समय-समय पर नित नए माध्यमों और रूपों की तलाश करता है साहित्य – प्रो शर्मा
विदेशों में फहराया है डॉ शर्मा ने हिंदी का परचम
लेखक एवं आलोचक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा से सुखरामसिंह तोमर का साक्षात्कार)
समालोचक, निबंधकार और लोक संस्कृतिविद् डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा का जन्म भारत के प्रमुख सांस्कृतिक नगर उज्जैन में हुआ। उन्होंने उच्च शिक्षा देश के प्रतिष्ठित विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से प्राप्त की। वर्तमान में वे विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभाग के आचार्य, विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक के रूप में कार्यरत हैं। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए डॉ. शर्मा ने अनेक नवाचारी उपक्रम किए हैं, जिनमें विश्व हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र, मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केंद्र तथा भारतीय जनजातीय साहित्य एवं संस्कृति केंद्र, गुुुुरुनानक अध्ययन केंद्र एवं भारतीय भक्ति साहित्य केंद्र की संकल्पना एवं स्थापना प्रमुख हैं।
प्रो शर्मा विगत तीन दशकों से आलोचना, नाटक तथा रंगमंच समीक्षा, लोकसाहित्य एवं संस्कृति के विमर्श, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी के विविध पक्षों पर अनुसंधान एवं लेखन कार्य में निरंतर सक्रिय हैं। वे अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका अक्षरवार्ता के प्रधान संपादक हैं।
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के गांधी अध्ययन केंद्र के निदेशक के रूप में उन्होंने विगत वर्ष महात्मा गांधी के 150 वें जयंती वर्ष पर देश – दुनिया की किसी भी संस्था के माध्यम से सर्वाधिक गतिविधियों और नवाचारों का समन्वय किया। साहित्य विश्व के लिए उनके समक्ष कुछ सवाल रखे तो उन्होंने इस प्रकार जवाब दिये-
साहित्य की ओर आपका रुझान कब से और कैसे हुआ?
साहित्य की ओर रुझान के पीछे मुख्य प्रेरक मेरे पिता स्वर्गीय श्री प्रेमनारायण शर्मा रहे हैं। उन्होंने मेरे बालपन से ही साहित्य के संस्कार डाले। वे स्वयं कानून के क्षेत्र से जुड़े हुए थे, किंतु उन्होंने साहित्य को उस शुष्क दुनिया से बाहर आने का और व्यापक संवेदना से जुड़ने का माध्यम बनाया था। वे अत्यधिक व्यस्त रहते थे, लेकिन अपने समय की श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं और रचनाओं के आस्वाद का अवसर निकालते थे। हमारे यहाँ कादंबिनी, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, नवनीत जैसी पत्रिकाएं नियमित रूप से आती थीं, वहीं श्रेष्ठ साहित्य के पठन का अवसर मिलता था। उन्हीं पत्रिकाओं और साहित्यिक कृतियों के साहचर्य से साहित्य के साथ जुड़ाव होता चला गया। फिर साइंस में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद अग्रज डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए तैयार किया।
उच्च अध्ययन और अनुसंधान के दौर में विख्यात समालोचक गुरुवर आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, आचार्य बच्चूलाल अवस्थी और आचार्य कमलेशदत्त त्रिपाठी के संपर्क में आया। उनकी प्रेरणा से लेखन को दिशा मिलती गई।
आपने अब तक कितनी पुस्तकों का लेखन और सम्पादन किया है?
अब तक लगभग पैंतीस से अधिक पुस्तकों का लेखन एवं सम्पादन किया है। इनमें प्रमुख हैं, शब्दशक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा तथा हिन्दी काव्यशास्त्र, देवनागरी विमर्श, मालवा का लोकनाट्य माच और अन्य विधाएं, हिंदी भीली अध्येता कोश, महात्मा गांधी : विचार और नवाचार, सिंहस्थ विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, मालवी भाषा और साहित्य, अवन्ती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य, हिंदी कथा साहित्य, मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास, आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता, हरियाले आंचल का हरकारा : हरीश निगम, हिन्दी नाटक, निबंध तथा स्फुट गद्य विधाएँ एवं मालवी भाषा साहित्य, मालव मनोहर, हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य, हरीश प्रधान- व्यक्ति और काव्य, स्त्री विमर्श : परंपरा और नवीन आयाम, ज्ञानसेतु आदि। इनके अलावा एक हजार से अधिक आलोचनात्मक निबन्ध, शोध आलेख एवं टिप्पणियों का लेखन किया है, जो देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।
आप विश्व में कई स्थानों पर गए हैं, वहां हिंदी की क्या स्थिति पाते हैं?
देश देशांतर में हिन्दी निरन्तर आगे बढ़ रही है। यह विदेशों में बसे करोड़ों भारतवंशियों के लिए भारतीय संस्कृति, मूल्यों और जीवनशैली के साथ जुड़े रहने का सेतु बना रही है। अपनी थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया, मॉरीशस और म्यांमार की यात्राओं के दौरान मैंने पाया कि वहाँ हिंदी के प्रयोग की अलग-अलग स्थितियाँ हैं।
आपको किन संस्थाओं द्वारा अब तक पुरस्कृत और सम्मानित किया गया?
अब तक प्राप्त प्रमुख सम्मानों की संख्या पच्चीस से अधिक है। इनमें उल्लेखनीय हैं, संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय सम्मान, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, अक्षरादित्य सम्मान, साहित्य सिंधु सम्मान, लोक संस्कृति सम्मान, आचार्य विनोबा भावे राष्ट्रीय देवनागरी लिपि सम्मान, अखिल भारतीय राजभाषा सम्मान, शब्द साहित्य सम्मान, अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, आलोचना भूषण सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान आदि।
आपके पसन्दीदा साहित्यकार कौन हैं?
पसन्दीदा साहित्यकार कई हैं। उनमें संस्कृत, हिंदी और मालवी के कवि, कथाकार, नाटककारों के साथ अनेक लोक कवि और वाचिक परम्परा की रचनाओं के कई अलक्षित – अज्ञात सर्जक भी हैं। फिर भी नामोल्लेख जरूरी हो तो वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, शूद्रक, कबीर, रैदास, पीपा जी, तुलसीदास, सूरदास, मीरा, रसखान, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, निराला, प्रसाद, अज्ञेय, मुक्तिबोध, हजारीप्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, कुबेरनाथ राय, सुरेंद्र वर्मा आदि मेरे प्रिय रचनाकार हैं।
लोक कवियों में आनंदराव दुबे, हरीश निगम, नरहरि पटेल, भावसार बा, बालकवि बैरागी आदि का नाम लेना चाहूंगा। इधर माच के खेलों में गुरु बालमुकुंद जी से लेकर श्री सिद्धेश्वर सेन तक कई माचकारों की रचनाएं पसंद हैं। फिर लोक कन्ठानुकंठ में जीवन्त लोकगीतों, कथा - वार्ताओं के अनाम रचनाकारों को कैसे विस्मृत कर सकता हूँ?
मोबाइल फोन में डूबी नई पीढ़ी साहित्य की ओर आकर्षित हो, इस हेतु क्या किया जाना आवश्यक है?
प्रो शर्मा : साहित्य समय-समय पर नित नए माध्यमों और रूपों की तलाश करता है। युवा पीढ़ी स्तरीय साहित्य से जुड़ना - पढ़ना चाहती है, किंतु उन तक साहित्य भली भांति पहुंच नहीं रहा है। उसके बजाय मन बहलाव और भटकाव देने वाली गैर जरूरी सामग्री पहुंच रही है। युवाओं में संवेदनशीलता के विस्तार के लिए साहित्य के साथ उन्हें जोड़ने की जरूरत है। इस दृष्टि से श्रेष्ठ सृजन को नए माध्यमों के साथ गतिशील बनाया जाए, यह आवश्यक है।
हमारी परम्परा के महान रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं को डिजिटल रूप में लाने के साथ उन्हें दृश्य - श्रव्य माध्यमों के जरिए भी उन तक पहुंचाया जाए। इसी तरह बालपन से ही साहित्य के संस्कार डाले जाने आवश्यक है। इस दिशा में शैक्षणिक और साहित्यिक संस्थाएं, पत्र – पत्रिकाएं, सोश्यल मीडिया और वेबसाइट्स महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
- सुखरामसिंह तोमर, अक्षर विश्व
सर!उत्तम!👌👌
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हटाएंअनुकरणीय योगदान
हटाएंअनेक धन्यवाद
हटाएंSirji!साधुवाद, इतने सरल व्यक्तित्व को मेरा नमन।
जवाब देंहटाएंअनेक धन्यवाद
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