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20200830

लोक देवता देवनारायण जी : इतिहास, संस्कृति और साहित्य के परिप्रेक्ष्य - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

प्रेम और समरसता का व्यापक सन्देश दिया है लोक देवता देवनारायण जी ने
अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में लोक देवता देवनारायण : इतिहास, संस्कृति और साहित्य के संदर्भ में विषय पर हुआ मंथन


देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय देव चेतना परिषद द्वारा अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी लोक देवता देवनारायण : इतिहास, संस्कृति और साहित्य के संदर्भ में विषय पर अभिकेंद्रित थी। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि साहित्यकार श्री त्रिपुरारीलाल शर्मा, इंदौर थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। विशिष्ट अतिथि नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली के मंत्री डॉ हरिसिंह पाल, ओस्लो, नॉर्वे के साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक एवं श्री टीकम चंद बोहरा, कोटा थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता अखंड भारत गुर्जर महासभा के अध्यक्ष श्री देवनारायण गुर्जर, जयपुर ने की। संगोष्ठी की प्रस्तावना संस्था के अध्यक्ष डॉ प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत की।





लोक साहित्यविद् डॉ हरिसिंह पाल, नई दिल्ली ने संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि भारतीय लोकमानस अपने परिवारजनों और पशु संपदा की संरक्षा के लिए लोक देवी-देवताओं की शरण में पहुंचता रहा है। उसने अपने परिवेश के अलौकिक शक्तिसंपन्न महापुरुष को लोकदेवता का दर्जा दिया है। ऐसे ही लोकदेवता भगवान श्री देवनारायण की पशुपालक एवं अन्य समाजों में प्रतिष्ठा  है। उन्होंने पशुपालक समाज को वीरान जंगल में सभी प्रकार की सुरक्षा प्रदान की और उन्हें ईमानदारी एवं सच्चाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। देवनारायण के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर गायी जाने वाली लोकगाथा को आम लोगों के लिए उपलब्ध कराई जानी चाहिए, जिससे नई पीढ़ी अपने महापुरुष के सम्बन्ध में आसानी से जान सके। 





मुख्य वक्ता लेखक एवं आलोचक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने व्याख्यान देते हुए कहा कि मध्यकालीन भारतीय इतिहास और संस्कृति में देवनारायण जी का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने जल, वन, पशु और औषधि संरक्षण - संवर्धन में अविस्मरणीय कार्य किए। उनका चरित्र लोक हितकारी है। वे परस्पर प्रेम, भाईचारे और समरसता के माध्यम से समाज के नव निर्माण में जुटे रहे। बगड़ावत गाथा और हीड़ लोक काव्य में उनके चरित्र और कार्यों का प्रभावी अंकन हुआ है। भारतीय विश्वास है कि एक ही परम सत्ता अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होती है। लोक देवी - देवता उसी परमेश्वर के विभिन्न रूपों के द्योतक हैं। लोक में पूजित देवताओं में देवनारायण जी, तेजाजी, रामदेव जी, पाबू जी, हरबू जी, गोगाजी आदि का विशिष्ट स्थान है। ये सभी परोपकार,  साहस,  वचन निर्वाह, आत्म त्याग जैसे कई लौकिक और अलौकिक गुणों के कारण लोक आस्था के केंद्र सदियों से बने हुए हैं।लोक कण्ठानुकण्ठ में जीवन्त प्रसिद्ध उक्ति है:
पाबू, हरबू, रामदे, मांगळिया मेहा।
पाँचों पीर पधारजो, गोगाजी जेहा।।

पश्चिम एवं मध्य भारत में बहु लोकप्रिय रामदेव जी, पाबू जी, देवनारायण जी, हरबू जी, गोगा जी, तेजा जी, मेहा जी सहित कई लोक देवताओं से जुड़ा लोक साहित्य विपुल मात्रा में वाचिक परम्परा में प्रवहमान हैं। यह साहित्य अनुश्रुति, इतिहास और लोक-संस्कृति की जैविक अंतर्क्रिया का विलक्षण दृष्टांत है। सूक्ष्मता से विचार करें तो लोक साहित्य और संस्कृति अथाह है। लोक-देवता साहित्य और संस्कृति में ऐतिहासिक घटनाओं के साथ युग जीवन और पर्यावरण की विविध छबियां सहज उपलब्ध हैं। कई जाति-समुदायों से जुड़े विशिष्ट प्रसंग और घटनाओं में ऐतिहासिक सन्दर्भ बिखरे पड़े हैं। उनकी सूक्ष्म पड़ताल की आवश्यकता है। लोक में गहराई से उतरे बिना लोक-देवता साहित्य और कलाओं के साथ न्याय संभव नहीं है। इनके माध्यम से इतिहास और जातीय स्मृतियों की अनेकानेक परतें उद्घाटित होती हैं। यह अनुसन्धानकर्ता पर निर्भर है कि वह उनकी कितनी थाह पाता है। 

साहित्यकार श्री त्रिपुरारीलाल शर्मा, इंदौर ने कहा कि मालवा, राजस्थान, गुजरात क्षेत्र में अनेक लोक देवताओं का योगदान रहा है। इन सबके मध्य श्री देवनारायण जी पशु एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए विशिष्ट पहचान रखते हैं। लोक साहित्य और फड़ चित्रों में उनके लोकहितकारी कार्यों को अभिव्यक्ति मिली है। 


            


ओस्लो, नॉर्वे के प्रवासी साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक ने कहा कि लोक संस्कृति के क्षेत्र में देवनारायण जी का योगदान अविस्मरणीय है। आज संपूर्ण विश्व पर्यावरण से जुड़ी  चिंताओं से गुजर रहा है। हम देवनारायण जी के दिखाए हुए मार्ग पर चलते हुए जल स्रोतों, वन और पर्यावरण की रक्षा करें। हमें जैविक खेती और जलस्रोतों के विकास के लिए व्यापक प्रयास करने होंगे। श्री शुक्ल ने कहा कि वे लोक देवता देवनारायण जी के जीवन चरित्र से जुड़े हुए काव्यांशों का नॉर्वेजियनन भाषा में अनुवाद करेंगे।



संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ समाजसेवी श्री देवनारायण गुर्जर, जयपुर में कहा कि देवनारायण जी ने पूर्व में धर्म के नाम पर चले आ रहे पाखंड को समाप्त किया। उन्होंने सामाजिक सद्भाव के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए। देवनारायण जी ने आपस में बिछड़े हुए लोगों को जोड़ा था। आज भी उनके आदर्शों पर चलते हुए देशवासियों को जोड़ने की आवश्यकता है। भारतीय समाज को देवनारायण जी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए।




वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी श्री टीकम चंद वोहरा, कोटा ने कहा कि देवनारायण जी का व्यक्तित्व परोपकारी था। उनके पूर्वज बगड़ावतों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दी। बाद में  देवनारायण जी ने उत्कट साहस और पराक्रम से मातृभूमि को पुनः प्राप्त किया। राजस्थान के मालासेरी डूंगरी के पास बगड़ावत और देवनारायण जी के जीवन और कार्यों को केंद्र में रखते हुए बृहद् संग्रहालय बनाया गया है, जिसके माध्यम से हम इतिहास के महत्त्वपूर्ण पक्षों के सम्बंध में जान सकते हैं।



कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि डॉ एम एल वर्मा, जयपुर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि श्री देवनारायण जी की लोक गाथा परंपरा से प्राप्त अखंड भारत के लोक जीवन और दर्शन को अभिव्यक्त करती है। देवनारायण जी की लीला कथा भागवत स्वरूप है। गुर्जर लोक संस्कृति में श्री देवनारायण जी की फड़ और लोक वार्ता अनहद नाद शब्द ब्रह्म रूप है, जिसे बगड़ावतों के कुल भाट छोछू ने श्रुति स्मृति स्वरूप लोक कल्याण के लिए गुर्जरी भाषा में गाया है।




साहित्यकार श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली ने कहा कि देवनारायण जी अवतारी व्यक्तित्व थे। उन्होंने सृष्टि प्रेम का चिंतन प्रस्तुत किया और लोक कल्याण के कार्यों को करने की प्रेरणा दी।



स्वागत भाषण  संस्था के अध्यक्ष डॉ प्रभु चौधरी ने देते हुए कहा कि संस्था द्वारा देवनारायण जी सम्बन्धी  साहित्य का प्रकाशन किया जाएगा।




संगोष्ठी में डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ मुक्ता कौशिक, डॉ शैल चंद्रा, रायपुर, डॉ भरत शेनेकर, पुणे, डॉ. रोहिणी डकारे, अहमदनगर, जितेंद्र पांडे, डॉ श्वेता पंड्या, विजय शर्मा सहित देश के विभिन्न भागों के प्रतिभागी उपस्थित थे।





संगोष्ठी में डॉ राकेश आर्य, नोएडा, डॉ शिवा लोहारिया, जयपुर एवं डॉ संजीव कुमारी गुर्जर, हिसार ने देवनारायण जी के सामाजिक,  स्त्री शिक्षा एवं पर्यावरण विषयक विचारों की चर्चा की।


कार्यक्रम का संचालन अनुराधा अच्छावन, नई दिल्ली ने किया। आभार साहित्यकार श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली ने माना।


20200720

पर्यावरण संरक्षण : भारतीय चिंतन और हरियाली अमावस्या - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

भारतीय चिंतन परम्परा में प्रकृति, भगवान के समतुल्य - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

हरियाली अमावस्या पर्व पर राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना की अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी 

राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा हरियाली अमावस्या पर्व पर अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश - दुनिया के अनेक विद्वानों, शोधकर्ताओं और प्रतिभागियों ने भाग लिया। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि डॉ सुधांशु शुक्ला, पौलेंड, श्रीमती रमा शर्मा, जापान, डॉ कपिल कुमार, बेल्जियम थे। मुख्य वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं साहित्यकार प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। अध्यक्षता संस्था के अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा ने की। संगोष्ठी को डॉ कामराज सिंधु, कुरुक्षेत्र, श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली एवं संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने संबोधित किया। यह अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी पर्यावरण संरक्षण : भारतीय चिंतन और हरियाली अमावस्या पर एकाग्र थी।

संगोष्ठी के मुख्य अतिथि डॉ सुधांशु शुक्ला, पौलेंड ने कहा कि संपूर्ण विश्व आज पर्यावरण को लेकर चिंतित है। भारत अनादि काल से नदियों, पर्वतों, पेड़ और पौधों को लेकर आस्था भाव रखता आ रहा है। भारतीय चिंतन में प्रकृति को भगवान के समतुल्य महत्त्व मिला है, जो हमें सब कुछ देती है। 


मुख्य वक्ता प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि प्रकृति के साथ आत्मीय रिश्ता, लगाव और पूजा भाव भारतीय संस्कृति और परंपरा का महत्त्वपूर्ण अंग है। हमारे जल स्रोतों, प्राकृतिक वास स्थानों, बहुविध व्रत, पर्व, उत्सवों और लोक देवताओं के प्रति आस्था में प्रकृति के प्रति अनुराग सहस्राब्दियों से छलकता रहा है। प्रकृति पर्व हरियाली अमावस्या का हमारी परंपरा में विलक्षण स्थान है। सुदूर अतीत से चले आ रहे पर्यावरण चिंतन, वैज्ञानिक सोच, जातीय चेतना और वैश्विक दृष्टिकोण का संपुंजन हरियाली अमावस्या और इसी प्रकार के अन्य पर्वोत्सवों में दिखाई देता है। यह पर्व चराचर जगत के साथ मनुष्य के रिश्तों को व्यापक विश्व बोध के साथ जानने और क्रियान्वित करने का अवसर देता है। यह पर्व वन्य संस्कृति, गिरि संस्कृति, पशुपालन संस्कृति और कृषि संस्कृति के सातत्य और परस्परावलम्बन का पर्व है।


संगोष्ठी को संबोधित करते हुए श्रीमती रमा शर्मा, जापान ने कहा कि भारत में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से अनेक उपाय किए जाते हैं। जहां घने वृक्ष होते हैं, उन स्थानों पर लोक आस्था के प्रतीक के रूप में देवालय बनवा दिए जाते हैं। हमारे यहां पीपल में देवताओं का वास माना गया है। 

डॉ कपिल कुमार, बेल्जियम ने अपने उद्बोधन में कहा कि भारतीय चिंतन में प्रकृति के प्रति गहरी आस्था का भाव रहा है। गुलामी के दौर में हम पर्यावरण विध्वंस में लग गए, जिसके गम्भीर दुष्परिणाम आज झेल रहे हैं। नस्लों को बचाने के लिए पर्यावरण का संरक्षण करना होगा। पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए सजगता लानी होगी। 


अध्यक्षीय उद्बोधन में शिक्षाविद् श्री ब्रजकिशोर शर्मा ने कहा कि वर्तमान युग व्यापक पर्यावरणीय चिंताओं का युग है। इस दौर में पर्यावरण संरक्षण  के लिए साहित्यकारों, शिक्षकों और कलाकारों को समाज में संचेतना जगाने के लिए तत्पर होना होगा।



डॉ. कामराज सिंधु, कुरुक्षेत्र ने कहा कि वर्तमान युग में जल, भूमि, वनों का दोहन अनेक समस्याएं पैदा कर रहा है। इनसे पशु - पक्षियों, कीट - पतंगों का नाश हो रहा है। हमें शहरीकरण और अनियोजित विकास पर अंकुश लगाना होगा। 


प्रारंभ में श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की संकल्पना एवं उद्देश्यों पर प्रकाश डाला।   

संगोष्ठी को संबोधित करते हुए संस्था के महासचिव  डॉ प्रभु चौधरी ने कहा कि पर्यावरण संरक्षण के लिए सभी क्षेत्रों में सजगता जरूरी है। वर्षा काल में संस्था द्वारा स्थान - स्थान पर औषधीय और पर्यावरणीय महत्त्व के पौधे लगाए जाएंगे। 


आयोजन में श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, स्वर्णा जाधव, मुंबई ने पर्यावरणीय चिंताओं से जुड़ी कविताएं प्रस्तुत कीं।








इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में डॉ सुरेश चंद्र शुक्ल, ऑस्लो, नॉर्वे, डॉ विनोद तनेजा, अमृतसर, श्री मोहनलाल वर्मा, जयपुर, डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे,  शम्भू पँवार, जयपुर, डॉ कविता रायजादा, आगरा, तूलिका सेठ, गाजियाबाद, जी डी अग्रवाल, इंदौर आदि सहित देश के विभिन्न राज्यों के विद्वानों और प्रतिभागियों ने भाग लिया।

संगोष्ठी की सूत्रधार डॉ संजीव कुमारी गुर्जर, हिसार थीं। आभार प्रदर्शन श्री राकेश छोकर, नई दिल्ली ने किया। 









कार्यक्रम में डॉ.  उर्वशी उपाध्याय, प्रयाग, डॉ. शैल चन्द्रा, रायपुर, डॉ हेमलता साहू, अम्बिकापुर, डॉ. दर्शनसिंह रावत उदयपुर, डॉ कृष्णा श्रीवास्तव, मुंबई, श्रीमती प्रभा बैरागी, उज्जैन, श्री सुन्दरलाल जोशी ‘सूरज‘ नागदा, हेमलता शर्मा, आगर, श्रीमती रागिनी शर्मा, राऊ, डॉ. संगीता पाल, कच्छ,  डॉ. सरिता शुक्ला, लखनऊ, विनीता ओझा, रतलाम, पायल परदेशी, महू, जयंत जोशी धार, अनुराधा गुर्जर, दिल्ली, राम शर्मा परिंदा, मनावर, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ प्रवीण जोशी, डॉ श्वेता पंड्या, कमल भूरिया,  प्रवीण बाला, लता प्रसार, पटना, मधु वर्मा, श्रीमती दिव्या मेहरा, कोटा, श्रीमती तरुणा पुंडीर, दिल्ली, डॉ. शिवा लोहारिया, जयपुर, सुश्री खुशबु सिंह, रायपुर आदि सहित देश के विभिन्न राज्यों के साहित्यकार, प्रतिभागी और शोधकर्ता उपस्थित रहे। 

डॉ. प्रभु चौधरी
महासचिव
राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना
मो. 9893072718

20200520

पद्मश्री पं. रामनारायण उपाध्याय : कालमुखी तीर्थ के लोकोन्मुखी देवता -प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Padmashri Pt. Ramnarayan Upadhyay : People oriented Deity of Kalmukhi Tirtha - Prof. Shailendra Kumar Sharma

कालमुखी तीर्थ के लोकोन्मुखी देवता : पद्मश्री पं. रामनारायण उपाध्याय
 - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma  
 भारतीय लोक साहित्य एवं संस्कृति के अध्ययन, संचयन और अनुशीलन की  परंपरा में पद्मश्री पंडित रामनारायण उपाध्याय (जन्म 20 मई 1918) का नाम अविस्मरणीय है। वे लोक मनीषी श्री रामनरेश त्रिपाठी, पद्मभूषण पं सूर्यनारायण व्यास, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, विश्वनाथ काशीनाथ राजवड़े, श्रीधर व्यंकटेश केतकर, साने गुरुजी, डॉ सत्येंद्र, श्री देवेंद्र सत्यार्थी, डॉ  कृष्णदेव उपाध्याय,  डॉ श्याम परमार आदि की परंपरा के समर्थ संवाहक थे। लोक मनीषी पद्मश्री रामनारायण उपाध्याय के जन्म शताब्दी वर्ष के समापन समारोह के अवसर को उनकी परम्परा के सार्थवाह श्री शिशिर उपाध्याय और परिवारजनों ने अविस्मरणीय बना दिया था। 20 मई 2018 को रामा दादा की जन्मस्थली कालमुखी, खंडवा में हुआ यादगार आयोजन आज भी चलचित्र की भाँति स्मृति पटल पर अंकित है, जिसमें देश के विभिन्न अंचलों के संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार और ग्रामवासी और परिवारजन बड़ी संख्या में जुटे थे। भाई शिशिर उपाध्याय, हेमन्त उपाध्याय और परिवारजनों ने पं उपाध्याय जी की कर्मभूमि साहित्य कुटीर के सामने एक गली के मुहाने पर खुला मंच बनाया था, जिसके तीनों ओर आबाल वृद्ध शाम ढलते ही जुटने लगे थे और देर रात तक लोक हृदय सम्राट पं उपाध्याय जी की यादों में डूबते - उतरते रहे। 

पण्डित उपाध्याय की जन्मशती की पूर्णाहुति के अवसर पर डॉ सुमन मनोहर चौरे ने रामा दादा की स्मृतियों में गोता लगाकर अनेक संस्मरण सुनाए। डॉ पूरन सहगल, प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा, डॉ सुरेश कुशवाह, श्री शिशिर उपाध्याय ने दीपदीपन किया और दादा के संस्मरणों, व्यक्तित्व और कृतित्व के पृष्ठों को पलटा। अनेक लोक सर्जकों के संवाद और सम्मान का यह मौका अनूठा बन गया था। सभी लोग उस दिन दादा की कर्मस्थली कालमुखी को लोक तीर्थ के रूप में पा रहे थे, जिसका लोकोन्मुखी देवता आसमान में बिखरी चाँदनी के बीच मुस्कुरा रहा था।



दादा को लोक पर कार्य करने की प्रेरणा लोक में प्रचलित एक गणगौर गीत की दो पंक्तियों से मिली थी:
शुक्र को तारो रे ईश्वर ऊँगी रह्यो
तेकी मखsटीकी घड़ाओ।
शुक्र का तारा आसमान में चमक रहा है, उसकी मुझे बिंदी घड़वा दो।
विराट शृंगार की यह कल्पना उन्हें मुग्ध कर गई थी। फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा। उन्होंने निमाड़ लोकांचल में बिखरे ऐसे ही अनेक मणि - माणिक्य जुटाए, जो आज भारतीय लोक विरासत पर गर्व का अवसर देते हैं।

पं उपाध्याय सही मायने में पृथ्वी पुत्र थे, ‘माता भूमि पुत्रोsहं पृथिव्याः’ को साकार करने वाले। उनके लिए लोक साहित्य कामधेनु की तरह है, वहाँ जिस कामना के वशीभूत होकर जाएँ, वह सहज प्राप्त हो जाता है। उनके लिए लोक गीत मनोभावनाओं का कोमल इतिहास है। जैसे हर व्यक्ति का खास व्यक्तित्व होता है उसी तरह हर लोक गीत का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है और वह अपने लिए विशिष्ट स्थान चाहता है।

वे भाषा की अमरता के उपासक हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल ने कहा है कि एक - एक शब्द मार्कण्डेय की आयु लिए बैठा है। उपाध्याय जी उसे साक्षात् करते हैं। शब्द कोश तो बनाते ही हैं, वर्गीकृत रूप में शब्द भंडार भी सहेजते हैं। उनकी दृष्टि में जैसे हम लोग समूह में रहते हैं, वैसे ही शब्द भी समूह में रहते हैं, अंतर्क्रिया करते हैं। इस आधार पर उन्होंने शब्दों का वर्गीकरण कर अक्षय शब्द सम्पदा को सहेजा है।
निमाड़ और निमाड़ी को केंद्र में रखते हुए उन्होंने सम्पूर्ण देश के लोक का प्रत्यक्षीकरण किया है। उनकी दृष्टि में लोक साहित्य, लोक मन की सूक्ष्म अनुभूतियों का महाकाव्य है।

लोक संस्कृति के बदलते स्वरूप को लेकर भी उन्होंने विचार किया है। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि लोक साहित्य में युग के अनुकूल अपने को ढालने और नए युग के मार्गदर्शन की क्षमता होती है। वे किसान से कहते हैं, तुम तो सजीव साहित्य के निर्माता हो। वे लोक की अजस्र शक्ति के विश्वासी थे, इसीलिए इन शक्ति स्रोतों की खोज में तल्लीन रहे, अपने लेखन के जरिये उसकी खोज का आह्वान करते रहे।

दादा ने लोक संस्कृति के अंतरप्रांतीय अध्ययन की राह खोली। रामा दादा ने पूरे देश के विभिन्न अंचलों के लोक साहित्य का अध्ययन किया एवं स्पष्ट किया कि बेटी की बिदाई का दर्द सभी लोक भाषाओं में एक सा है। उनकी विवेचनाओं में निमाड़ के साथ गुजरात, अवध, मिथिला, गढ़वाल - सब एक दूसरे से हिलेमिले दिखाई देते हैं। मालवा के साथ निमाड़ का रिश्ता बनाते हुए उन्होंने बहुत सुंदर रूपक रचा है, मालवी को यदि हम बाग - बगीचों में पली शकुंतला कहें तो निमाड़ी अरण्य वनों में से अपनी राह बनाने वाली सीता की तरह है। इसीलिए निमाड़ी में श्रम और संघर्ष प्रधान गीतों का प्राधान्य है। निमाड़ी जन की संघर्षशीलता को उन्होंने भीषण गर्मी के बीच मुस्कुराते पलाश के फूलों से तौला है। इसी चेतना को वे सब जगह देखते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ प्रहार करती एक लोक लघुकथा को वे सुनाते हैं, जिस पर जितनी टिप्पणी की जाए, कम ही होगी। 

“न्हार न बकरी सी पूछ्यो
क्यों री बकरी मांस खायगा?
बकरी न कह्यो, म्हारो ज बची जाय तो भोत छे।“


उपाध्याय की दृष्टि में, सूरज सी रेत ज्यादा तपज, या फिर तू आदमी छै की तैसिलदार, या फिर गरीब का छोरा खs सरग पर बिगार और फिर उधई का वावल्ला मs भुजंग आदि, ये सब कहावतें निमाड़ के आम जन का भोगा हुआ यथार्थ ही तो हैं। उन्हें गांधी से जुड़े निमाड़ी लोक गीतों में निमाड़ वासियों की आशा के स्वर सुनाई देते हैं : 
ई खोटी पैसों नी खरी चांदी आयs।
ई हवा अन्धौळ नी गांधी आय।।

लोक भाषा, साहित्य एवं संस्कृति पर शोध के लिए प्रचुर सामग्री उन्होंने जुटाई थी, जो नए अनुसंधान कर्ताओं के लिए आज भी उपादेय है। शब्द भंडार, लोकोक्ति - मुहावरे, पहेली संचयन, लोक गीत और कथा संग्रह, हिंदी में प्रकाशित लोक साहित्य की सूची, मेलों की सूची, निमाड़ के तीर्थ, सन्त परम्परा, सन्तों के जन्म स्थान और  समाधियों की परिचयात्मक सूची - यह सब मिलकर शोध के लिए कई नवीन दिशाओं को खोलते हैं।

उन्होंने निमाड़ का जीवन रस संचित किया है। लोक विश्वास, लोक नाट्य, नृत्य, लोक अनुष्ठान, लोकाचार, क्या नहीं सहेजा उन्होंने। सहेज कर उसके मर्म को उद्घाटित भी किया है। उनकी रचनाओं में निमाड़ भरे पूरेपन के साथ धड़कता है। पं उपाध्याय ने हिंदी जगत् को निमाड़ी लोक साहित्य, संस्कृति और इतिहास से परिचित कराने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। उनकी प्रमुख कृतियों में व्यंग्य, ललित निबन्ध, रूपक, रिपोर्ताज, लघु कथाएँ, संस्मरण आदि विधाओं में 30 से अधिक पुस्तकें शामिल हैं। हम तो बाबुल तेरे बाग की चिड़िया (लोक साहित्य), निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास , जब निमाड़ गाता है (लोक साहित्य), लोक साहित्य समग्र (लोक साहित्य), बक्शीशनामा, धुँधले काँच की दीवार, नाक का सवाल, मुस्कराती फाइलें, गँवईं मन और गाँव की याद, दूसरा सूरज आदि व्यंग्य संकलन हैं। जनम-जनम के फेरे (ललित निबन्ध), मृग के छौने (गद्य रूपक), जिनकी छाया भी सुखकर है तथा जिन्हें भूल न सका (संस्मरण), कथाओं की अंतर्कथा, चिट्ठी, मामूली आदमी आदि उल्लेखनीय हैं। 
रामा दादा एवं डॉ सुमन जी जैसे साहित्यकारों ने विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के वाचनालय को अपना सद्साहित्य, प्राचीन ग्रंथ और अखबार देकर समृद्ध किया था। उनके साथ अंतरंग संवाद का अवसर मुझे गुरुवर आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के माध्यम से मिला था। जहाँ कहीं लोक का मन हास और अश्रु के साथ स्पंदित होगा, रामा दादा वही मौजूद रहेंगे।

- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
विभागाध्यक्ष
हिंदी विभाग
कला संकायाध्यक्ष
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन मध्यप्रदेश

20200430

मालवा का लोक नाट्य माच एवं अन्य विधाएँ / प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

मालवा का लोक नाट्य माच एवं अन्य विधाएँ / सम्पादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

BOOK ON INDIAN FOLK DRAMA ‘MACH’ BY Prof. Shailendrakumar Sharma 

पुस्तक समीक्षा / BOOK REVIEW
लोक कलाओं का त्रिवेणी संगम: मालवा का लोक-नाट्य माच और अन्य विधाएँ  - डा. पूरन सहगल
लोक नाट्य विधा, लोक की जीवन शैली की अभिन्न अंग है। इसी के माध्यम से लोक अपने मनोभावों को व्यक्त करता है। इसी के माध्यम से वह सामाजिक एवं राजनैतिक विसंगतियों की ओर लोक का ध्यान आकर्षित करता है तथा इसी के माध्यम से ही वह अपने मन-मस्तिष्क की थकान भी उतारता है। नाट्य विधा की ही एक सशक्त लोक विधा ‘माच’ है। मालवा, मेवाड़ और हाड़ौती अंचल में माच का ठाठ एक जैसा ही रहा है। माच और उसके खेल आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उसके उद्भव के समय थे। लोक की रूझान का यह आज भी चहेता है। लोक-नाट्य माच की परंपरा युग की स्थितियों-परिस्थितियों के कारण थोड़ी सी रुकी अवश्य है, झुकी नहीं है।

माच धारदार तेवर, इसका फड़कता हुआ अभिनय, इसकी ऊँची तरंगों वाली तानें, इसके साज़ और साजिंदों की जीवंतता, इसके अभिनीत नाट्य प्रसंग, इसकी अनूठी नाट्य-शैली और इसका सामाजिक सरोकार कभी भी अप्रासंगिक नहीं हुए और न होंगे।  जब भी कहीं सूचना मिलती है कि माच का खेल होने वाला है, लोग दूर-दूर से पहुँच जाते है, उसी उमंग और उत्साह के साथ। यह उमंग ठीक वैसी ही होती है जैसे कोई आत्मीयजन बहुत दिनों बाद गाँव लौटा हो।

नाट्य समीक्षक डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने माच की इस महत्ता को समझा और अद्भुत रूप से रचनाएँ एकत्रा कर एक ग्रंथ हमारे हाथों में सौंप दिया। एक ही विषय पर समग्र दृष्टिकोणों से रचनाएँ लिखवाना बहुत कठिन होता है। इससे भी कठिन होता है समयावधि में रचनाएँ लिखवाकर प्राप्त कर लेना और सबसे कठिन होता है विषय के प्रामाणिक विद्वानों को खोज निकालना। डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने यह कठिन कार्य किया और उसकी सफलता के प्रमाण स्वरूप हाल ही में प्रकाशित ग्रंथ ‘मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ’ हमारे सामने है। इस ग्रंथ के संकलन एवं संपादन में जितना श्रेय संपादक डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा, सहयोगी संपादक डा. जगदीशचन्द्र शर्मा और प्रबन्ध संपादक श्री हफीज़ खान को है, उतना ही इसके रचनाकारों का भी है।

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ Book of Shailendra Kumar Sharma


मैं इस पुस्तक को अपने लिए विशिष्ट पुरस्कार मानता हूँ। माच पर लिखने के लिए मैं वर्षों से सोचता रहा। मैं डा. शिवकुमार मधुर से थोड़ा आगे दो पाँवटे इस पथ पर रखना चाहता था। डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने मेरा सपना साकार कर दिया। हाथ लगते ही मैंने यह पुस्तक अपनी एक यात्रा के दौरान पढ़ी। ऐसा लगा मानो डा. शैलेन्द्र जी ने अनायास ही एक शोध-प्रबंध पूरा कर दिया हो। सामूहिक भागीदारी से एक सम्पूर्ण शोध-प्रबंध लिखने का यह एक सफल प्रयोग है।

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा के इस संपादन की अन्य विशेषताओं के अलावा सबसे बड़ी विशेषता है, लोक-नाट्य की सभी समकालीन विधाओं पर चर्चा करवाते हुए लोकनाट्य माच के समस्त पहलुओं - प्रसंगों पर सार्थक एवं शोधपरक चर्चा करवा लेना। इसमें उन्होंने समग्र मालवा-निमाड़ और मेवाड़ को तो शामिल किया ही है, हाड़ौती (राजस्थान) को भी प्रतिनिधित्व दिया है। इस प्रकार डा. शर्मा ने तीन क्षेत्रों की लोक-संस्कृति का एक त्रिवेणी संगम तो स्थापित किया ही है, लोकनाट्य, लोक चित्रावण एवं लोक-नृत्यों पर शोधपरक लेख शामिल कर दोहरा त्रिवेणी तीर्थ स्थापित करते हुए लोक-संस्कृति को सहज भाव से सशक्त, समर्थ एवं संवेदित कर इसकी अनश्चेतना को पूर्णतः उमंगित और आलोडि़त कर दिया है।

मेवाड़ के देवीलाल सामर और डा. महेन्द्र भानावत तथा निमाड़ वसंत निरगुणे जिन्होंने लोक-नाट्य को भली-भाँति जाना, समझा और खेला है तथा संवार कर उसे ऊँचाइयों का मुकाम दिया है। इस संग्रह को उनके लेखन का मार्गदर्शन मिलना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मेवाड़ से यात्रा शुरूकर पूरे अरावली को लाँघते हुए जावद, सिंगोली, रतनगढ़, नीमच, मनासा, मंदसौर, मल्हारगढ़, भानपुरा होते हुए तथा बीच में अनेक पड़ावों पर माच के ठाठ को सहेजते हुए डाॅ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा भोपाल, शाजापुर से वापिस उज्जैन लौटे हैं। मालवा की एक वृत्ताकार यात्रा कर डाॅ. शर्मा ने जिस मनोयोग और दूरदर्शिता का परिचय दिया है। इससे उन्होंने अपने शोधार्थियों को तो प्रेरित किया ही है, अपनी सुविचारित कार्य योजना और प्रबुद्ध वर्ग केे सहयोग को भी सार्थक कर दिया है।

माच के विषय बल्कि लोक-नाट्यों के विषय में डा. शिव चौरसिया की चिंता कितनी सटीक है कि ‘‘आधुनिक युग में विज्ञान द्वारा उपलब्ध करवाए अनेक अति आधुनिक साधनों के कारण लोकनाट्य में सामाजिक रुचि कम हुई है।’’ - (मालवी लोक-नाट्य माच) इसके अलावा लोक नाट्यों के प्रति उपेक्षा का कारण समय की बेतहाशा भागम-भाग भी है। किसी के भी पास इतना समय नहीं है कि वह लोकमंच के सामने बैठकर थोड़ा-सा मनोरंजन कर ले। वह तो इतना तेज भाग रहा है कि उसे अपने जीवन या पारिवारिक सरोकारों तक का भी भान नहीं है।

इस सचाई के बावजूद माच केवल मनोरंजन का ही साधन नहीं है। उसमें लोक-संस्कृति के विविध रंगों का आभास हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इस बात की पुष्टि माच-रंग के मर्मज्ञ विद्वान डा. शिवकुमार ‘मधुर’ ने अपने लेख ‘माच में प्रतिबिंबत लोक संस्कृति के विविध रंग’ में बहुत ही अदब से कही है।

लोक की अन्तश्चेतना, अन्तःअनुभूत और अन्तःआलोड़न की कहानी का क्रमबद्ध इतिहास लोक-संस्कृति में समाहित है। माच-साहित्य उसी लोक-संस्कृति का एक हिस्सा है। इसलिए उसमें लोक-संस्कृति की धड़कनें विद्यमान हैं। मालवा की लोक-संस्कृति का अंकन माच की रचनाओं में प्रयासजन्य न होकर सहज भाव से हुआ है। वैसे तो समग्र लोक-साहित्य का सृजन ही लोक आराधना का प्रतिफल है। माच में विशेष भाव विहवलता, विविधता और विचित्राता निहित रहती है। वह सबसे अलग है। स्वयं डाॅ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने अपने लेख ‘सामाजिक समरसता में माच की भूमिका’ में यह स्वीकारा है कि सामाजिक समरसता, धार्मिक सहिष्णुता, लोक मंगल की कामना, समतामूलक समाज की अवधारणा तथा सामाजिक न्याय की स्थापना के साथ-साथ सामाजिक रूढि़यों पर करारी चोट करने की क्षमतावान अभिव्यक्ति जितनी माच के खेलों में निहित है, उतनी अन्य किसी भी विधा में नहीं है।

डा. जगदीशचन्द्र शर्मा का आलेख ‘माच: प्रेरणा और उद्भव’ डा. श्यामसुंदर निगम का लेख ‘मालवा का लोक नाट्य माचः  एक दृष्टि’ या नरहरि पटेल का लेख ‘मालवी माच पर चिंतन’, अशोक वक्त का लेख ‘माच उर्फ शबे मालवा में थिरकती संस्कृति’ झलक निगम का ‘ढोलक तान फड़क के’ जैसे लेख माच की परंपरा और उसके महत्त्व को स्थापित करने के लिए महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों की तरह सहेजने योग्य हैं।

डा. प्यारेलाल श्रीमाल ‘सरस पंडित’ का महत्त्वपूर्ण गवेषणात्मक आलेख ‘प्रभावी लोक नाट्य माच और उसका संगीत’, डा. धर्मनारायण शर्मा का लेख’ संस्कृति एवं धार्मिक समन्वय के क्षेत्रा में ‘तुर्रा-किलंगी सम्प्रदायों का योगदान’, डा. पूरन सहगल का आलेख’ दशपुर मालवांचल में माच की परपंरा’, श्री ललित शर्मा का लेख ‘झालावाड़ की माच परंपरा’ जैसे आलेख माच के सामाजिक सरोकारों को तो प्रमाणित करते ही हैं, माच के सांस्कृतिक अवदानों की भी पुष्टि करते हैं।

तीन आलेख माच की लोक शैली, और प्रदर्शन शैली तथा माच के दर्शन संबंधी इस संग्रह में हैं, यदि ये न होते तो इनके बिना बात अधूरी रह जाती। सिद्धदेश्वर सेन का लेख ‘मालवा की माच परंपरा और कलाकार’, डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित का लेख ‘माच का दर्शन’ और स्वयं डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का लेख ‘लोक नाट्य माच: प्रदर्शन शैली और शिल्प’ जैसे लेखों में कई पूर्वाग्रहों और विसंगतियों पर विराम चिह्न लगाने का सटीक एवं सशक्त प्रयास किया गया है।

डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित का लेख ‘मालवा की चित्राकलाः शैलचित्रों से चित्रावण तक’, बसंत निरगुणे का लेख ‘मालवा-निमाड़ एवं अन्य अंचलों में पारंपरिक लोकचित्रा’, डा. लक्ष्मीनारायण भावसार का लेख ‘मालवा में चित्रावण विधा’ के साथ-साथ डा. आलोक भावसार का लेख ‘मालवा की लोक संस्कृति और लोक विधाएँ ’ एवं कृष्णा वर्मा का लेख ‘मालवा की लोक कला मांडना और संजा’ एवं डा. विवेक चैरसिया का लेख, ‘धन है मनक जमारो’ सब मिल-जुलकर मालवा की लोक चित्राशैली, चित्रावण, भित्ति चित्रा, पट्टचित्रा तथा लोक माँडनों में निहित सांस्कृतिक तथा कला परंपरा पर ऐसे शोधपरक आलेख हैं, जिनके मार्ग निर्देशन में कई शोध गोखड़े उद्घाटित होते हैं।

मालवा के लोक नृत्यों पर डा. पूरन सहगल का लेख ‘मालवा में प्रदर्शनकारी कलाओं का ठाठ’ आदिवासी एवं नृत्य संस्कृति पर सहज चर्चा करने का एक प्रयत्न तो है ही यह लोक नृत्यों पर शोध की प्रेरणा का स्रोत भी है। मालवा के लोकनृत्यों और नृत्याभिनयों पर हमें लोक नृत्य विशेषज्ञा डा. विजया खड़ीकर से कुछ आगे सोचने की दृष्टि प्रदान करता है।

श्री राजेन्द्र चावड़ा का लेख ‘माच और काबुकी, रमाकांत चौरडि़या का लेख ‘मालवी हीड़ लोक काव्य’ तथा  डा. धर्मेन्द्र वर्मा का लेख ‘मालवा की लुप्त होती लोक विधा ‘बेकड़ली’ ने हमारा ध्यान लुप्त होती जा रही इन महत्त्वपूर्ण लोक कलाओं की ओर आकृष्ट किया है। ये तीनों लेख हमें अपनी विलुप्त होती जा रही लोक कलाओं और विधाओं की रक्षा-सुरक्षा के प्रति पूरी जिम्मेदारी से चेतमान करते हैं।

इसी प्रकार आदिवासी लोक कलाओं तथा लोक नाट्यों पर एक-दो लेख इस संग्रह में यदि होते तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात होती। बसंत निरगुणे ने अपने आलेख में आदिवासी लोक चित्रावण पर चर्चा की है। इसमें भी यदि वे आदिवासी आनुष्ठानिक चित्रावण ‘पिथौरा’ व लोक देवता (नायक) ‘राय पिथौरा’ पर भी कुछ लिखते तो अधिक उपयुक्त होता । आदिवासी संस्कृति एवं उनके लोक नाट्यों पर उन्हें पूर्णतः विशेषज्ञता प्राप्त है। इसका लाभ वे इस संग्रह को दे सके होते तो संग्रह की सम्पन्नता एवं समग्रता परिपुष्ट हो जाती। पंकज आचार्य ने ‘‘बाल माच प्रदर्शन और लोक-संस्कृति संरक्षण की कोशिशें’’ लेख में बाल अभिनय और बाल नृत्यों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया हैं, किन्तु वे ‘फूंदी फटाका’ बालनृत्य का घूमर क्यों भूल गए वे ही जानें।

आज जरूरत इस बात की है कि लोक नाट्य की अन्य लोक विधाओं से तुलनात्मक अध्ययन करते हुए मालवा की सीमावर्ती लोक सांस्कृतिक परंपराओं को दृष्टि में रखकर समग्र अनुशीलन हो। ‘मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ’ में इन सब शोधपरक संभावनाओं के सूत्रा उपलब्ध हैं। माच का वर्तमान परिदृश्य में युगानुरूप कितना और किस प्रकार उपयोग हो सकता है, उसे विखंडित होते हुए पारिवारिक संदर्भों, विचलित होते हुए सामाजिक मानकों और भ्रष्ट होते हुए राजनैतिक विभ्रमों से जोड़ते हुए नवीन दृष्टि प्रदान करना होगी। स्वच्छंद होती हुई सभ्यता के अश्व को संयमित करने के लिए उसके हाथों में संस्कृति का चाबुक थमाना होगा। अभी भी माच के संदर्भ में विशद सर्वेक्षण होना शेष है ठीक वैसा ही सर्वेक्षण जैसा नीमच के सुरेन्द्र शक्तावत ने अपने लेख ‘नीमच की माच परंपरा’ के अन्तर्गत किया है। इतना श्रम और इतनी लगन हम सबको करना होगी, तब जाकर डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का यह प्रयास सुफलित हो पाएगा। इतने महत्त्वपूर्ण शोधपरक कार्य के लिए एवं सुव्यवस्थित सम्पादन के लिए वे बधाई के  हकदार तो हैं ही।


पुस्तक का नाम - मालवा का लोकनाट्य माच और अन्य विधाएँ
सम्पादक - डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रकाशक - अंकुर मंच, उज्जैन
प्रथम संस्करण 2008 ई., मूल्य 100/-रु., पृ. 208 (सचित्र)


20161127

लोक मानस का प्रभावी मंच मालवा का लोक नाट्य माच - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Mach : Effective Folk Theater of Malwa - Prof. Shailendra Kumar Sharma

लोक मानस का प्रभावी मंच मालवा का लोक नाट्य माच - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Mach : Effective Folk Theater of Malwa - Prof. Shailendra Kumar Sharma

भारतीय लोक नाट्य परम्परा की समृद्धि का साक्ष्य देता है माच

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

भारत के विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली लोक-भाषाएँ राष्ट्रभाषा की समृद्धि का प्रमाण हैं। लोक-भाषाएँ और उनका साहित्य वस्तुतः भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रवाणी के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में हम अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृतिप्रेमियों के समग्र प्रयासों की दरकार है। भारत के हृदय अंचल मालवा ने तो एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को गागर में सागर की तरह समाया हुआ है। मालवा की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को मालवा की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा भारत का हृदय अंचल है तो इसकी सांस्कृतिक राजधानी है उज्जैन। उज्जैन कला के अधिष्ठाता शिव और सर्व-कला-रत्न श्रीकृष्ण की नगरी है। इसी नगरी को लोक नाट्य माच के जन्म का श्रेय जाता है। आज का मालवा सम्पूर्ण पश्चिमी मध्यप्रदेश और उसके साथ सीमावर्ती पूर्वी राजस्थान के कुछ जिलों तक विस्तार लिए हुए है। इसकी सीमा रेखा के संबंध में एक पारम्परिक दोहा प्रचलित है जिसके अनुसार चम्बल, बेतवा और नर्मदा नदियों से घिरे भू-भाग को मालवा की सीमा मानना चाहिए-
 
इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान। 
दक्षिण दिसि है नर्मदा यह पूरी पहचान।।

मालवा का लोक-साहित्य की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यहाँ का लोकमानस शताब्दी-दर-शताब्दी कथा-वार्ता, गाथा, गीत, नाट्य, पहेली, लोकोक्ति आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता आ रहा है। जीवन का ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जब मालवजन अपने हर्ष-उल्लास, सुख-दुःख को दर्ज करने के लिये लोक-साहित्य का सहारा न लेता हो। भारतीय लोक-नाट्य परम्परा में मालवा के माच का विशिष्ट स्थान है। मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधि लोक नाट्य माच है, जो अपनी सुदीर्घ परम्परा के साथ आज भी लोक मानस का प्रभावी मंच बना हुआ हैं। मालवा के लोकगीतों, लोक-कथाओं, लोक- नृत्य रूपों और लोक-संगीत के समावेश से समृद्ध माच सम्पूर्ण नाट्य (टोटल थियेटर) की सम्भावनाओं को मूर्त करता है। लोकमानस की सहज अभिव्यंजना और लोक रंग व्यवहारों की सरल रेखीय अनायासता से उपजा यह लोकनाट्य लोकरंजन और लोक मंगल के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित है। माच मालवा-राजस्थान के व्यापक जनसमुदाय को आन्दोलित करता आ रहा है। माच शब्द संस्कृत के मंच शब्द का ही परिवर्तित रूप है। माच के नाटकों को खेल कहा जाता है, जो मुक्ताकाशी रंगमंच पर प्रस्तुत किए जाते हैं । संगीत, नृत्य, पाठ, अभिनय और बोलों  की अन्तः क्रिया माच को एक सम्पूर्ण नाट्य या यूँ कहें टोटल थियेटर का रूप दे देती है। माच के खेलों में सामाजिक सद्भाव, परस्पर प्रेम और सहज लोक जीवन के दर्शन होते हैं। माच के दर्शकों में भी एक खास ढंग की रसिकता देखी जा सकती है। इसके दर्शक महज दर्शक नहीं होते, मंच व्यापार में उनकी आपसदारी भी दिखाई देती है। माच के क्षेत्र में उज्जैन में अनेक घराने बने, जिन्होंने अपने-अपने ढंग से माच को नई ऊर्जा, नई गति दी। गुरु गोपाल जी, गुरु बालमुकुन्दजी, भागीरथ पटेल, गुरु रामकिशन जी, गुरु राधाकिशनजी, उस्ताद कालूराम जी, पं. ओमप्रकाश शर्मा, सिद्धेश्वर सेन, फकीरचंद जी, चुन्नीलाल जी, अनिल पांचाल आदि का माच के खेलों के सृजन और मंचन की परम्परा को आगे बढ़ाने में अविस्मरणीय योगदान रहा है। मालवा का माच पुराण, इतिहास और लोकाख्यानों में निहित उच्च आदर्श, प्रणय और लोक मंगल की भावभूमि को समाहित करता आ रहा है। समाज में व्याप्त विसंगतियों और विद्रूपताओं के विरुद्ध माच के खेलों ने लोक के अंदाज में तीखा प्रतिकार किया है। आधुनिक रंगमंच पर भी माच शैली के साथ प्रयोग सामने आ रहे हैं। यह लोकविधा अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखे हुए है।

माच की उत्सभूमि उज्जैन मानी जाती है। लगभग दो सौ से अधिक वर्षों से माच मालवा का प्रमुख लोकनाट्य बना हुआ है। इसके उद्भव और विकास में मालवा की अनेक लोकानुरंजक कला प्रवृत्तियों का योगदान रहा है। मालवा क्षेत्र में प्रचलित गरबी गीत, ढारा-ढारी के खेल, तुर्रा कलंगी, नकल-स्वांग की प्रवृत्ति, गम्मत, हाजरात विद्या आदि को माच के उद्भव एवं विकास में महत्त्वपूर्ण मानने वालों में डा. शिवकुमार मधुर का प्रमुख नाम है। मालवा के इन लोक कला रूपों में अन्तर्निहित तत्त्वों जैसे-नृत्य, गान एवं अभिनय, आध्यात्मिकता, नकल-स्वांग प्रवृत्ति, निर्गुणी भक्ति के तत्त्व, पुरुषों द्वारा स्त्री पात्रों की भूमिका सहित अनेक रंग व्यवहार आदि माच में आज भी मौजूद हैं। डा. मधुर के अनुसार- ढारा-ढारी के खेलों से अभिनय, गर्बा-उत्सव से संगीत, तुर्राकलंगी से काव्य-गायन और स्वांग-नकल प्रदर्शनों से अभिनय, हास-परिहास, चुटीले व्यंग्य एवं जनमनोरंजन के तत्त्व जुटाकर माचकारों ने इस नई रंग शैली को पनपाया।

राजस्थान में प्रचलित ख्याल का प्रभाव भी माच के खेलों में दिखाई देता है। इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डा. रघुवीरसिंह ने ख्यालों को माचों का जनक कहा है। माच की शैली के आरम्भकर्ता गुरु गोपालजी को माना जाता है, जो मूलतः राजस्थान के रहने वाले थे और बाद में मालवा में बस गए थे। ऐसा माना जाता है कि गुरु गोपाल जी ने मालवा क्षेत्र में राजस्थान के ख्याल जैसा कोई नाट्य रूप न पाकर स्थानीय संगीत और लोककला रूपों के समावेश से माच की शुरूआत की, जो परम्परा से क्रमशः परिष्कृत, संरक्षित और संवर्धित होता गया।

माच शब्द का सम्बन्ध संस्कृत मूल मंच से है। इस मंच शब्द के मालवी में अनेक क्षेत्रों में प्रचलित परिवर्तित रूप मिलते हैं। उदाहणार्थ-माचा, मचली, माचली, माच, मचैली, मचान जैसे कई शब्दों का आशय मंच के समानार्थी भाव बोध को ही व्यक्त करता है। माच गुरु सिद्धेश्वर सेन माच की व्युत्पत्ति के पीछे सम्भावना व्यक्त करते हैं कि माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी ने सम्भवतः कृषि की रक्षा के लिए पेड़ पर बने मचान को देखा होगा, जिस पर चढ़कर स्त्री या पुरुष आवाज आदि के माध्यम से नुकसान पहुँचाने वाले पशु-पक्षियों से खेत की रक्षा करते हैं। गुरु गोपालजी ने मचान शब्द को ध्यान में रखा होगा और फिर नाटक-प्रदर्शन के ऊँचे स्थान (मंच) से उसी मचान की आकृति एवं रूप साम्य के आधार पर अपने मंच का नाम माच दे दिया होगा। कालान्तर में यही नाम प्रचलित हो गया। वस्तुतः माच के मंच और मचान में पर्याप्त साम्य रहा है। पुराने दौर में माच का मंच इतना अधिक ऊँचा बनाया जाता था कि उसके नीचे से बैलगाड़ी भी गुजर जाती थी। इन दिनों मंच की ऊँचाई प्रायः सामान्य ही रहती है।

माच के आदि प्रवर्तक गुरु गोपाल जी के अलावा माच परम्परा को गुरु बालमुकुन्दजी, गुरु रामकिशनजी, गुरु भैरवलालजी, गुरु राधाकिशनजी, गुरु कालूरामजी, गुरु फकीरचन्दजी, गुरु शिवजीराम, गुरु चुन्नीलाल, श्री सिद्धेश्वर सेन, श्यामदास चक्रधारी आदि ने आगे बढ़ाया और अनेक खेलों का लेखन एवं प्रदर्शन किया। माच के विभिन्न गुरुओं के बीच नये-नये माच के निर्माण एवं प्रदर्शन की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती थी। विभिन्न माच गुरुओं द्वारा मालवी में रचे गए लगभग सवा सौ अधिक माच के खेल मिलते हैं, जिन्हें डा. मधुर ने सुविधा की दृष्टि से चार भागों में बाँटा है - धार्मिक और पौराणिक कथानक,  शौर्य कथाएँ, प्रेमाख्यान और सामाजिक कथानक।

इन सभी प्रकार के खेलों में जीवन की विभिन्न पहलुओं की अभिव्यक्ति के साथ ही कहीं मानव मन की सुकोमल भावनाओं के रागात्मक सन्दर्भों को व्यक्त किया गया है,तो कहीं साहसी और वीर चरित्रों को, कहीं आध्यात्मिकता की अभिव्यंजना है,तो कहीं सामयिक समस्याओं से टकराने की कोशिश। विविधायामी जीवन सन्दर्भों की अभिव्यक्ति के साथ ही उच्चतम मूल्यों की सिद्धि माच की केन्द्रीय प्रवृत्ति रही है, जो कहीं पौराणिक तो कहीं ऐतिहासिक, कहीं लोक-प्रसिद्ध तो कहीं काल्पनिक चरित्रों के माध्यम से मूर्त होती है।

भारत की समृद्ध नाट्य परम्परा की जीवंतता और निरंतरता को आधार देने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान लोक-नाट्यों का ही रहा है। लोकमानस की अभिव्यंजना के लिए उपलब्ध विविध माध्यमों में से लोक-नाट्य ही अपनी तीव्र रसवत्ता और सहज सम्प्रेषणीयता के भाषागत अन्तर के बावजूद एक अन्तः सूत्र में जुड़े दिखाई देते है। लोकमानस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति इन सारे लोक-नाट्य रूपों को एकसूत्र में जोड़ती दिखाई देती है। यह स्वाभाविक उनकी जटिल बौद्धिकता से विहीन भावात्मकता से उपजती है, जो कथानक, संवाद, गीत-संगीत, नृत्य, प्रदर्शन-शैली, रंग-शिल्प, भाषा आदि सभी स्तरों पर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। इस दृष्टि से मालवा क्षेत्र का लोक-नाट्य रूप माच भारत के अन्य लोक नाट्यों रूपों से अलग नहीं है। उसमें भी वहीं लोकरंजता के अनुकूल संगीत, नृत्यमूलक अभिनय एवं प्रदर्शन के तत्त्व, धार्मिकता के साथ ही सामाजिक, राजनैतिक, लोककथामूलक और प्रेमाख्यानपरक कथानकों की बहुलता तथा शृंगार, वीर, करुण और हास्य रसमूलक अतिरंजित भावप्रवणता और तल्लीनता मौजूद है, जो भारत के अन्य लोकनाट्य रूपों जैसे नौटंकी, ख्याल,भवई,तमाशा, करियाला आदि में मिलते हैं। वस्तुतः इन सभी की सौन्दर्य दृष्टि संस्कृत नाटकों की भांति रसमूलक ही है। इसी तरह इन लोकनाट्य रूपों में वैयक्तिक संघर्ष के स्थान पर व्यक्ति एवं समूह के अन्तः सम्बन्धों की पहचान तथा जीवन की अनेक स्थितियों से गुजरकर एक तरह के संतुलन की दशा  में दर्शकों को ले जाने की प्रवृत्ति मौजूद है, जिसमें कहीं लोकमंगल की सिद्धि होती है तो कहीं कारुणिक अन्त के बावजूद लोकादर्श की स्थापना। माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी (1773-1842 ई.) से लेकर आज तक सृजनरत माचकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने माच के लगभग डेढ़ सौ खेलों का प्रणयन किया है। बीसवीं शती के शुरूआती दशकों में माच ही मालवा का प्रतिनिधि रंगमंच था जिसके प्रदर्शनों में रात-रात भर सैकड़ों दर्शकों की भीड़ जुटी रहती थी। यद्यपि पिछली शताब्दी के ढलते-ढलते माच की लोकप्रियता एवं प्रदर्शनों में कुछ कमी आई है फिर भी इसके संरक्षण  विस्तार और नवाचारी प्रयोगों द्वारा माच गुरुओं ने इसे आज जीवंत बनाए रखा है।


डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रोफेसर एवं  हिंदी विभागाध्यक्ष
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.)


माच से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण वीडियो यूट्यूब चैनल पर देखें - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा













                                    









20161122

दुर्गादास राठौड़: स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का अमृत राग - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

अमरवीर दुर्गादास राठौड़ : जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात।
- प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा

माई ऐड़ा पूत जण, जेहड़ा दुरगादास।
मार मंडासो थामियो, बिण थम्बा आकास।।
आठ पहर चौसठ घड़ी घुड़ले ऊपर वास।
सैल अणी हूँ सेंकतो बाटी दुर्गादास।।

भारत भूमि के पुण्य प्रतापी वीरों में दुर्गादास राठौड़ (13 अगस्त 1638 – 22 नवम्बर 1718)  के नाम-रूप का स्मरण आते ही अपूर्व रोमांच भर आता है। भारतीय इतिहास का एक ऐसा अमर वीर, जो स्वदेशाभिमान और स्वाधीनता का पर्याय है, जो प्रलोभन और पलायन से परे प्रतिकार और उत्सर्ग को अपने जीवन की सार्थकता मानता है। दुर्गादास राठौड़ सही अर्थों में राष्ट्र परायणता के पूरे इतिहास में अनन्य, अनोखे हैं। इसीलिए लोक कण्ठ पर यह बार बार दोहराया जाता है कि हे माताओ! तुम्हारी कोख से दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मे, जिसने अकेले बिना खम्भों के मात्र अपनी पगड़ी की गेंडुरी (बोझ उठाने के लिए सिर पर रखी जाने वाली गोल गद्देदार वस्तु) पर आकाश को अपने सिर पर थाम लिया था। या फिर लोक उस दुर्गादास को याद करता है, जो राजमहलों में नहीं,  वरन् आठों पहर और चौंसठ घड़ी घोड़े पर वास करता है और उस पर ही बैठकर बाटी सेंकता है। वे अपने युग में जीवन्त किंवदंती बन गए थे, आज भी उसी रूप में लोक कण्ठहार बने हुए हैं। 

दुर्गादास मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंतसिंह के मंत्री आसकरण जी के पुत्र थे। उनका सम्बन्ध राठौड़ों की  करणोत शाखा से था। आसकरण मारवाड़  के शासक गजसिंह और उनके पुत्र जसवंतसिंह के प्रिय रहे और प्रधान पद तक पहुँचे। उनके तीन पुत्र थे- खेमकरण, जसकरण और दुर्गादास।  दुर्गादास की माता नेतकुंवर अपने पति और उनकी अन्य पत्नियों के साथ नहीं रहीं। दुर्गादास का जन्म श्रावन शुक्ल चतुर्दशी विक्रम संवत् 1695 को सालवां कल्ला में और उनका पालन पोषण जोधपुर से दूर लुणावा नामक ग्राम में हुआ।


पिता आसकरण की भांति किशोर दुर्गादास में भी वीरता कूट- कूट कर भरी थी। सन् 1655 की घटना है, जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राजकीय राईका (ऊंटों का चरवाहा) लुणावा में आसकरण जी के खेतों में घुस गए। किशोर दुर्गादास के विरोध करने पर भी उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, वीर दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर त्वरित गति से उस राज राईका की गर्दन उड़ा दी। इस बात की सूचना महाराज जसवंत सिंह के पास पहुंची तो वे उस वीर को देखने के लिए उतावले हो उठे और अपने सैनिकों को दुर्गादास को लाने का आदेश दिया। दरबार में महाराज उस वीर की निर्भीकता देख अचंभित रह गए। दुर्गादास ने कहा कि मैंने अत्याचारी और दंभी राईका को मारा है, जो महाराज का भी सम्मान नहीं करता है और किसानों पर अत्याचार करता है। आसकरण ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भयता से स्वीकारते देखा तो वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुआ कि यह आसकरण का पुत्र है। घटना की वास्तविकता को जानकर महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और तलवार भेंट कर अपनी सेना में शामिल कर लिया।

दुर्गादास ने सन् 1658, 16 अप्रैल को मालवा के धरमाट के युद्ध में महाराजा के साथ भाग लिया, जो दारा शिकोह और औरंगजेब के मध्य लड़ा गया था। जसवंतसिंह बादशाह शाहजहाँ के कृपापात्र होने के कारण दारा की ओर से लड़ा। इस युद्ध में दुर्गादास ने अपूर्व वीरता का परिचय दिया था, उन्हें घायल अवस्था में जोधपुर पहुंचाया गया। दारा को क्रमशः धरमाट, सामूगढ़ और दोराई में पराजित कर औरंगजेब ने पिता शाहजहाँ की सत्ता हथिया ली। कालांतर में महाराजा जसवंत सिंह दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब से मैत्री स्थापित हुई और वे प्रधान सेनापति बने। फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी। वह हमेशा जोधपुर को हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था। सन् 1659 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ हुए विद्रोह को दबाने के लिए जसवंत सिंह को भेजा गया। दो वर्ष तक विद्रोह को दबाने के बाद जसवंत सिंह काबुल (अफ़गानिस्तान) में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही 1678 ई. में वीर गति को प्राप्त हुए। उस समय उनका कोई उत्तराधिकारी घोषित नहीं था। औरंगजेब ने मौके का फायदा उठाते हुए मारवाड़ में अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयत्न किया। औरंगजेब ने जोधपुर पर कब्जा कर लिया और सारे शहर में लूटपाट, आगजनी और कत्लेआम होने लगा। देखते ही देखते शहर को उजाड़ बना दिया गया। लोग भय और आतंक के कारण शहर छोड़ अन्यत्र चले गए थे। उन्होंने जज़िया कर भी लगा दिया। राजधानी जोधपुर सहित सारा मारवाड़ तब अनाथ हो गया था। ऐसे संकटकाल में कुँवर अजीतसिंह के संरक्षक बने। दुर्गादास ने स्वर्गीय महाराज जसवंत सिंह की विधवा महारानी तथा उसके नवजात शिशु (जोधपुर के भावी शासकअजीतसिंह) को औरंगजेब की कुटिल चालों से बचाया। दिल्ली में शाही सेना के पंद्रह हजार सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटते हुए मेवाड़ के राणा राजसिंह के पास परिवार सुरक्षित पहुंचाने में वीर दुर्गादास राठौड़ सफल हो गए। औरंगजेब तिलमिला उठा और उनको पकड़ने के लिए उसने मारवाड़ के चप्पे-चप्पे को छान मारा। यही नहीं उसने दुर्गादास और अजीतसिंह को जिंदा या मुर्दा लाने वालों को भारी इनाम देने की घोषणा की थी।इधर दुर्गादास भी मारवाड़ को आजाद कराने और अजीतसिंह को राजा बनाने की प्रतिज्ञा को कार्यान्वित करने में जुट गए थे। दुर्गादास जहां राजपूतों को संगठित कर रहे थे वहीं औरंगजेब की सेना उनको पकड़ने के लिए सदैव पीछा करती रहती थी। कभी-कभी तो आमने-सामने मुठभेड़ भी हो जाती थी। ऐसे समय में दुर्गादास की दुधारी तलवार और बर्छी कराल-काल की तरह रणांगण में नरमुंडों का ढेर लगा देती थी।

मारवाड़ के स्वाभिमान को नष्ट करने के लिए जो मुग़ल रणनीति तैयार हुई थी, उसे साकार होना दुर्गादास राठौड़ जैसे महान् स्वातन्त्र्य वीर, योद्धा और मंत्री के रहते कैसे सम्भव था? बहुत रक्तपात के बाद भी मुग़ल सेना सफल न हो सकी। अजीत सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर औरंगजेब ने अजीतसिंह की हत्या की ठान ली, औरंगजेब के षड्यंत्र को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और अपने साथियों की मदद से स्वांग रचाकर अजीतसिंह को दिल्ली से निकाल लाये। वे अजीतसिंह के पालन पोषण की समुचित व्यवस्था के साथ जोधपुर राज्य के लिए होने वाले औरंगजेब द्वारा जारी षड्यंत्रों के खिलाफ निरंतर लोहा लेते रहे। अजीतसिंह के बड़े होने के बाद राजगद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता और स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी, औरंगजेब की ताकत और प्रलोभन दुर्गादास को डिगा न सके। जोधपुर की स्वतंत्रता के लिए दुर्गादास ने लगभग पच्चीस सालों तक संघर्ष किया, किंतु अपने मार्ग से च्युत नहीं हुए। उन्होंने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को न केवल चुनौती दी, कई बार औरंग़ज़ब को युद्ध में पीछे हटाकर संधि के लिए मजबूर भी किया। उन्होंने छापामार युद्ध भी लड़े और निरन्तर मारवाड़ के कल्याण के लिए शक्ति संचय करते रहे। मारवाड़ के मुक्ति संग्राम के वे सबसे बड़े नायक थे। उनके पराक्रम से औरंगजेब बेनूर हो जाता था और दिल्ली भी भयाक्रांत हो जाती थी, आज भी लोक स्मृति में ये प्रसंग सप्राण बने हुए हैं।

दुरगो आसकरण रो, नित उठ बागा जाये
अमल औरंग रो उतारे, दिल्ली धड़का खाए।
दिल्ली दलदल मेंह, आडियो रथ अगजीत रौ।
पाछोह इक पल मेंह, कमधज दुर्गे काढियो।।
संतति साहरी, गत सांहरी ले गयो।
रंग दंहूँ राहांरी, बात उबारी आसवात।।
रण दुर्गो रुटेह, त्रिजडअ सिर टूटे तुरत।
लाठी घर लूटेह, आलम रो उठै अमल।।
ओरंग इक दिन आखियो, तने बालोह कांइ दुरगेश।
खग वालिह वालोह प्रभु, वालोह मरुधर देश।।

उनका खाना-पीना यहाँ तक कि रोटी बनाना भी कभी-कभी तो घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे ही होता था। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी जोधपुर के दरबार में लगा वह विशाल चित्र देता है,  जिसमें दुर्गादास राठौड़ को घोड़े की पीठ पर बैठे एक श्मशान भूमि की जलती चिता पर भाले की नोक से आटे की रोटियां सेंकते हुए दिखाया गया है। डा. नारायण सिंह भाटी ने 1972 में मुक्त छंद में राजस्थानी भाषा के प्रथम काव्य दुर्गादास में इस घटना का चित्रण किया है,

तखत औरंग झल आप सिकै, सूर आसौत सिर सूर सिकै, 
चंचला पीठ सिकै पाखरां-पाखरां,  सैला असवारां अन्न सिकै।।

अर्थात् औरंगजेब प्रतिशोध की अग्नि में अंदर जल रहा है। आसकरण के शूरवीर पुत्र दुर्गादास का सिर सूर्य से सिक रहा है अर्थात् तप रहा है। घोड़े की पीठ पर निरंतर जीन कसी रहने से घोड़े की पीठ तप रही है। थोड़े से समय के लिए भी जीन उतारकर विश्राम देना संभव नहीं है। न खाना पकाने की फुरसत, न खाना खाने की। घोड़े पर चढ़े हुए ही भाले की नोक से सवार अपनी क्षुधा की शांति के लिए खाद्य सामग्री सेंक रहे हैं।

दुर्गादास राठौड़ गहरे साहित्यानुरागी ही नहीं थे,उन्होंने स्वयं डिंगल काव्य रचनाएँ भी की थीं। उन्होंने कई कवियों को आश्रय भी दिया। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा। ऐसी मान्यता है कि कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ महाराज अजीतसिंह के कान भर दिए थे, जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे,  इसे देखकर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना उचित समझा और वे मालवा चले गए, वहीं  उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे।दुर्गादास कहीं के राजा या महाराजा नहीं थे, परंतु उनके उज्ज्वल चरित्र की महिमा इतनी ऊंची है किवे कितने ही भूपालों से ऊंचे हो गये और उनका यश तो स्वयं उनसे भी ऊंचा उठ गया:

धन धरती मरुधरा धन पीली परभात। 
जिण पल दुर्गो जलमियो धन बा मांझल रात।।

अर्थात् दुर्गादास तुम्हारे जन्म से मरुधरा धन्य हो गई। वह प्रभात धन्य हो गया और वह मांझल रात भी धन्य हो गई जिस रात्रि में तुमने जन्म लिया।

वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 को पुण्य नगरी उज्जैन में हुआ और अन्तिम संस्कार उनकी इच्छानुसार उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर किया गया था, जहाँ स्थापित उनकी मनोहारी छत्रीआज भी भारत के इस अमृत पुत्र की कीर्ति का जीवन्त प्रतीक बनी हुई है। इस स्मारक की वास्तुकला राजपूत शैली में है तथा एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। लाल पत्थर से निर्मित इस छत्री पर दशावतार, मयूर आदि को अत्यंत कलात्मकता के साथ उकेरा गया है। आसपास का परिदृश्य प्राकृतिक  सुषमा से भरपूर है, इसलिए यह स्मारक एक छोटे से रत्न की तरह चमकता है। दुर्गादास की इस पावन देवली पर दुर्गादास जयन्ती आयोजन के साथ ही समय समय अनेक देशप्रेमी मत्था टेकने के लिए आते हैं।

वरिष्ठ लोक मनीषी डॉ पूरन सहगल ने मालव भूमि पर बसे लोक समुदाय के मध्य आज भी जीवित दुर्गादास राठौड़ से जुड़े वाचिक साहित्य के संकलन - सम्पादन का संकल्प लिया, जो पूर्ण हो गया है। इस संकलन में संचित दुर्गादास जी विषयक सामग्री कई नए तथ्यों का उद्घाटन करती है, वहीं लोक के कोण से उनकी छबि को नए आलोक में देखने का अवसर प्रदान करती है। वीर दुर्गादास राठौड़ के अवदान को लेकर पूर्व में अनेक प्रकाशन अस्तित्व में आए हैं, यथा: जगदीशसिंह गेहलोत कृत इतिहास ग्रंथ वीर दुर्गादास राठौड़, इतिहासकार डॉ रघुवीरसिंह कृत इतिहास ग्रंथ राठौड़ दुर्गादास,सुखवीरसिंह गेहलोत कृत इतिहास ग्रंथ स्वतन्त्रता प्रेमी दुर्गादास राठौड़, विट्ठलदास धनजी भाई पटेल कृत गुजराती उपन्यास वीर दुर्गादास अथवा मारू सरदारो, प्रेमचंद कृत वीर दुर्गादास, द्विजेन्द्रलाल राय कृत बांग्ला नाटक दुर्गादास (हिन्दी अनुवाद रूपनारायण पांडेय), हरिकृष्ण प्रेमी कृत नाटक आन का मान, प्रहलादनारायण मिश्र की पुस्तकराठौड़ वीर दुर्गादास, नारायणसिंह शिवाकर की  राजस्थानी में निबद्ध वीर दुर्गादास सतसई आदि। इनके अलावा रामरतन हालदार, पं विश्वेश्वरनाथ रेउ,डॉ रामसिंह सोलंकी आदि ने भी उनके चरित्र को ऐतिहासिक दृष्टि से आकार दिया है। डॉ पूरन सहगल का यह प्रयास इन सबसे अलहदा है, जहां मालवा अंचल की वाचिक परंपरा में मौजूद इस महान योद्धा की पावन गाथा और अन्य नवीन सामग्री सर्वप्रथम प्रकाश में आ गई है।  

इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने दुर्गादास जी के अवदान को लेकर ठीक ही कहा है, "उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ़ हृदय को पीछे हटा सकी। वह एक वीर था जिसमें राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी।" दुर्गादास ने अपूर्व पराक्रम, बलिदानी भावना, त्यागशीलता, स्वदेशप्रेम और स्वाधीनता का न केवल प्रादर्श रचा, वरन् उसे जीवन और कार्यों से साक्षात् भी कराया। उनके जैसे सेनानी के अभाव में न भारत की संस्कृति और सभ्यता रक्षा संभव थी और न ही आजाद भारत की संकल्पना संभव। कविवर केसरीसिंह बारहठ की यह प्रार्थना निरन्तर साकार होती रहे, तब निश्चय ही राष्ट्र को कोई भी शक्ति परतन्त्रता की बेड़ियों में कदापि जकड़ा न सकेगी :
देविन को ऐसी शक्ति दीजिये कृपानिधान।
दुर्गादास जैसे माता पूत जनिबो करै।।
                                


प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन 456010






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