जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी श्लोक की सत्यता और प्रामाणिकता को लेकर समस्या मेरे सामने आती रही है।
यह श्लोक वाल्मीकि रामायण की कुछ पाण्डुलिपियों में मिलता है, और दो रूपों में मिलता है।
प्रथम रूप : निम्नलिखित श्लोक 'हिन्दी प्रचार सभा मद्रास' द्वारा 1930 में सम्पादित संस्करण में आया है : This sloka is seen in the edition published by Hindi Prachara Press, Madras in 1930 by T.R. Krishna chary, Editor and T. R. Vemkoba chary the publisher.
http://www.valmikiramayan.net/yuddha/sarga124/yuddhaitrans124.htm#Verse17
इसमें भारद्वाज, राम को सम्बोधित करते हुए कहते हैं-
मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
हिन्दी अनुवाद : "मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है। (किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।"
दूसरा रूप : इसमें राम, लक्ष्मण से कहते हैं-
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
अनुवाद : " लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका सोने की बनी है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।
फिर तो लोक में ऐसा परिव्याप्त हुआ कि बहु उद्धरणीय बन गया।
वाल्मीकीय रामायण का प्रामाणिक और समीक्षित संस्करण बड़ौदा से प्रकाशित है। उसमें, गीता प्रेस संस्करण एवं उत्तर भारत के अन्य संस्करणों में भी नहीं है।
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Prof. Shailendra kumar Sharma