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20210118

प्रेमचंद और उनका गोदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand and His Godan - Prof. Shailendra Kumar Sharma

प्रेमचंद और उनका गोदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand and His Godan - Prof. Shailendra Kumar Sharma    

प्रेमचंद : परिचय

प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय, प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के समीप लमही ग्राम में हुआ था। उनके पिता अजायब राय पोस्ट ऑफ़िस में क्लर्क थे। वे अजायब राय व आनन्दी देवी की चौथी संतान थे। पहली दो लड़कियाँ बचपन में ही चल बसी थीं। तीसरी लड़की के बाद वे चौथे स्थान पर थे। माता पिता ने उनका नाम धनपत राय रखा। सात साल की उम्र से उन्होंने एक मदरसे से अपनी पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत की जहाँ उन्होंने एक मौलवी से उर्दू और फ़ारसी सीखी। जब वे केवल आठ साल के थे तभी लम्बी बीमारी के बाद आनन्दी देवी का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली परंतु प्रेमचंद को नई माँ से कम ही प्यार मिला। धनपत को अकेलापन सताने लगा। किताबों में जाकर उन्हें सुकून मिला। उन्होंने कम उम्र में ही उर्दू, फ़ारसी और अँग्रेज़ी साहित्य की अनेकों किताबें पढ़ डालीं। कुछ समय बाद उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज में दाख़िला ले लिया।


1895 में पंद्रह वर्ष की आयु में उनका विवाह कर दिया गया। तब वे नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। लड़की एक सम्पन्न जमीदार परिवार से थी और आयु में उनसे बड़ी थी। उनका यह विवाह सफ़ल नहीं रहा। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन करते हुए 1906 में बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया। उनकी तीन संतानें हुईं–श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव।


1897 में अजायब राय भी चल बसे। प्रेमचंद ने जैसे-तैसे दूसरे दर्जे से मैट्रिक की परीक्षा पास की। तंगहाली और गणित में कमज़ोर होने की वजह से पढ़ाई बीच में ही छूट गई। बाद में उन्होंने प्राइवेट से इंटर और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।


वाराणसी के एक वकील के बेटे को 5 रु. महीना पर ट्यूशन पढ़ाकर ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ी। कुछ समय बाद 18 रु. महीना की स्कूल टीचर की नौकरी मिल गई। सन् 1900 में सरकारी टीचर की नौकरी मिली और रहने को एक अच्छा मकान भी मिल गया।


धनपत राय ने सबसे पहले उर्दू में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखना शुरू किया। बाद में उन्होंने हिंदी में प्रेमचंद के नाम से लिखा। प्रेमचंद ने 14 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय व संस्मरण आदि लिखे। उनकी कहानियों का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है। प्रेमचंद ने मुंबई में रहकर फ़िल्म ‘मज़दूर’ की पटकथा भी लिखी।


प्रेमचंद काफ़ी समय से पेट के अल्सर से बीमार थे, जिसके कारण उनका स्वास्थ्य दिन-पर-दिन गिरता जा रहा था। इसी के चलते 8 अक्तूबर, 1936 को क़लम के इस सिपाही ने सबसे विदा ले ली। 


गोदान - मुंशी प्रेमचंद

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प्रेमचंद का रचना संसार :


प्रेमचंद भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे मशहूर लेखकों में से एक हैं, और बीसवीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण हिन्दुस्तानी लेखकों में से एक के रूप में जाना जाता है। उनकी रचनाओं में चौदह उपन्यास, लगभग 300 कहानियाँ, कई निबंध और अनेक विदेशी साहित्यिक कृतियों का हिंदी में अनुवाद शामिल है। उनके उपन्यासों में गोदान, गबन, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प और निर्मला बहुत प्रसिद्ध हैँ। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया, जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया।


उन्होंने 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की। ‘गोदान’, ‘गबन’ आदि उनके उपन्यासों और ‘कफ़न’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ आदि कहानियों पर फ़िल्में भी बनीं।


उन्होंने अपनी सम्पूर्ण कहानियों को 'मानसरोवर' में संजोकर प्रस्तुत किया है। इनमें से अनेक कहानियाँ देश-भर के पाठ्यक्रमों में समाविष्ट हुई हैं, कई पर नाटक व फ़िल्में बनी हैं जब कि कई का भारतीय व विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है।


विषय, मानवीय भावना और समय के अनंत विस्तार तक जाती उनकी रचनाएँ इतिहास की सीमाओं को तोड़ती हैं, और कालजयी कृतियों में गिनी जाती हैं। उनका रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। परतंत्र भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक समस्याओं के बीच राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण यह उपन्यास लेखक के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को बहुत ऊँचा उठाता है।


देश की नवीन आवश्यकताओं, आशाओं की पूर्ति के लिए संकीर्णता और वासनाओं से ऊपर उठकर निःस्वार्थ भाव से देश सेवा की आवश्यकता उन दिनों सिद्दत से महसूस की जा रही थी। रंगभूमि की पूरी कथा इन्हीं भावनाओं और विचारों में विचरती है। कथानायक सूरदास का पूरा जीवनक्रम, यहाँ तक कि उसकी मृत्यु भी, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की छवि लगती है। सूरदास की मृत्यु भी समाज को एक नई संगठन-शक्ति दे गई। विविध स्वभाव, वर्ग, जाति, पेशा एवं आय वित्त के लोग अपने-अपने जीवन की क्रीड़ा इस रंगभूमि में किये जा रहे हैं। और लेखक की सहानुभूति सूरदास के पक्ष में बनती जा रही है। पूरी कथा गाँधी दर्शन, निष्काम कर्म और सत्य के अवलंबन को रेखांकित करती है। यह कृति कई अर्थों में भारतीय साहित्य की धरोहर है। 


अपने समय और समाज का ऐतिहासिक संदर्भ तो जैसे प्रेमचंद की कहानियों को समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है। उनकी कहानियों में अनेक मनोवैज्ञानिक बारीक़ियाँ भी देखने को मिलती हैं। विषय को विस्तार देना व पात्रों के बीच में संवाद उनकी पकड़ को दर्शाते हैं। ये कहानियाँ न केवल पाठकों का मनोरंजन करती हैं बल्कि उत्कृष्ट साहित्य समझने की दृष्टि भी प्रदान करती हैं।


ईदगाह, नमक का दारोगा, पूस की रात, कफ़न, शतरंज के खिलाड़ी, पंच-परमेश्वर, आदि अनेक ऐसी कहानियाँ हैं जिन्हें पाठक कभी नहीं भूल पाएँगे। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को निश्चित परिप्रेक्ष्य और कलात्मक आधार दिया। उनकी कहानियां परिवेश बुनती हैं। पात्र चुनती हैं। उसके संवाद बिलकुल उसी भाव-भूमि से लिए जाते हैं जिस भाव-भूमि में घटना घट रही है। इसलिए पाठक कहानी के साथ अनुस्यूत हो जाता है। प्रेमचंद यथार्थवादी कहानीकार हैं, लेकिन वे घटना को ज्यों का त्यों लिखने को कहानी नहीं मानते। यही वजह है कि उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का गंगा-जमुनी संगम है। कथाकार के रूप में प्रेमचंद अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गये थे। उन्होंने मुख्यतः ग्रामीण एवं नागरिक सामाजिक जीवन को कहानियों का विषय बनाया। उनकी कथायात्रा में श्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट हैं, यह विकास वस्तु विचार, अनुभव तथा शिल्प सभी स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। उनका मानवतावाद अमूर्त भावात्मक नहीं, अपितु सुसंगत यथार्थवाद है।


मुंशी प्रेमचंद और उनका गोदान : 


कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद (1880 – 1936 ई.) युग प्रवर्तक रचनाकार के रूप में समादृत हैं।प्रेमचंद का गोदान सर्वाधिक चर्चित एवं पठनीय उपन्यास है। हिंदी उपन्यासकारों में प्रेमचन्द को अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जहां एक ओर समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं विषमताओं पर करारा प्रहार किया है, वहीं दूसरी ओर भारतीय जन-जीवन की अस्मिता की खोज भी की है। निःसंदेह, प्रेमचन्द एक ऐसे आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी साहित्यकार हैं, जिनकी प्रत्येक रचना भारतीय जन-जीवन का आईना है तथा हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। 


प्रेमचंद ने जो कुछ भी लिखा है, वह आम आदमी की व्यथा कथा है, चाहे वह ग्रामीण हो या शहरी। गांवों की अव्यवस्था, किसान की तड़प, ग्रामीण समाज की विसंगतियां, अंधविश्वास, उत्पीड़न और पीड़ा की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करता है - गोदान। उनकी चिर-परिचित शैली का जीता-जागता उदाहरण है गोदान, जो जमीन से जुड़ी हकीकतों को बेनकाब करता है।


प्रेमचंद के बिना भारतीय भाषाओं के कथा - साहित्य की वह छलांग संभव नहीं थी, जिस पर हम आज अभिमान करते हैं।मुंशी प्रेमचंद एक ऐसा नाम, जिसे हर किसी ने सुना और पढ़ा है। लेखन के विविध विधाओं के बीच वे मूलत: युग प्रवर्तक कथाकार थे। अपने अभावों और संघर्षों से भरे जीवन की कठिनाइयों के चलते उन्होंने जनजीवन से तादात्म्य स्थापित कर साहित्य की पूंजी कमाई। यह उनकी निष्ठा, प्रतिबद्धता और साधना की मिसाल है। देश के लिए उनके देखे सपने, आशाएँ और आकांक्षाएँ अभी खत्म नहीं हुई है। इसलिए प्रेमचंद का प्रासंगिक होना स्वाभाविक है। वे अपनी सर्जना और विचारों के साथ आज के संघर्षों और चुनौतियों के मार्गदर्शक हैं। 


प्रेमचंद को पहला हिंदी लेखक माना जाता है जिनका लेखन प्रमुखता यथार्थवाद पर आधारित था। उनके उपन्यास गरीबों और शहरी मध्यम वर्ग की समस्याओं का वर्णन करते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों के बारे में जनता में जागरूकता लाने के लिए साहित्य का उपयोग किया और भ्रष्टाचार, बाल विधवा, वेश्यावृत्ति, सामंती व्यवस्था, गरीबी, उपनिवेशवाद के लिए और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित विषयों पर लिखा। उन्होंने 1900 के दशक के अंत में कानपुर में राजनीतिक मामलों में रुचि लेना शुरू किया था, और यह उनके शुरुआती काम में दिखाई देता है, जिनमें देशभक्ति का रंग था। शुरू में उनके राजनीतिक विचार मध्यम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले से प्रभावित थे, पर बाद में, उनका झुकाव और अधिक कट्टरपंथी बाल गंगाधर तिलक की ओर हो गया। उन्होंने सख्त सरकारी सेंसरशिप के कारण, उन्होंने अपनी कुछ कहानियों में विशेषकर ब्रिटिश सरकार का उल्लेख नहीं किया, पर लेकिन मध्यकालीन युग और विदेशी इतिहास के बीच अपने विरोध को बड़ी कुशलता से व्यक्त किया।


1920 में, वे महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन और सामाजिक सुधार के लिए संघर्ष से प्रभावित थे। प्रेमचंद का ध्यान किसानों और मजदूर वर्ग के आर्थिक उदारीकरण पर केंद्रित था, और वे तेजी से औद्योगिकीकरण के विरोधी थे, जो उनके अनुसार किसानों के हितों के नुक्सान और श्रमिकों के आगे उत्पीड़न का कारण बन सकता था।


प्रेमचंद का कथा साहित्य सही अर्थों में आधुनिक युग का क्लासिक है। वे सहज भारतीय मनुष्य के साथ गतिशील रचनाकार हैं। मानवीय चिंताओं को लेकर वे आजीवन क्रियाशील बने रहे। उनकी दृष्टि समूची मानवता पर टिकी है, किंतु स्वराज से लेकर सुराज तक का प्रादर्श और उसकी जमीनी हकीकत उनकी आंखों से ओझल नहीं रही। यही वजह है कि वे जहां सार्वकालिक और शाश्वत मानवता और उसकी प्रतिष्ठा के लिए सार्वकालिक और शाश्वत साहित्य की बात करते हैं, वही अपने राष्ट्र एवं समाज से जुड़ी जटिल समस्याओं से किंचित भी विमुख नहीं हैं। वे सही अर्थों में सामान्य जनता की समस्याओं के प्रामाणिक चित्रण करने वाले पहले उपन्यासकार हैं और नए ढंग के प्रथम कथा शिल्पी भी।


प्रेमचंद ठोस भारतीय जमीन पर खड़े कथाकार हैं। उन्हें न तो आयातित विचारों के पूर्वाग्रही साँचे में जकड़ा जा सका और न किसिम - किसिम की कहानियों के आंदोलन के दौर में अप्रासंगिक ही ठहराया जा सका।  भारतीय परिवेश में वंचित - शोषित वर्ग, किसान और स्त्री जीवन से जुड़ी विसंगतियों को लेकर उन्होंने निरन्तर लिखा। ऐसे विषयों पर गहरी समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। किसान जीवन की दृष्टि से अगर प्रेमचन्द के कथा साहित्य को देखा जाए तो कई अर्थों में प्रेमचन्द अपने समय से आगे दिखाई देते हैं। किसान और शोषित वर्ग के जीवन के यथार्थ चित्रण में वे हिन्दी साहित्य में अद्वितीय दिखाई देते हैं। हाल के दशकों में उभरे कई विमर्शों के मूल सूत्र प्रेमचंद के यहां मौजूद हैं। उनके अधिकांश उपन्यासों में भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और विसंगतियों का तीखा प्रतिकार दिखाई देता है। उनके प्रमुख उपन्यासों में गोदान, सेवासदन, रंगभूमि या प्रेमाश्रम के चरित्र और प्रसंग आज भी हमारे आसपास देखे जा सकते हैं। वैसी ही ऋणग्रस्तता, अविराम शोषण, रूढ़ियाँ और वर्गीय अंतराल आज भी भारतीय समाज की सीमा बने हुए हैं। ऐसे में प्रेमचंद का कथा साहित्य व्यापक बदलाव के लिए तैयार करता है।


गोदान किसान जीवन का मर्मस्पर्शी, करुण और त्रासद दस्तावेज है। यह प्रेमचन्द का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। कुछ लोग इसे उनकी सर्वोत्तम कृति भी मानते हैं। इसका प्रकाशन 1936 ई में हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई द्वारा किया गया था। इसमें भारतीय ग्राम समाज एवं परिवेश का सजीव चित्रण है। गोदान ग्राम्य जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य है। इसमें भारतीय जीवन मूल्यों के साथ गांधीवाद और मार्क्सवाद (साम्यवाद) का व्यापक परिप्रेक्ष्य में चित्रण हुआ है। इस उपन्यास में भारत के किसानों की स्थिति का जीवन्त चित्रण है। साथ ही भारतीय किसान के लिए उनके पशु के महत्त्व को जीवन्त किया गया है। गरीब किसान जो महाजनों के कर्ज और लगान में दबकर जीने को मजबूर हैं, परन्तु वह हिम्मत नही हारता है। होरी की बड़ी तमन्ना थी कि द्वार पर एक दुधारू गाय बंधी हो, जिस की सेवा कर के वह संसार सागर से पार हो जाए। भोला की मेहरबानी से ऐसी एक गाय हाथ आ भी गई, किंतु छोटे भाई की ईर्ष्या से वह जल्दी ही हमेशा के लिए होरी से छिन भी गई। इस गाय के चक्कर में होरी ने अपना क्या नहीं खोया? किस का कर्जदार नहीं हुआ? किस की बेगार नहीं की? फिर भी क्या वह अंतिम समय में गोदान कर सका? ‘कृषक जीवन का महाकाव्य’ माने जाने वाले इस उपन्यास ‘गोदान’ में प्रेमचंद के संचित अनुभव एवं उन की निखरी हुई कला सहज ही दिखाई देती है इस में सामंतों, साहूकारों, धर्म के ठेकेदारों की  करतूतों को भी बखूबी उजागर किया गया है।


होरी एक जोड़ा बैल खरीदता है पर उसका भाई उसे जहर देकर मार डालता है, जिसके कारण होरी का पूरा परिवार तबाह हो जाता है। गोदान में भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी सामाजिक - आर्थिक चेतना को चित्रित किया गया है। प्रस्तुत उपन्यास में ब्रिटिश समय में अभावग्रस्त ग्रामीणों की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। इस कृति में होरी और धनिया सामाजिक वर्ग संघर्ष के अमर प्रतीक है।


गोदान हिंदी के उपन्यास-साहित्य के विकास का  प्रकाशस्तंभ है। गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की ग्राम्य संस्कृति को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुवास है। प्रेमचंद ने इसे अमर बना दिया है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में पात्र और जीवनानुसार भाषा का प्रयोग हुआ है। हर वर्ग, जातियों की सांस्कृतिक जड़ें उसकी भाषा में निहित होती है। मालती-मेहता, राय साहब और दातादीन और होरी-धनिया की किसान संस्कृति की भाषा अलग दिखाई देती है। 


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20210110

दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में संभावनाओं की तलाश - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Hindi in the World: Exploring Possibilities in the Twenty-first Century - Prof. Shailendra Kumar Sharma

यूनाइटेड नेशंस में हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए सौ से अधिक देशों में बसे भारतीय संकल्प लें


स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी में प्रकाशन की राह खुली


दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में  संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी 


विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर भारत नॉर्वेजियन सांस्कृतिक फोरम, ओस्लो, नॉर्वे, स्पाइल दर्पण और वैश्विका अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया।  कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली के चेयरमैन प्रोफेसर अवनीश कुमार, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं समालोचक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा एवं विख्यात नृतत्त्वशास्त्री प्रो मोहनकान्त गौतम, नीदरलैंड थे। आयोजन की पीठिका प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार, अनुवादक और मीडिया विशेषज्ञ श्री शरद चन्द्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने प्रस्तुत की। 


दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी की संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी

संगोष्ठी का प्रसारण फेसबुक पर देखा जा सकता है : 

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10224227242325952&id=1149296433







आयोजन की विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ कवयित्री श्रीमती जय वर्मा, यूके, श्री रवि शर्मा, लन्दन, डॉ विनोद कालरा, जालन्धर, श्री सुरेश पांडेय, स्टॉकहोम, स्वीडन, डॉ ऋचा पांडेय, लखनऊ, डॉ मुकेश कुमार मिश्र, बस्ती, श्री अभिषेक त्रिपाठी, बेलफास्ट, आयरलैंड, श्रीमती संगीता शुक्ला दिदरेक्सन, ओस्लो, नॉर्वे आदि ने हिंदी के वैश्विक परिदृश्य पर प्रकाश डाला। यह संगोष्ठी दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित थी।




 


मुख्य वक्ता लेखक एवं आलोचक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि हिंदी भारतीय संस्कृति और हमारी अस्मिता को आधार देती है। हिंदी सहित भारतीय भाषाएं सही अर्थों में ऐश्वर्य प्रदान करने का माध्यम हैं। प्रवासी भारतीय अपनी भाषाओं को प्रोत्साहन देते हुए आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। यूनाइटेड नेशंस में हिंदी की प्रतिष्ठा हो, एक सौ दस से अधिक देशों में बसे भारतीय इसका संकल्प लें। दुनिया के विभिन्न भागों में अनेक स्वैच्छिक और साहित्यिक संस्थाएं हिंदी के प्रसार का काम कर रही हैं, उन्हें नए परिवेश के अनुरूप आधार मिलना चाहिए। देवनागरी के साथ हिंदी के नैसर्गिक रिश्ते को व्यापक फलक पर प्रसारित करने की आवश्यकता है। इक्कीसवीं सदी हिंदी की है। शिक्षा, अनुसंधान, सांस्कृतिक - भावात्मक एकता, साहित्यिक अभिव्यक्ति और जनसंचार माध्यमों से  हिंदी की नई संभावनाएं उजागर हो रही हैं। विश्व हिंदी दिवस को मनाते हुए हिंदी के साथ आत्म स्वाभिमान का भाव जगाना होगा।





 
वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली के चेयरमैन प्रो अवनीश कुमार ने कहा कि हिंदी के विकास में विदेशों में बसे भारतीय महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। आभासीय माध्यम से लोग परस्पर जुड़ रहे हैं। नए दौर में दूरियां कम हुई हैं। हिंदी एवं विदेशी भाषाओं के बीच परस्पर अनुवाद कार्य में तेजी आनी चाहिए। भारत सरकार के विभिन्न संस्थानों के द्वारा शब्दावली निर्माण, शब्दकोश एवं विश्वकोश के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया है। ये सभी पारस्परिक अनुवाद के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। नई शिक्षा नीति में  मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा पर बल दिया गया है। इससे मौलिक चिंतन में वृद्धि होती है।




वरिष्ठ लेखक एवं नृतत्त्वशास्त्री प्रोफेसर मोहनकांत गौतम, नीदरलैंड ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि प्रवासी भारतीयों ने भारत के बाहर हिंदी के लिए बहुत कार्य किया है। उनके काम को भारत में प्रचार प्रसार मिलना चाहिए। भारत हम लोगों के लिए माता पिता की तरह है, वहां से प्रेरणा और प्रोत्साहन मिले, यह जरूरी है। भारतीय स्कूलों में पाठ्यक्रम के माध्यम से यह बताया जाए कि प्रवासी भारतीयों ने अनेक चुनौतियों के बावजूद बाहर जाकर क्या किया। भारत से बाहर बसे लोग भारत को निरंतर ढूंढते रहते हैं। सांस्कृतिक और भाषाई एकता से सारी दुनिया में बसे भारतवंशी जुड़ें, यह जरूरी है। हिंदी का व्याकरण लेटिन भाषा के अनुसार बना है। संस्कृत का व्याकरण संज्ञा केंद्रित है, जबकि हिंदी का व्याकरण लेटिन भाषा के अनुकरण के कारण क्रिया केंद्रित बन गया है। उन्होंने साउथ एशियन लिटरेचर एंड लैंग्वेज एसोसिएशन जैसी संस्था के निर्माण की आवश्यकता पर बल दिया, जो हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं और साहित्य के विकास के लिए कारगर सिद्ध होगी।




वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ने नॉर्वे सहित  स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी की  प्रगति और संभावनाओं पर प्रकाश डाला।  उन्होंने कहा कि स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी में प्रकाशन की राह खुली है। श्री शुक्ल ने विगत दिनों प्रकाशित चर्चित काव्य संग्रह लॉक डाउन की चुनिंदा रचनाओं का पाठ किया।  


वरिष्ठ प्रवासी कवयित्री श्रीमती जय वर्मा, यूके ने अपनी कविता मैं सबकी प्रिय हिंदी हूँ सुनाई। उनकी एक रचना की पंक्तियों ने भरपूर दाद बटोरी, चल निकल चलें तेरे जहां गुलिस्ता से, कौन जानता है कि राह किधर ले जाए। 


डॉ ऋचा पांडेय, लखनऊ ने श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक द्वारा कोविड-19 महामारी के दौर की संवेदनाओं को लेकर दुनिया की किसी भी भाषा में रचित पहली काव्य कृति लॉक डाउन की समीक्षा प्रस्तुत की।




प्रो आशुतोष तिवारी, स्वीडन ने कहा कि प्रवासी भारतीयों के मन में भारत बसता है। वे वैश्विक मंच पर हिंदी को पहुंचा रहे हैं। भाषा लोगों को जोड़ती है उससे सामाजिक दृष्टिकोण विकसित होता है। स्वीडन में हिंदी में प्रकाशन किया जा रहा है।




श्रीमती संगीता शुक्ला दिदरेक्सन, नॉर्वे ने हिंदी शिक्षण के लिए नॉर्वे में उनके द्वारा प्रारंभ किए गए पहले स्कूल के अनुभवों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि हिंदी के जरिए भारतीय संस्कृति से जुड़ाव हो, यह जरूरी है। बच्चों को खेल, कविता, नृत्य, नाटक आदि गतिविधियों के माध्यम से हिंदी से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। मातृभाषा वास्तविक भावनाओं की भाषा होती है। बच्चे मातृभाषा के माध्यम से जल्दी सीख सकते हैं। पारिवारिक भावना का विकास भी इसके माध्यम से किया जा सकता है।


श्री रवि शर्मा, लंदन ने कहा कि हिंदी के विस्तार में सिनेगीतों का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपना गीत सुनाया जिसकी पंक्तियाँ थीं, बिना हम सफर के सफर कम नहीं था, पुरानी थी नैया भंवर कम नहीं था।


डॉक्टर गंगाधर वानोड़े, हैदराबाद ने कहा कि देश विदेश में हिंदी प्रचार - प्रसार के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। लगभग पचास देशों के विद्यार्थी केंद्रीय हिंदी संस्थान में अध्ययन कर रहे हैं। संस्थान द्वारा विभिन्न भाषाओं के अध्येता कोशों और पाठमालाओं का प्रकाशन किया गया है।


कार्यक्रम में डॉ मुकेश मिश्र, बस्ती ने भी विचार व्यक्त किए। 


डॉ विनोद कालरा, जालंधर ने कहा कि हिंदी हमारी अस्मिता के केंद्र में हैं। हमारा हर पल, हर क्षण हिंदी का हो यह आवश्यक है। उन्होंने मैं खुशबू बन कर लौटूंगी शीर्षक कविता सुनाई,  जिसकी पंक्तियां थीं, तुम भले ही मुझे भूल चुके, मैं तेरे जीवन के आंगन में खुशबू बनकर लौटूंगी।


श्री प्रवीण गुप्ता, नॉर्वे, श्री सुरेश पांडेय, स्वीडन एवं श्री गुरु शर्मा ओस्लो ने अपनी कविताएँ सुनाईं। श्री अभिषेक त्रिपाठी, आयरलैंड ने यह जो अपनी हिंदी है और सूरज और दीपक के संवाद पर केंद्रित कविता सुनाईं।

कार्यक्रम का जीवंत प्रसारण सोशल मीडिया के माध्यम से किया गया, जिसे देश दुनिया के सैकड़ों लोगों ने देखा। 


कार्यक्रम का संयोजन वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ने किया।


ज्ञातव्य है कि विश्व हिंदी दिवस  प्रत्येक वर्ष 10 जनवरी को पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है। देश दुनिया की हिंदी सेवी संस्थाओं और सरकारी विभागों के साथ विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं।

20210108

आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी का आलोचनात्मक योगदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Critical Contribution of Dr. Rammurti Tripathi - Prof. Shailendra Kumar Sharma

ध्वनि और रस सिद्धांत पर आचार्य त्रिपाठी का योगदान अद्वितीय  


शंकराचार्य स्वामी दिव्यानंद तीर्थ एवं आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जयंती समारोह 


मध्यप्रदेश लेखक संघ द्वारा चार धाम मंदिर सभागार में आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी एवं भानपुरा पीठ के शंकराचार्य स्वामी दिव्यानन्द तीर्थ जयंती समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि महामंडलेश्वर श्री शांतिस्वरूपानंद जी थे।  विशिष्ट अतिथि श्री नारदानन्द जी, कुलपति प्रोफेसर अखिलेश कुमार पांडेय एवं पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर बालकृष्ण शर्मा थे। प्रमुख वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा एवं प्रो शैलेंद्र पाराशर ने विचार व्यक्त किए। संस्थाध्यक्ष प्रो हरिमोहन बुधौलिया ने कार्यक्रम की पीठिका प्रस्तुत की।




प्रो बालकृष्ण शर्मा ने आदि शंकराचार्य के बहुआयामी व्यक्तित्व और योगदान प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आदि शंकराचार्य ने अल्प वय में भारतीय दर्शन, भक्ति, संस्कृति और राष्ट्रीय एकता के लिए महत्वपूर्ण अवदान दिया। स्वामी दिव्यानंद तीर्थ ने उनकी परंपरा को नए दौर में जीवंत किया। 





प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के योगदान पर केंद्रित व्याख्यान देते हुए कहा कि आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी ने चिंतन और समालोचना में दुर्गम पथ चुना था, जिस पर वे आजीवन चलते रहे। भारतीय ज्ञान परम्परा के प्रति गहन निष्ठा,  काव्यशास्त्रीय चिंतन की पुनराख्या, प्राचीन और नवीन रचनाधर्मिता की तलस्पर्शी आलोचना और आगमिक दृष्टि से काव्य एवं काव्यशास्त्र की पड़ताल आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी को समूची आलोचना धारा में अद्वितीय बनाते हैं।  आलोचना के क्षेत्र में ध्वनि और रस सिद्धांत पर उनका योगदान अनुपम है, जो सदैव याद किया जाएगा। भारत की पहचान के अभिलक्षणों के प्रसार के लिए वे निरन्तर गतिशील बने रहे। 




प्रोफेसर शैलेंद्र पाराशर ने आचार्य त्रिपाठी के साहित्यिक लेखन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि त्रिपाठी जी का संपूर्ण जीवन अध्ययन ,अध्यापन, लेखन एवं प्रबोधन को समर्पित रहा।



कार्यक्रम में पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर बालकृष्ण शर्मा को शंकराचार्य दिव्यानंद तीर्थ सम्मान तथा साहित्यकार डॉ देवेंद्र जोशी को आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से महामंडलेश्वर श्री शांति स्वरूपानंद जी , स्वामी नारदानन्द जी एवं अतिथियों ने सम्मानित किया। 


अभिनंदन पत्र का वाचन  साहित्यकार डॉ हरीश कुमार सिंह एवं श्री सूरज नागर उज्जैनी ने किया।







सरस्वती वंदना श्रीमती सीमा जोशी ने की। साहित्य सारथी कैलेंडर का विमोचन डॉ हरीशकुमार सिंह ने करवाया। 


कार्यक्रम में डॉ पुष्पा चौरसिया, डॉ अभिलाषा शर्मा,डॉ रफीक नागौरी, संतोष सुपेकर आदि सहित अनेक साहित्यकार उपस्थित थे।


कार्यक्रम का  संयोजन डॉ देवेंद्र जोशी ने किया। आभार प्रदर्शन प्रोफेसर हरिमोहन बुधौलिया ने किया।















चार्य 




राममूर्ति त्रिपाठी जयंती


20210106

सावित्रीबाई फुले : शिक्षा और सामाजिक सरोकार - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Savitribai Phule : Education and Social Concerns - Prof. Shailendra Kumar Sharma

स्त्री शिक्षा के वैश्विक परिदृश्य में सावित्रीबाई फुले का योगदान अद्वितीय है  – प्रो शर्मा 


सावित्रीबाई फुले : शिक्षा और सामाजिक सरोकार पर केंद्रित राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी 


देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा राष्ट्रीय वेब  संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश - दुनिया के साहित्यकारों और विद्वान वक्ताओं ने भाग लिया।  यह संगोष्ठी सावित्रीबाई फुले  : शिक्षा और सामाजिक सरोकार  पर केंद्रित थी।


कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। संगोष्ठी की विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, शिक्षाविद डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, महासचिव डॉ प्रभु चौधरी एवं उपस्थित वक्ताओं ने श्रीमती सावित्रीबाई फुले के योगदान पर प्रकाश डाला।  कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ शिवा लोहारिया, जयपुर ने की। 




मुख्य अतिथि लेखक एवं आलोचक प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि माता को सर्वोच्च गुरु का दर्जा देने वाले समाज में मध्ययुग में स्त्री शिक्षा की उपेक्षा की गई, जिसका सार्थक प्रतिरोध नवजागरण की पुरोधा सावित्रीबाई फुले ने किया। उन्होंने भारतीय समाज को व्यापक परिवर्तन के लिए तैयार किया। स्त्री शिक्षा की राह उनके द्वारा किए गए क्रांतिकारी  प्रयासों से सुगम हुई। स्त्री शिक्षा और सशक्तीकरण के वैश्विक परिदृश्य में सावित्रीबाई फुले का योगदान अद्वितीय है। भारतीय समाज, धर्म, इतिहास और परम्परा के सत्य शोधन के लिए उन्होंने ज्योतिबा फुले के साथ  महत्त्वपूर्ण कार्य किए। सामाजिक रूढ़ियों और जात पात के बंधन को तोड़ने में फुले दंपति ने अविस्मरणीय योगदान दिया। सावित्रीबाई फुले की कविताओं में उनके समय का दर्द और आक्रोश मुखरित हुआ है। उन्होंने प्रकृतिविषयक कविताओं के माध्यम से भी महत्त्वपूर्ण सन्देश दिए हैं।









विशिष्ट अतिथि डॉ सुवर्णा जाधव ने कहा कि एक प्रसिद्ध उक्ति है कि जब औरत पढ़ - लिख लेती है तो दोनों घरों को उजाला देती है। इसे सावित्रीबाई फुले ने व्यापक संदर्भों में चरितार्थ किया। उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण प्रयत्नों के कारण स्त्री शिक्षा की राह खुली। सावित्रीबाई फुले ने महिला मंडलों के माध्यम से महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके जन्मदिवस को बालिका दिवस के रूप में मनाया जाता है।



विशिष्ट अतिथि डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि सावित्रीबाई फुले ने स्त्री शिक्षा के लिए कार्य करते हुए अनेक यातनाएं झेलीं, लेकिन वे अपने पथ से दूर नहीं हुईं। उनका कार्य अनुपम है। रूढ़ियों से मुक्त कर आधुनिक विचारों का बीजवपन करना उनका उद्देश्य था। 

डॉ दत्तात्रेय टिलेकर, ओतुर ने कहा कि सावित्री बाई फुले को आद्य शिक्षिका के रूप में सम्मान मिला है। उन्होंने महिला शाला, प्रौढ़ शिक्षा, आनंददायी शिक्षा और सूत कताई की आधारशिला रखी। 



संस्था के महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने सावित्रीबाई फुले के बहुआयामी व्यक्तित्व और योगदान पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि सावित्रीबाई फुले की पुण्य तिथि पर मातृशक्ति सम्मान समारोह का आयोजन 7 एवं 8 मार्च 2021 को जयपुर में किया जाएगा। 



अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉक्टर शिवा लोहारिया ने कहा कि सावित्रीबाई फुले का संदेश है कि हम सब मिलकर सभी वर्ग की महिलाओं की शिक्षा और उन्नति के लिए कार्य करें। 



डॉ रजिया शहनाज शेख, राष्ट्रीय सचिव ने कहा कि सावित्रीबाई फुले ने स्त्री शिक्षा के साथ विधवा पुनर्विवाह के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने अस्पृश्यता और बाल विवाह का विरोध किया। फातिमा शेख जैसी अनेक स्त्रियों को उन्होंने शिक्षित किया, जिन्होंने बाद में उनके साथ इस दिशा में गम्भीर कार्य किए। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए उल्लेखनीय योगदान के लिए ब्रिटिश शासन ने उनका सम्मान किया था।



डॉ भरत शेणकर, अहमदनगर के जन्मदिवस पर उनका सारस्वत सम्मान अतिथियों द्वारा किया गया। डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर ने डॉ शेणकर के योगदान पर प्रकाश डाला। वाग्देवी की वंदना डॉ संगीता पाल कच्छ में प्रस्तुत की तथा अतिथि परिचय डॉ संगीता बल्लाल ने दिया। कार्यक्रम को संबोधित करने वालों में प्रमुख थे नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली के महामंत्री डॉक्टरी हरिसिंह पाल, संस्था अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा, गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी, प्रयागराज, श्रीमती लता जोशी, मुंबई, अनिल ओझा, इंदौर  आदि।



राष्ट्रीय संगोष्ठी में साहित्यकार एवं संस्था की राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डॉक्टर सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ भरत शेणकर, अहमदनगर, श्री अनिल काले, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉ शिवा लोहारिया, जयपुर, गरिमा गर्ग, पंचकूला, समीर सैयद, श्रीमती कुसुम लता कुसुम, नई दिल्ली आदि सहित अनेक साहित्यकारों ने भाग लिया।




संगोष्ठी के प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ पूर्णिमा कौशिक, महासचिव, छत्तीसगढ़ इकाई, रायपुर ने की। स्वागत भाषण गरिमा गर्ग, राष्ट्रीय सचिव, पंचकूला, हरियाणा ने दिया। संस्था परिचय एवं प्रस्तावना डॉ राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर ने प्रस्तुत की।  

राष्ट्रीय संगोष्ठी का संचालन साहित्यकार डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया। आभार प्रदर्शन शिवा लोहारिया, जयपुर ने किया।












 



सावित्रीबाई फुले जयंती प्रसङ्ग 


20210105

आलोचक आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी : बहुआयामी अवदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Critic Acharya Ramamurthy Tripathi: Multidimensional Contribution : Prof. Shailendra Kumar Sharma

भारतीय साहित्य और काव्यशास्त्र के अद्वितीय मनीषी थे आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी 

आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जयंती महोत्सव एवं उनके बहुआयामी अवदान पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी

डॉ पन्नालाल आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से अलंकृत 

क्लैसिकी शोध संस्थान एवं हिंदी अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के संयुक्त तत्वावधान में प्रख्यात आलोचक और विद्वान आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी की 92 वीं जयंती के अवसर पर सारस्वत महोत्सव एवं राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि मध्यप्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ पन्नालाल थे। कार्यक्रम के सारस्वत अतिथि पूर्व संभागायुक्त एवं पूर्व कुलपति डॉ मोहन गुप्त थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने की। कार्यक्रम में श्रीधाम आश्रम के महंत श्री श्यामदास जी का सान्निध्य रहा।  विशिष्ट अतिथि प्रो गीता नायक, डॉ जगदीश चंद्र शर्मा, श्री जियालाल शर्मा एवं डॉ देवेंद्र जोशी थे। कार्यक्रम में डॉ पन्नालाल जी को उनके विशिष्ट योगदान के लिए आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से अलंकृत किया गया। 






प्रमुख अतिथि पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ पन्नालाल ने समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी भारतीय साहित्य और काव्यशास्त्र के अद्वितीय मनीषी थे। उन्हें हम किसी भाषा के दायरे में नहीं बांध सकते। उनकी आलोचना के केंद्र में काव्यगत चारुता की चर्चा आती है। इसके साथ ही वे रस और साधारणीकरण की चर्चा किया करते थे।  वे रसवादी आचार्य हैं। रचना से यदि आनंद मिलता है, वह सर्वोपरि होती है।







सारस्वत अतिथि डॉ मोहन गुप्त ने कहा कि आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी,  आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य नंददुलारे वाजपेयी की परंपरा को नई दिशा देने वाले साहित्य मनीषी और आलोचक हैं। उन्होंने प्राचीन से लेकर नवीन साहित्य सर्जना पर समीक्षा कार्य किया। उनके साहित्य सिद्धांतों और मीमांसा को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए व्यापक प्रयास किए जाने चाहिए। 





कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए लेखक एवं आलोचक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि आचार्य त्रिपाठी पिछली सदी के अपने ढंग के अनन्य आलोचक हैं। उनकी आलोचना दृष्टि भारतीय चिंतन धारा की ठोस आधार भूमि पर टिकी हुई है। ऐसे समय में जब पश्चिमी चिंतन से आक्रांत सर्जक और आलोचक आत्महीनता की स्थिति में आ गए थे, आचार्य त्रिपाठी ने अपनी जड़ों में अंतर्निहित काव्य दृष्टि की संभावनाओं को नए सिरे से उजागर किया। रस और ध्वनि जैसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को सतही तौर पर लेने वाले आलोचकों की अधूरी समझ और सीमाओं का उन्होंने पूरी दृढ़ता से प्रतिरोध किया। काव्य के रसात्मक प्रतिमान को वे सर्वोपरि महत्व देते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र के सिद्धांतों की पुनराख्या के साथ पश्चिम से आगत अनेक काव्य सिद्धांतों की सीमाओं को लेकर वे निरन्तर सजग करते हैं। उन्होंने आगम या तंत्र के आलोक में भारतीय साहित्य और काव्य चिंतन परम्परा के वैशिष्ट्य को प्रतिपादित किया, वहीं नई रचनाधर्मिता का तलस्पर्शी मूल्यांकन किया। 







विशिष्ट वक्ता डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी की आलोचना दृष्टि और आलोचना भाषा पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आचार्य त्रिपाठी ने अपने काव्यशास्त्रीय लेखन में भारतीय काव्य चिंतन की सभी मान्यताओं और सिद्धांतों को प्रामाणिक और अविकल रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने एक ही संप्रदाय के आचार्यों के मध्य परस्पर विचार भेद को भी प्रकट करने में संकोच नहीं किया। भारतीय काव्य विमर्श के सातत्य को उन्होंने रीतिकालीन कवि आचार्यों और आधुनिक हिंदी आलोचकों तक दिखाने का अत्यंत कठिन कार्य उन्होंने किया है। रीतिकालीन आचार्यों की मौलिकता और उनके काव्यशास्त्रीय योगदान की अत्यंत तार्किक मीमांसा त्रिपाठी जी ने की है। उनका संपूर्ण कृतित्व मूल्यवान और अर्थवत्ता लिए हुए हैं, जिसके माध्यम से समकालीन रचना और आलोचना दोनों का मार्ग आलोकित हो सकता है।




प्रो गीता नायक ने आचार्य त्रिपाठी से जुड़े हुए अनेक संस्मरण सुनाए।




डॉ देवेन्द्र जोशी ने कहा कि डॉ त्रिपाठी ने शास्त्र और साहित्य परंपरा के विविध विषयों पर कलम चलाई है। उनके समग्र चिंतन को पढ़ते हुए गूढ़ गंभीर चिंतक और सिद्धांतवादी की छवि उभरती है। लेकिन जब समूचे चिंतन की गहराई में उतरा जाता है तो उनका लेखन समाजोपयोगी होकर साहित्य और समाज का पथप्रदर्शक बन कर हमारे सामने आता है। कवि, आलोचक, शोधकर्ताओं और तंत्र उपासकों ने आचार्य त्रिपाठी के समूचे चिंतन को पढ़ा होता तो वे उस भटकाव से बच जाते जो आज के युग की बड़ी समस्या है। तंत्रशास्त्र हो अथवा आलोचनाशास्त्र, वे खामियों पर टिप्पणी ही नहीं करते हैं, उनका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। उनके समूचे चिंतन का आधार समाज और साहित्य में नैतिक मूल्यों की स्थापना कर मूल्य आधारित समाज की स्थापना करना रहा है। उन्होंने सुझाव दिया कि डॉ त्रिपाठी पर केंद्रित कार्यक्रम का विस्तार हो। उनके लेखन कर्म पर शिक्षण और शोध के स्तर पर सार्थक विमर्श हो।


डॉ पन्नालाल जी को उनके विशिष्ट योगदान के लिए अतिथियों द्वारा अंग वस्त्र, श्रीफल एवं प्रशस्ति पत्र अर्पित करते हुए आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से अलंकृत किया गया। अभिनंदन पत्र का वाचन वरिष्ठ गीतकार श्री सूरज उज्जैनी ने किया।






अतिथियों का स्वागत वरिष्ठ समाजसेवी श्री तुलसी मनवानी, सूरज उज्जैनी, अमिताभ त्रिपाठी, पद्मनाभ त्रिपाठी, अनिल पांचाल सेवक, डॉ राजेश रावल सुशील आदि ने किया। प्रारंभ में अतिथियों द्वारा आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की गई। 

अतिथि साहित्यकारों का सम्मान श्री धाम आश्रम की ओर से स्वामी महंत श्री श्यामदास जी महाराज ने किया। सरस्वती वंदना डॉ राजेश रावल सुशील ने की।




समारोह में श्री अक्षय कुमार चवरे, डॉ इसरार मोहम्मद खान, गौरीशंकर उपाध्याय, अनिल पांचाल, डॉ संदीप पांडेय, अभिजीत दुबे,  रामचंद्र जी पांचाल, ओम प्रकाश कुमायू, किशोर अलबेला, श्रीमती अनीता सोहनी, राधे दीदी, श्रीमती शीला तोमर आदि सहित अनेक साहित्यकार, संस्कृति कर्मी और गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।


संगोष्ठी का संचालन पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर हरिमोहन बुधौलिया ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ सदानंद त्रिपाठी ने किया।

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