंद्रित कविता सुनाई। अतिथि परिचय साहित्यकार डॉक्टर मनीषा सिंह, मुंबई ने दिया। 


अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में  संस्था की राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डॉक्टर सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, डॉ आशीष नायक, रायपुर, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉ राकेश छोकर, नई दिल्ली, डीपी शर्मा, डॉक्टर संगीता पाल, कच्छ, डॉ सुषमा कोंडे, डॉक्टर ममता झा, मुम्बई, डॉ शिवा लोहारिया, जयपुर, डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर आदि सहित अनेक प्रतिभागियों ने भाग लिया।


अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का संचालन डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर ने किया। आभार प्रदर्शन वरिष्ठ साहित्यकार श्री अनिल ओझा, इंदौर ने किया।


















डॉ. आंबेडकर महापरिनिर्वाण दिवस पर सविनय नमन 

20201202

गुरुनानक देव का ब्रह्माण्डीय चिंतन - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Cosmic Thinking of Guru Nanak Dev - Prof. Shailendra Kumar Sharma

व्यापक ब्रह्मांडीय चिंतन से जुड़ने का आह्वान किया गुरु नानक देव ने

डॉ पिलकेन्द्र अरोरा की पुस्तक युगस्रष्टा गुरु नानक देव का लोकार्पण एवं सारस्वत सम्मान  

गुरुनानक देव : विश्व चिंतन को प्रदेय पर केंद्रित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन हुआ विक्रम विश्वविद्यालय में


विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन की हिंदी अध्ययनशाला एवं गुरुनानक अध्ययन पीठ के संयुक्त तत्त्वावधान में वाग्देवी भवन में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन हुआ। यह संगोष्ठी गुरु नानक देव जी  : विश्व चिंतन को प्रदेय पर अभिकेंद्रित थी। समापन अवसर पर साहित्यकार डॉ पिलकेन्द्र अरोरा की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक युगस्रष्टा गुरु नानक देव का लोकार्पण एवं उनका सारस्वत सम्मान अतिथियों द्वारा किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ हरिसिंह गौड़ केंद्रीय विश्वविद्यालय, सागर के हिंदी एवं संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रोफेसर आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने की। प्रमुख वक्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। संगोष्ठी में विशिष्ट अतिथि प्रो प्रेमलता चुटैल, डॉ जगदीश चंद्र शर्मा, डॉ उमा वाजपेयी आदि ने पुस्तक पर चर्चा के साथ ही गुरु नानक जी के विविधायामी अवदान पर प्रकाश डाला। यह संगोष्ठी गुरु नानक जयंती के अवसर पर आयोजित की गई थी।






हाल ही में प्रकाशित पुस्तक युगस्रष्टा गुरु नानक देव के लेखक डॉ पिलकेन्द्र अरोरा ने पुस्तक के उद्देश्य और लेखन प्रक्रिया पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि गुरु नानक जी ने संपूर्ण दुनिया को सद्भावना का संदेश दिया। उन्होंने माना है कि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं। इसलिए धर्म, वर्ग, लिंग, रंग आदि के आधार पर भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है। उन्होंने संकेत दिया है कि परिवार में रहकर भी ईश्वर से जुड़ा जा सकता है। वे ईश्वर को निर्गुण, निराकार और अजन्मा मानते हैं। गुरु नानक जी ने उदासियों के माध्यम से कई देश और प्रदेशों की यात्राएं कीं और उनके माध्यम से लोक जागरण का अविस्मरणीय संदेश दिया। उन्होंने सादगीपूर्ण और अहंकार मुक्त जीवन जीने का मार्ग दिखाया, जो आज अधिक प्रासंगिक हो गया है।






प्रमुख वक्ता हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि गुरु नानक देव जी ने सदियों पहले व्यापक ब्रह्मांडीय चिंतन से जुड़ने का आह्वान किया था, जो आज अत्यंत प्रासंगिक हो गया है। उन्होंने पारिस्थितिकीय तंत्र के सार को अपनी वाणी में मुखरित किया है। वे अपनी वाणी में सृष्टि की विराट आरती का दृश्य उपस्थित करते हैं, जो अद्वितीय है। गुरु नानक ने समाज, राजनीति और अर्थतंत्र में मूल्यनिष्ठा को पुनः स्थापित करने का प्रयत्न किया। वे श्रम, भक्ति और सद्भाव की प्रतिष्ठा के लिए आजीवन जुटे रहे। डॉ अरोरा की पुस्तक विसंगतियों से भरे विश्व में नानक वाणी में निहित सुसंगति को स्थापित करने में सफल रही है। गुरु नानक देव ने व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण के लिए अविस्मरणीय योगदान दिया है, जिसका सार्थक अंकन यह पुस्तक करती है।




कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डॉ हरिसिंह गौड़ केंद्रीय विश्वविद्यालय, सागर के हिंदी एवं संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो आनंदप्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि डॉ अरोरा की पुस्तक गुरु नानक देव की सामाजिक एवं धार्मिक देन को अत्यंत सहजता से प्रस्तुत करने में सफल रही है। गुरु नानक देव मनुष्य के समस्त प्रकार के दुखों का निदान करते हैं। वे लोगों को मनुष्यता का बोध करवाते हैं। उन्होंने न केवल भक्ति आंदोलन को गतिशीलता दी, उसकी सीमाओं को भी दूर करने का प्रयास किया। गुरु नानक जी ने सिख पंथ के माध्यम से कथनी और करनी में समानता का संदेश दिया और भटके हुए समाज को सही मार्ग दिखाया।




विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर प्रेमलता चुटैल ने कहा कि गुरु नानक देव ने मनुष्य को संकीर्णता से ऊपर उठने की प्रेरणा दी। उनका साहित्य मन को काबू में करने की बात करता है। वे संकेत देते हैं कि जीवन में आध्यात्मिक चेतना का संचार हो, यह जरूरी है। डॉ अरोरा की पुस्तक नानक देव के संदेशों को प्रस्तुत करने का विशिष्ट प्रयास है। 





डॉक्टर जगदीश चंद्र शर्मा ने कहा कि डॉक्टर अरोरा की पुस्तक नानक वाणी और सिख पंथ के प्रमुख सिद्धांतों को प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक गुरु नानक देव संबंधी अब तक उपलब्ध साहित्य के मध्य जिज्ञासुजनों के लिए महत्त्वपूर्ण उपलब्धि सिद्ध होगी।




डॉ उमा वाजपेयी ने कहा कि हिंदी साहित्य में गुरु नानक देव का प्रदेय अद्वितीय है। डॉ अरोरा की पुस्तक गुरुवाणी की आध्यात्मिक चेतना को समाहित करने का महत्वपूर्ण प्रयास है। लेखक ने पुस्तक के माध्यम से सेवा धर्म और समानता के मार्ग में गुरु नानक द्वारा दिए गए संदेशों को सहजता से प्रस्तुत किया है।




कार्यक्रम के अतिथि प्रो त्रिपाठी, प्रो शर्मा एवं उपस्थित जनों ने डॉ पिलकेन्द्र अरोरा की पुस्तक युगद्रष्टा गुरु नानक देव का लोकार्पण किया और लेखक को शॉल, स्मृति चिह्न  एवं साहित्य अर्पित कर उनका सारस्वत सम्मान किया।


प्रारंभ में अतिथियों द्वारा वाग्देवी एवं गुरु नानक देव के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की गई।


संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में  डॉ बिंदु त्रिपाठी, अयोध्या, डॉ रचना जैन, प्रो चन्द्रशेखर शर्मा,  श्रीराम सौराष्ट्रीय, डॉ श्वेता पंड्या, सुदामा सखवार, संदीप यादव, तारा वाणिया, भावना शर्मा, प्रियंका नाग मोढ़, मणि मिमरोट, डॉली सिंह,  निरुपा उपाध्याय, रीता माहेश्वरी, सलमा शाइन मनिहार, संतोष चौहान आदि सहित विविध क्षेत्रों के प्रतिभागियों ने भाग लिया।


संचालन श्रीराम सौराष्ट्रीय ने किया। आभार प्रदर्शन डॉक्टर उमा वाजपेयी ने किया। 



















20201201

गुरु नानक देव जी : विश्व चिंतन को प्रदेय - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Contribution of Guru Nanak to World Thinking - Prof. Shailendra Kumar Sharma

परमसत्ता के अनुपम उपहार के रूप में दुनिया को देखने की दृष्टि देते हैं गुरु नानक 

विक्रम विश्वविद्यालय में हुई गुरु नानक देव जी : विश्व चिंतन को प्रदेय पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी 


विक्रम विश्वविद्यालय की हिंदी अध्ययनशाला एवं गुरु नानक अध्ययन केंद्र के संयुक्त तत्त्वावधान में गुरु नानक जयंती -  गुरु पर्व के अवसर पर हिंदी अध्ययनशाला, वाग्देवी भवन में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। यह संगोष्ठी गुरु नानक देव जी  : विश्व चिंतन को प्रदेय पर अभिकेंद्रित थी। आयोजन के प्रथम दिवस के मुख्य अतिथि डॉ हरिसिंह गौड़ केंद्रीय विश्वविद्यालय, सागर के हिंदी एवं संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रोफेसर आनंद प्रकाश त्रिपाठी थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता  विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने की। संगोष्ठी में विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर प्रेमलता चुटैल, डॉक्टर जगदीश चंद्र शर्मा, डॉक्टर उमा वाजपेयी,  डॉ शशि जोशी आदि ने गुरु नानक जी की वाणी और चिंतन के विविध आयामों पर अपने विचार व्यक्त किए।

 







मुख्य अतिथि डॉ हरिसिंह गौड़ केंद्रीय विश्वविद्यालय, सागर के हिंदी एवं संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि मध्यकालीन सन्तों ने जीवन में परिवर्तन की राह दिखाई है। गुरु नानक देव ने देश देशान्तरों की सोद्देश्य यात्रा की थी। उनमें संस्कृतियों को समझने की अभिलाषा थी, जिनसे उनका वैश्विक दृष्टिकोण विकसित हुआ। इतिहास, संस्कृति और धर्मों के अध्ययन से उनके जीवन में प्रकाश उत्पन्न हुआ। सामाजिक समरसता के लिए उन्होंने लंगर की अवधारणा दी। अहंकार के पूर्ण विसर्जन पर बल दिया। उन्होंने जाति प्रथा पर तीखा प्रहार किया। धार्मिक और सांस्कृतिक वैमस्य को समाप्त करने का महत्त्वपूर्ण प्रयत्न उन्होंने किया था।






हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि गुरु नानक देव जी की विश्व दृष्टि अत्यंत व्यापक थी। उनकी वाणी गहरे मूल्य बोध और आध्यात्मिक ज्ञान पर आधारित है। उन्होंने सभी पंथों के लोगों से भेद दृष्टि को भूलकर अपने मन को जीतने का आह्वान किया। वे नाम स्मरण को जीवन का पर्याय बनाने का संदेश देते हैं। उनके तीन विशिष्ट संदेशों को अंगीकार कर विश्व में व्यापक बदलाव लाया जा सकता है – किरत करो, नाम जपो और वंड छको। उनकी वाणी विपुल और व्यापक है, जिसमें सुदूर अतीत से चले आ रहे दर्शन, जातीय स्मृतियों के साथ ज्ञान, कर्म और भक्ति साधना का मर्म छुपा हुआ है। वे परमसत्ता के अनुपम उपहार के रूप में इस दुनिया को देखने की दृष्टि देते हैं, जिस पर सबका समान अधिकार है। 








डॉ प्रेमलता चुटैल ने कहा कि गुरु नानक देव ने नाद और सेवा की महिमा को प्रतिष्ठित किया। उन्होंने जीवन में पुरुषार्थ को महत्त्वपूर्ण माना। नानक देव जी ने सभी लोगों से अहंकार से मुक्ति का आह्वान किया। उन्होंने यायावर वृत्ति के माध्यम से लोगों को जीवन में उपयोगी सन्देश दिए। रूढ़ियों का खंडन करते हुए वे लोगों को नई दिशा देते हैं।





डॉ उमा वाजपेयी ने कहा कि गुरु नानक देव ने ईश्वर के एकत्व पर बल दिया। वे परिश्रम से आजीविका चलाने पर बल देते हैं। उन्होंने सन्त और सूफी काव्य के तत्त्वों का समन्वय स्थापित किया। 


डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने कहा कि नानक जी ने निवृत्ति के स्थान पर प्रवृत्ति पर बल दिया। बाह्याडंबर को वे ईश्वर प्राप्ति में बाधक मानते हैं। उन्होंने जाति व्यवस्था का तीखा विरोध किया। इसी तरह स्त्री के सशक्तीकरण की दिशा में उन्होंने महत्त्वपूर्ण संकेत दिए हैं। धर्म को वे विकासमान प्रक्रिया के रूप में दिखाते हैं। उन्होंने सेवा धर्म को महत्त्व दिया और धार्मिक समन्वय का मार्ग दिखाया। 






डॉ शशि जोशी ने कहा कि गुरु नानक देव ने सब में परिव्याप्त एक ही चिति शक्ति की बात की, जो हमारा मूल तत्त्व है। उसे पहचानने की बात नानक देव करते हैं। उन्होंने शब्द को ब्रह्म माना। जप और ध्यान तत्त्व की प्रतिष्ठा उन्होंने की। 




इस अवसर पर विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा एवं उपस्थित जनों ने मुख्य अतिथि डॉक्टर आनन्द प्रकाश त्रिपाठी को शॉल एवं साहित्य अर्पित कर उनका  सम्मान किया। 






संगोष्ठी में डॉ बिंदु त्रिपाठी, अयोध्या, डॉ रचना जैन, सुदामा सखवार, प्रियंका नाग मोड़, प्रा चन्द्रशेखर शर्मा, मणि मिमरोट, डॉली सिंह, संदीप यादव,  निरुपा उपाध्याय, भावना शर्मा, रीता माहेश्वरी, सलमा शाइन, संतोष चौहान आदि सहित विविध क्षेत्रों के प्रतिभागियों ने भाग लिया।


संचालन डॉ श्वेता पंड्या एवं श्रीराम सौराष्ट्रीय ने किया। आभार प्रदर्शन डॉक्टर शशि जोशी ने किया। 
















 





































गुरुनानक देव जी के प्रकाश पर्व पर स्वस्तिकामनाएँ 

20201130

गुरु नानक : सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Guru Nanak : Social - Cultural Context - Prof. Shailendra Kumar Sharma

अखिल विश्व के प्रति उत्कट अनुराग निहित है गुरु नानक  की वाणी में  – प्रो शर्मा 

गुरु नानक देव जी : सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी 

   

देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा गुरु नानक देव जी : सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश - दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान वक्ताओं और साहित्यकारों ने भाग लिया।  कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि सरदार जसवंत सिंह अमन, लुधियाना, प्रो हरपालसिंह पन्नू, बठिंडा सरदार डॉ बलविंदरपाल सिंह, लुधियाना, पंजाब, डॉ प्रवीण बाला, पटियाला, पंजाब, डॉ शिवा लोहारिया जयपुर, डॉ राकेश छोकर, नई दिल्ली, साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, डॉक्टर गरिमा गर्ग, चंडीगढ़, महासचिव डॉ प्रभु चौधरी एवं उपस्थित वक्ताओं ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता शिक्षाविद् डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने की।







प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने कहा कि गुरु नानक जी ने मानवीय जीवन से जुड़े अनेक व्यावहारिक सन्देश दिए हैं। उन्होंने गुरु नानक देव जी द्वारा दिए गए दस प्रमुख संदेशों का नॉर्वेजियन भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया।






मुख्य वक्ता प्रसिद्ध लेखक एवं संस्कृतिविद् प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि विश्व संस्कृति को गुरु नानक देव जी की देन अद्वितीय है। उनका सामाजिक और सांस्कृतिक चिंतन गहरी आध्यात्मिक दृष्टि पर टिका है। उनकी वाणी के केंद्र में  परमात्मा की व्यापकता और  अखिल विश्व के प्रति उत्कट अनुराग अंतर्निहित है। इस संसार में सत्य एक ही है, उसका विभिन्न रूप और विधियों के माध्यम से अलग-अलग दर्शन और अलग-अलग वर्णन सदियों से किया जा रहा है। गुरु नानक जी उन सब के मध्य समन्वय का मार्ग सुझाते हैं। वे सभी पंथियों का आह्वान करते हैं कि एक बार मन को जीत लें तो सारा संसार जीता जा सकता है। उन्होंने न केवल व्यापक लोक समुदाय को प्रभावित किया, वरन उसे नए ढंग से जीने और दुनिया को देखने का नजरिया दिया। उनका मुख्य सन्देश है कि परमात्मा एक है, उसी ने हम सबको बनाया है। सभी मत, पंथ और संप्रदायों के अनुयायी एक ही परमात्मा की संतानें हैं। गुरु नानक जी परमात्म तत्त्व के साक्षात्कार के लिए भटकते हुए लोगों को सही राह दिखाते हैं। उन्होंने सभी पंथों के लोगों से बाह्याडंबरों को त्याग कर मूल्यों पर दृढ़ रहने की प्रेरणा दी। उनका मार्ग पलायन और निष्कर्म से परे गहरे दायित्वबोध का मार्ग है। संन्यास लेने भर से मुक्ति नहीं मिलती, वह तो स्वभाव की प्राप्ति से सम्भव है। स्वयं को पहचाने बगैर भ्रम की काई नहीं मिटेगी।




विशिष्ट अतिथि सरदार डॉ बलविंदरपाल सिंह, लुधियाना, पंजाब ने गुरु नानक देव की वाणी में निहित आर्थिक दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आज दुनिया भर में लंगर चल रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि गुरु नानक जी ने बीस रुपये से जो पहली बार लंगर करवाया था, उसकी एफ डी इस तरह हुई थी कि आज भी वह लंगर जारी है। गुरु नानक जी की मान्यता है कि समस्त प्रकार के भौतिक संसाधन और बौद्धिक क्षमता ईश्वर द्वारा दिया गया उपहार है। दुनिया में प्राप्त सभी पदार्थ सभी के लिए हैं। गुरु नानक जी मानते हैं कि जरूरतमंद लोगों को केवल दान देने से लाभ नहीं होगा, वरन उन्हें कौशल सिखाया जाए, जिससे वे स्वयं धन उपार्जन कर सकें। वास्तविक रत्न और जवाहर बुद्धि में है, गुरु नानक जी ने इस बात पर बल दिया है। नानकदेव जी ने करतारपुर में स्वयं अपने हाथों से खेती की थी। कितनी भी तरक्की हो जाए, किंतु हम ईश्वर को न भूलें, यह गुरु नानक जी का संदेश है। गुरु नानक जी  निरपेक्ष गरीबी रखने वालों के साथ खड़े होने का आह्वान करते हैं। उन्होंने अनेक नए शहर बसाए, जो आर्थिक प्रगति में सहायक सिद्ध हुए।




लुधियाना, पंजाब के सरदार डॉ जसवंत सिंह अमन ने गुरु नानक देव जी के राजनीतिक विचारों पर व्याख्यान देते हुए कहा कि गुरु नानक जी के दौर में धर्म का स्वरूप विकृत हो गया था। नैतिकता के क्षरण के दौर में उन्होंने नई दिशा दिखाई। शासक और प्रशासक, प्रजा विरोधी रवैया अपनाए हुए थे। गुरु नानक जी परमेश्वर को सर्वोच्च शासक मानते हैं। उनके बिना संसार में कुछ भी नहीं है। वे शासकों में परमेश्वर के गुण चाहते हैं। वे प्रजा में भी ज्ञानयुक्त होने की अपेक्षा करते हैं। भ्रष्ट शासन व्यवस्था के लिए वे प्रजा को भी जिम्मेदार मानते हैं। गुरु नानक जी राजनीति को धर्म के अधीन रखते हैं, तभी अत्याचारों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।



अध्यक्षीय उद्बोधन में शिक्षाविद् डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि गुरु नानक जी के विचार अनेक संदर्भों में आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने सभी पंथों और धर्मों के लिए महत्वपूर्ण उपदेश दिए हैं। वे योगी, समाज सुधारक, उपदेशक और  देशभक्त थे। उनकी दृष्टि में मानव मात्र की सेवा सबसे बड़ी ईश्वर भक्ति है। संसार की प्रमुख समस्याओं के निराकरण के लिए नानक वाणी में कई महत्वपूर्ण संदेश मिलते हैं।





डॉ प्रवीण बाला, लुधियाना में विचार व्यक्त करते हुए कहा कि गुरु नानक जी ने संपूर्ण समाज को बाह्य आडंबर और भेदभाव से मुक्त किया। उन्होंने बाल्यकाल से ही अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया था। उनके जीवन से जुड़ी अनेक चमत्कारिक घटनाएं आज भी याद की जाती हैं। उनके संदेश तीन आधारों  पर टिके हैं कीरत करो, नाम जपो और लंगर छको।





समाजसेवी  डॉ. शिवा लोहारिया, जयपुर ने कहा कि समाज की आत्मनिर्भरता और आध्यात्मिक उन्नति के लिए गुरु नानक के संदेश अत्यंत प्रासंगिक हैं। उन्होंने तत्कालीन धर्म के उपदेशकों की सीमाएं बताईं और लोगों को सद्धर्म के मार्ग पर चलने का संदेश दिया।



कार्यक्रम की संकल्पना और  संस्था का प्रतिवेदन  महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत किया। 





इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली एवं  साहित्यकार डॉ हरेराम वाजपेयी ने भी विचार व्यक्त किए। श्री वाजपेयी ने इंदौर क्षेत्र में स्थित विभिन्न गुरुद्वारों का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि गुरुद्वारों के माध्यम से अपूर्व शांति प्राप्त होती है।



प्रारंभ में संगीतमय गुरुवाणी अलका वर्मा  ने प्रस्तुत की। स्वागत भाषण साहित्यकार डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर ने दिया। अतिथि परिचय वरिष्ठ साहित्यकार डॉ राजेंद्र साहिल, पटियाला ने दिया। 




अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में  संस्था की राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डॉक्टर सुवर्णा यादव, मुंबई, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ आशीष नायक, रायपुर, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉ राकेश छोकर, नई दिल्ली, डॉ मधुकर देशमुख, नागपुर, डॉ रुपिंदर शर्मा, पटियाला, डॉ  रिधिमा जोशी, डॉ राजेंद्र कुमार सेन, भटिंडा, डॉ प्रवीण बाला, पटियाला, डॉ शिवा लोहारिया, जयपुर, डॉक्टर राजेंद्र साहिल, लुधियाना, डॉ राधा दुबे, जबलपुर, डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉ श्वेता पंड्या, उज्जैन, श्रीराम सौराष्ट्रीय आदि सहित अनेक प्रतिभागियों ने भाग लिया।




अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का संचालन डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद एवं डॉ राजेंद्र साहिल, लुधियाना ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ राजेंद्र कुमार सेन, भटिंडा ने किया।



























गुरुनानक जयंती पर स्वस्तिकामनाएँ




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