पेज

20200502

आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता / संपादक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma

आवरण - आकल्पन : Akshay Ameria
हिंदी एवं संस्कृत के कवि एवं शास्त्रज्ञ पण्डित नित्यानन्द शास्त्री कृत रामकथापरक काव्यों का विशिष्ट महत्त्व है। आलोचक और लेखक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता आधुनिक राम काव्य परम्परा में एक महत्त्वपूर्ण कृति रामकथा कल्पलता और शास्त्री जी की अन्य कृतियों की समीक्षा और अनेक दृष्टियों से विश्लेषण का प्रयास है। यहाँ पुस्तक की सम्पादकीय भूमिका के अंश प्रस्तुत हैं :

साहित्य मनीषी और सर्जकों की सुदीर्घ परंपरा भारतवर्ष का गौरव रही है। हमारे यहाँ ऐसे कई रचनाकार हुए हैं, जिन्हें कवि - आचार्य की संज्ञा दी गई है। वे कवि होने के पहले आचार्य भी हैं, इसीलिए उनकी सर्जना में शास्त्रज्ञता और कवित्व दोनों का संयोग वर्तमान है। बीसवीं शती के उल्लेखनीय रचनाकार नित्यानंद शास्त्री (1889 - 1961 ई.) एक कुशल शास्त्रज्ञ के साथ सर्जक भी थे। वे कवि - आचार्य की विरल होती परंपरा के सच्चे संवाहक थे। संस्कृत और हिंदी - दोनों में समान दक्षता से काव्य सर्जन उन्होंने किया। राघव और मारुति को उन्होंने विषमार्थ सिंधु को पार करने के लिए अवलंब माना था। इसकी अभिव्यक्ति उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण काव्य ग्रंथों की रचना के माध्यम से की। इनमें श्रीरामचरिताब्धिरत्नम्, रामकथा कल्पलता, हनुमद्दूतम्, मारुतिस्तवः आदि प्रमुख हैं। राम की मूलकथा के रूप में वाल्मीकि रामायण सदा उनके दृष्टि पथ में रही है। इस ग्रंथ के प्रति उनका अविचल श्रद्धा भाव श्रीरामचरिताब्धिरत्नम् के माध्यम से प्रकट हुआ है, शाब्दिक रूप से ही नहीं, उसकी शैली और वर्ण्य के अनुसरण के रूप में भी। पंडित शास्त्री जी का यह महाकाव्य भाव, भाषा और शिल्प के अनेकानेक रत्नों से समृद्ध है। इस रूप में वह अपनी संज्ञा को सार्थक करता है। संस्कृत काव्य जगत् में शास्त्री जी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनके हिंदी महाकाव्य रामकथा कल्पलता को बीसवीं शती के रामकाव्य परंपरा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है। इसमें उन्होंने संस्कृत चित्रकाव्य परंपरा की सुवास जनभाषा में उतारने का चुनौतीपूर्ण और श्रम साध्य प्रयत्न किया है।


शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक आचार्य नित्यानन्द शास्त्री और रामकथा कल्पलता Book of Shailendra Kumar Sharma


रामकथा हर युग, हर परिवेश के लिए कांक्षित फल देने वाली है, उसे कल्पलता का गौरव ऐसे ही नहीं मिला है। स्वयं शास्त्री जी के लिए भी वह अपनी संज्ञा सार्थक कर गई है। कवि ने वाल्मीकि रामायण को उपजीव्य रूप में लेने के बावजूद कई नए प्रसंग, नई कल्पनाओं का समावेश कथा प्रवाह में किया है। ये प्रसंग रंजक होने के साथ ही कवि के कौशल का आभास देते हैं। कवि अपने युग परिवेश से विमुख नहीं है। उन्हें जहां अवसर मिला है, रामकथा के प्रवाह में अपने समय और समाज को भी अंकित करते चलते हैं। गांधी युग के इस रचनाकार ने स्वयं स्वतंत्रता आंदोलन के स्पंदन को महसूस किया था और उसी ने उन्हें भारतभूमि के नव गौरव - गान के लिए प्रेरित किया। इसीलिए वे गा उठते हैं - हमें हैं मान भारत का। नल – नील, हनुमान आदि तो जैसे उनके समकालीन सेनानी हों, इसीलिए ठीक सेतु बंध के बीच भारत की महिमा गाते हुए दिखाई देते हैं:

अहा! ये पाद प्यारे हैं, जलधि जल से पखारे हैं।
मनोरथ सिद्ध सारे हैं, हमें हैं मान भारत का।
अहो! वीरो! उठो, आओ, कमर कस काम जुट जाओ।
जयश्री को लिवा लाओ, हमें हैं मान भारत का।

नित्यानंद शास्त्री ने पहले राम के चरित्र का अंकन संस्कृत महाकाव्य श्रीरामचरिताब्धिरत्नम् के माध्यम से किया था। उसके बाद लोगों ने कृति के हिंदी पद्यानुवाद के लिए आग्रह किया, तब वे उसके स्थान पर स्वतंत्र काव्य रचना के लिए तत्पर हो गए और रामकथा कल्पलता का सृजन संभव हुआ। उनका विचार था, मुझे उस समय इस बात का पूरा अनुभव हो चुका था कि संस्कृत के श्लेषादि जटिल विषय को हिंदी पद्यानुवाद यथावत समझा नहीं सकता। श्लेष के वैशिष्ट्य को संस्कृत काव्य में उतारने में उनकी कुशलता जगह-जगह दिखाई देती है। किंतु वे यह भी स्वीकार करते हैं कि हिंदी में संस्कृत के कई श्लिष्ट पदों का आशय नहीं निकल सकता और बिना उनके प्रयोग के मूल भाव की रक्षा नहीं हो सकती। ऐसे में उन्होंने हिंदी की प्रकृति के आधार पर युक्तियुक्त मार्ग अपनाया है। आचार्य शास्त्री के लिए संस्कृत में काव्य सृजन अत्यंत सहज था, लेकिन वे यह भी स्वीकार करते हैं कि सर्वसामान्य के लिए वह कविता तभी अर्थपूर्ण हो सकती है, जब उसे हिंदी में प्रस्तुत किया जाए। रामकथा कल्पलता की सर्जना और हनुमद्दूतम् के हिंदी पद्यानुवाद के पीछे उनकी यही दृष्टि काम कर रही थी। पंडित शास्त्री टकसाली भाषा में निष्णात थे। वे शब्दों को मात्र गढ़ते ही नहीं थे, उन्हें प्रयोग संस्पर्श भी देते थे। मात्र रामकथा कल्पलता के नवनिर्मित शब्दों का कोश बना लिया जाए तो वह स्वतंत्र शोध का विषय हो सकता है। परंपरागत और नए सभी प्रकार के छंदों पर उनकी गहरी पकड़ थी। अपने हिंदी महाकाव्य को एकरसता से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने छंद परिवर्तन की तकनीक का इस्तेमाल किया है। जहां कहीं उन्हें युक्तिसंगत प्रतीत हुआ, उन्होंने छंदों के चरण विशेष में अक्षरों द्वारा उन छन्दों के लक्षण भी प्रस्तुत कर दिए हैं। वे छन्दों का नियोजन प्रसंग और विषय के अनुरूप करने में सिद्धहस्त थे। मध्यकालीन दौर में विकसित हुए कई काव्य रूपों और नए प्रयोगों में आचार्य शास्त्री विशेष पटु थे। उनकी यह पटुता स्थान - स्थान पर परिलक्षित होती है। आशु कवित्व से लेकर समस्या पूर्ति और चित्रकाव्य तक उनके विलक्षण कौशल का परिचय हमें उनकी कृतियों में मिलता है। रामकथा कल्पलता जहां उनके लिए भक्तिपरकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है,  वहीं वे राम के लोकरंजनकारी आख्यान को जनमानस में प्रसारित करने के लिए इस दिशा में प्रवृत्त हुए। सर्वहित और अमंगलनिवारण से लेकर अलौकिक आनंद और मोक्ष जैसे प्रयोजनों तक के फैलाव को समेटती है उनकी कविता।

पंडित शास्त्री जी के कई ग्रंथ वर्षों पूर्व श्री वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई एवं अन्य संस्थानों से प्रकाशित हुए थे। उन पर अध्येताओं ने पर्याप्त कार्य भी किया, किंतु कालांतर में उनकी उपलब्धता न रही। ऐसे में उनके दौहित्र श्री ओमप्रकाश आचार्य ने ग्रंथों के पुनः प्रकाशन का बीड़ा उठाया। देवर्षि कलानाथ शास्त्री, जयपुर और पूर्व राजदूत डॉ वीरेंद्र शर्मा, दिल्ली ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया।  कोलकाता में स्थापित आचार्य नित्यानंद स्मृति संस्कृत शिक्षा एवं शोध संस्थान पंडित शास्त्री जी के अवदान पर पुनर्विचार का अवसर दे रहा है।

इस पुस्तक में महाकवि शास्त्री जी के संक्षिप्त जीवन वृत्त और रचना संसार को समाहित करते हुए उनके महाकाव्य रामकथा कल्पलता के विविधायामी समीक्षण - विश्लेषण पर केंद्रित सामग्री सँजोई गई है। इस महाकाव्य के रचना सौष्ठव, कथा  उद्भावना, रसवत्ता, संवाद योजना, प्रमुख चरित्र, भक्ति तत्व आदि के साथ ही कृति के सांस्कृतिक, दार्शनिक, सामाजिक संदर्भों पर भी महत्त्वपूर्ण आलेख प्रकाशित किए गए हैं। इन सभी आलेखों से कृति की व्याप्ति और विस्तार, अंतर्वस्तु और संरचना, शक्ति और सीमाओं का आकलन संभव हो सका है। इस दृष्टि से सभी विद्वान लेखकों के प्रति हम प्रणत हैं। शास्त्री जी की महत्वपूर्ण कृतियों श्रीरामचरिताब्धिरत्नम्, श्री दधीचि चरित, बालकृष्ण नक्षत्रमाला आदि पर केंद्रित आलेख भी इसमें समाहित किए गए हैं।
 - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता
 संपादक : प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रकाशक : आचार्य नित्यानंद स्मृति संस्कृत शिक्षा एवं शोध संस्थान, कोलकाता

20200430

मालवा का लोक नाट्य माच एवं अन्य विधाएँ / प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

मालवा का लोक नाट्य माच एवं अन्य विधाएँ / सम्पादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 

BOOK ON INDIAN FOLK DRAMA ‘MACH’ BY Prof. Shailendrakumar Sharma 

पुस्तक समीक्षा / BOOK REVIEW
लोक कलाओं का त्रिवेणी संगम: मालवा का लोक-नाट्य माच और अन्य विधाएँ  - डा. पूरन सहगल
लोक नाट्य विधा, लोक की जीवन शैली की अभिन्न अंग है। इसी के माध्यम से लोक अपने मनोभावों को व्यक्त करता है। इसी के माध्यम से वह सामाजिक एवं राजनैतिक विसंगतियों की ओर लोक का ध्यान आकर्षित करता है तथा इसी के माध्यम से ही वह अपने मन-मस्तिष्क की थकान भी उतारता है। नाट्य विधा की ही एक सशक्त लोक विधा ‘माच’ है। मालवा, मेवाड़ और हाड़ौती अंचल में माच का ठाठ एक जैसा ही रहा है। माच और उसके खेल आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उसके उद्भव के समय थे। लोक की रूझान का यह आज भी चहेता है। लोक-नाट्य माच की परंपरा युग की स्थितियों-परिस्थितियों के कारण थोड़ी सी रुकी अवश्य है, झुकी नहीं है।

माच धारदार तेवर, इसका फड़कता हुआ अभिनय, इसकी ऊँची तरंगों वाली तानें, इसके साज़ और साजिंदों की जीवंतता, इसके अभिनीत नाट्य प्रसंग, इसकी अनूठी नाट्य-शैली और इसका सामाजिक सरोकार कभी भी अप्रासंगिक नहीं हुए और न होंगे।  जब भी कहीं सूचना मिलती है कि माच का खेल होने वाला है, लोग दूर-दूर से पहुँच जाते है, उसी उमंग और उत्साह के साथ। यह उमंग ठीक वैसी ही होती है जैसे कोई आत्मीयजन बहुत दिनों बाद गाँव लौटा हो।

नाट्य समीक्षक डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने माच की इस महत्ता को समझा और अद्भुत रूप से रचनाएँ एकत्रा कर एक ग्रंथ हमारे हाथों में सौंप दिया। एक ही विषय पर समग्र दृष्टिकोणों से रचनाएँ लिखवाना बहुत कठिन होता है। इससे भी कठिन होता है समयावधि में रचनाएँ लिखवाकर प्राप्त कर लेना और सबसे कठिन होता है विषय के प्रामाणिक विद्वानों को खोज निकालना। डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने यह कठिन कार्य किया और उसकी सफलता के प्रमाण स्वरूप हाल ही में प्रकाशित ग्रंथ ‘मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ’ हमारे सामने है। इस ग्रंथ के संकलन एवं संपादन में जितना श्रेय संपादक डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा, सहयोगी संपादक डा. जगदीशचन्द्र शर्मा और प्रबन्ध संपादक श्री हफीज़ खान को है, उतना ही इसके रचनाकारों का भी है।

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ Book of Shailendra Kumar Sharma


मैं इस पुस्तक को अपने लिए विशिष्ट पुरस्कार मानता हूँ। माच पर लिखने के लिए मैं वर्षों से सोचता रहा। मैं डा. शिवकुमार मधुर से थोड़ा आगे दो पाँवटे इस पथ पर रखना चाहता था। डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने मेरा सपना साकार कर दिया। हाथ लगते ही मैंने यह पुस्तक अपनी एक यात्रा के दौरान पढ़ी। ऐसा लगा मानो डा. शैलेन्द्र जी ने अनायास ही एक शोध-प्रबंध पूरा कर दिया हो। सामूहिक भागीदारी से एक सम्पूर्ण शोध-प्रबंध लिखने का यह एक सफल प्रयोग है।

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा के इस संपादन की अन्य विशेषताओं के अलावा सबसे बड़ी विशेषता है, लोक-नाट्य की सभी समकालीन विधाओं पर चर्चा करवाते हुए लोकनाट्य माच के समस्त पहलुओं - प्रसंगों पर सार्थक एवं शोधपरक चर्चा करवा लेना। इसमें उन्होंने समग्र मालवा-निमाड़ और मेवाड़ को तो शामिल किया ही है, हाड़ौती (राजस्थान) को भी प्रतिनिधित्व दिया है। इस प्रकार डा. शर्मा ने तीन क्षेत्रों की लोक-संस्कृति का एक त्रिवेणी संगम तो स्थापित किया ही है, लोकनाट्य, लोक चित्रावण एवं लोक-नृत्यों पर शोधपरक लेख शामिल कर दोहरा त्रिवेणी तीर्थ स्थापित करते हुए लोक-संस्कृति को सहज भाव से सशक्त, समर्थ एवं संवेदित कर इसकी अनश्चेतना को पूर्णतः उमंगित और आलोडि़त कर दिया है।

मेवाड़ के देवीलाल सामर और डा. महेन्द्र भानावत तथा निमाड़ वसंत निरगुणे जिन्होंने लोक-नाट्य को भली-भाँति जाना, समझा और खेला है तथा संवार कर उसे ऊँचाइयों का मुकाम दिया है। इस संग्रह को उनके लेखन का मार्गदर्शन मिलना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मेवाड़ से यात्रा शुरूकर पूरे अरावली को लाँघते हुए जावद, सिंगोली, रतनगढ़, नीमच, मनासा, मंदसौर, मल्हारगढ़, भानपुरा होते हुए तथा बीच में अनेक पड़ावों पर माच के ठाठ को सहेजते हुए डाॅ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा भोपाल, शाजापुर से वापिस उज्जैन लौटे हैं। मालवा की एक वृत्ताकार यात्रा कर डाॅ. शर्मा ने जिस मनोयोग और दूरदर्शिता का परिचय दिया है। इससे उन्होंने अपने शोधार्थियों को तो प्रेरित किया ही है, अपनी सुविचारित कार्य योजना और प्रबुद्ध वर्ग केे सहयोग को भी सार्थक कर दिया है।

माच के विषय बल्कि लोक-नाट्यों के विषय में डा. शिव चौरसिया की चिंता कितनी सटीक है कि ‘‘आधुनिक युग में विज्ञान द्वारा उपलब्ध करवाए अनेक अति आधुनिक साधनों के कारण लोकनाट्य में सामाजिक रुचि कम हुई है।’’ - (मालवी लोक-नाट्य माच) इसके अलावा लोक नाट्यों के प्रति उपेक्षा का कारण समय की बेतहाशा भागम-भाग भी है। किसी के भी पास इतना समय नहीं है कि वह लोकमंच के सामने बैठकर थोड़ा-सा मनोरंजन कर ले। वह तो इतना तेज भाग रहा है कि उसे अपने जीवन या पारिवारिक सरोकारों तक का भी भान नहीं है।

इस सचाई के बावजूद माच केवल मनोरंजन का ही साधन नहीं है। उसमें लोक-संस्कृति के विविध रंगों का आभास हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इस बात की पुष्टि माच-रंग के मर्मज्ञ विद्वान डा. शिवकुमार ‘मधुर’ ने अपने लेख ‘माच में प्रतिबिंबत लोक संस्कृति के विविध रंग’ में बहुत ही अदब से कही है।

लोक की अन्तश्चेतना, अन्तःअनुभूत और अन्तःआलोड़न की कहानी का क्रमबद्ध इतिहास लोक-संस्कृति में समाहित है। माच-साहित्य उसी लोक-संस्कृति का एक हिस्सा है। इसलिए उसमें लोक-संस्कृति की धड़कनें विद्यमान हैं। मालवा की लोक-संस्कृति का अंकन माच की रचनाओं में प्रयासजन्य न होकर सहज भाव से हुआ है। वैसे तो समग्र लोक-साहित्य का सृजन ही लोक आराधना का प्रतिफल है। माच में विशेष भाव विहवलता, विविधता और विचित्राता निहित रहती है। वह सबसे अलग है। स्वयं डाॅ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने अपने लेख ‘सामाजिक समरसता में माच की भूमिका’ में यह स्वीकारा है कि सामाजिक समरसता, धार्मिक सहिष्णुता, लोक मंगल की कामना, समतामूलक समाज की अवधारणा तथा सामाजिक न्याय की स्थापना के साथ-साथ सामाजिक रूढि़यों पर करारी चोट करने की क्षमतावान अभिव्यक्ति जितनी माच के खेलों में निहित है, उतनी अन्य किसी भी विधा में नहीं है।

डा. जगदीशचन्द्र शर्मा का आलेख ‘माच: प्रेरणा और उद्भव’ डा. श्यामसुंदर निगम का लेख ‘मालवा का लोक नाट्य माचः  एक दृष्टि’ या नरहरि पटेल का लेख ‘मालवी माच पर चिंतन’, अशोक वक्त का लेख ‘माच उर्फ शबे मालवा में थिरकती संस्कृति’ झलक निगम का ‘ढोलक तान फड़क के’ जैसे लेख माच की परंपरा और उसके महत्त्व को स्थापित करने के लिए महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों की तरह सहेजने योग्य हैं।

डा. प्यारेलाल श्रीमाल ‘सरस पंडित’ का महत्त्वपूर्ण गवेषणात्मक आलेख ‘प्रभावी लोक नाट्य माच और उसका संगीत’, डा. धर्मनारायण शर्मा का लेख’ संस्कृति एवं धार्मिक समन्वय के क्षेत्रा में ‘तुर्रा-किलंगी सम्प्रदायों का योगदान’, डा. पूरन सहगल का आलेख’ दशपुर मालवांचल में माच की परपंरा’, श्री ललित शर्मा का लेख ‘झालावाड़ की माच परंपरा’ जैसे आलेख माच के सामाजिक सरोकारों को तो प्रमाणित करते ही हैं, माच के सांस्कृतिक अवदानों की भी पुष्टि करते हैं।

तीन आलेख माच की लोक शैली, और प्रदर्शन शैली तथा माच के दर्शन संबंधी इस संग्रह में हैं, यदि ये न होते तो इनके बिना बात अधूरी रह जाती। सिद्धदेश्वर सेन का लेख ‘मालवा की माच परंपरा और कलाकार’, डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित का लेख ‘माच का दर्शन’ और स्वयं डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का लेख ‘लोक नाट्य माच: प्रदर्शन शैली और शिल्प’ जैसे लेखों में कई पूर्वाग्रहों और विसंगतियों पर विराम चिह्न लगाने का सटीक एवं सशक्त प्रयास किया गया है।

डाॅ. भगवतीलाल राजपुरोहित का लेख ‘मालवा की चित्राकलाः शैलचित्रों से चित्रावण तक’, बसंत निरगुणे का लेख ‘मालवा-निमाड़ एवं अन्य अंचलों में पारंपरिक लोकचित्रा’, डा. लक्ष्मीनारायण भावसार का लेख ‘मालवा में चित्रावण विधा’ के साथ-साथ डा. आलोक भावसार का लेख ‘मालवा की लोक संस्कृति और लोक विधाएँ ’ एवं कृष्णा वर्मा का लेख ‘मालवा की लोक कला मांडना और संजा’ एवं डा. विवेक चैरसिया का लेख, ‘धन है मनक जमारो’ सब मिल-जुलकर मालवा की लोक चित्राशैली, चित्रावण, भित्ति चित्रा, पट्टचित्रा तथा लोक माँडनों में निहित सांस्कृतिक तथा कला परंपरा पर ऐसे शोधपरक आलेख हैं, जिनके मार्ग निर्देशन में कई शोध गोखड़े उद्घाटित होते हैं।

मालवा के लोक नृत्यों पर डा. पूरन सहगल का लेख ‘मालवा में प्रदर्शनकारी कलाओं का ठाठ’ आदिवासी एवं नृत्य संस्कृति पर सहज चर्चा करने का एक प्रयत्न तो है ही यह लोक नृत्यों पर शोध की प्रेरणा का स्रोत भी है। मालवा के लोकनृत्यों और नृत्याभिनयों पर हमें लोक नृत्य विशेषज्ञा डा. विजया खड़ीकर से कुछ आगे सोचने की दृष्टि प्रदान करता है।

श्री राजेन्द्र चावड़ा का लेख ‘माच और काबुकी, रमाकांत चौरडि़या का लेख ‘मालवी हीड़ लोक काव्य’ तथा  डा. धर्मेन्द्र वर्मा का लेख ‘मालवा की लुप्त होती लोक विधा ‘बेकड़ली’ ने हमारा ध्यान लुप्त होती जा रही इन महत्त्वपूर्ण लोक कलाओं की ओर आकृष्ट किया है। ये तीनों लेख हमें अपनी विलुप्त होती जा रही लोक कलाओं और विधाओं की रक्षा-सुरक्षा के प्रति पूरी जिम्मेदारी से चेतमान करते हैं।

इसी प्रकार आदिवासी लोक कलाओं तथा लोक नाट्यों पर एक-दो लेख इस संग्रह में यदि होते तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात होती। बसंत निरगुणे ने अपने आलेख में आदिवासी लोक चित्रावण पर चर्चा की है। इसमें भी यदि वे आदिवासी आनुष्ठानिक चित्रावण ‘पिथौरा’ व लोक देवता (नायक) ‘राय पिथौरा’ पर भी कुछ लिखते तो अधिक उपयुक्त होता । आदिवासी संस्कृति एवं उनके लोक नाट्यों पर उन्हें पूर्णतः विशेषज्ञता प्राप्त है। इसका लाभ वे इस संग्रह को दे सके होते तो संग्रह की सम्पन्नता एवं समग्रता परिपुष्ट हो जाती। पंकज आचार्य ने ‘‘बाल माच प्रदर्शन और लोक-संस्कृति संरक्षण की कोशिशें’’ लेख में बाल अभिनय और बाल नृत्यों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया हैं, किन्तु वे ‘फूंदी फटाका’ बालनृत्य का घूमर क्यों भूल गए वे ही जानें।

आज जरूरत इस बात की है कि लोक नाट्य की अन्य लोक विधाओं से तुलनात्मक अध्ययन करते हुए मालवा की सीमावर्ती लोक सांस्कृतिक परंपराओं को दृष्टि में रखकर समग्र अनुशीलन हो। ‘मालवा का लोक नाट्य माच और अन्य विधाएँ’ में इन सब शोधपरक संभावनाओं के सूत्रा उपलब्ध हैं। माच का वर्तमान परिदृश्य में युगानुरूप कितना और किस प्रकार उपयोग हो सकता है, उसे विखंडित होते हुए पारिवारिक संदर्भों, विचलित होते हुए सामाजिक मानकों और भ्रष्ट होते हुए राजनैतिक विभ्रमों से जोड़ते हुए नवीन दृष्टि प्रदान करना होगी। स्वच्छंद होती हुई सभ्यता के अश्व को संयमित करने के लिए उसके हाथों में संस्कृति का चाबुक थमाना होगा। अभी भी माच के संदर्भ में विशद सर्वेक्षण होना शेष है ठीक वैसा ही सर्वेक्षण जैसा नीमच के सुरेन्द्र शक्तावत ने अपने लेख ‘नीमच की माच परंपरा’ के अन्तर्गत किया है। इतना श्रम और इतनी लगन हम सबको करना होगी, तब जाकर डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का यह प्रयास सुफलित हो पाएगा। इतने महत्त्वपूर्ण शोधपरक कार्य के लिए एवं सुव्यवस्थित सम्पादन के लिए वे बधाई के  हकदार तो हैं ही।


पुस्तक का नाम - मालवा का लोकनाट्य माच और अन्य विधाएँ
सम्पादक - डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रकाशक - अंकुर मंच, उज्जैन
प्रथम संस्करण 2008 ई., मूल्य 100/-रु., पृ. 208 (सचित्र)


20200428

हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य / संपादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य / संपादक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

संपादकीय के अंश :
भारतीय परंपरा ज्ञान की सर्वोपरिता पर बल देती है। गीता का कथन है, नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते, ज्ञान से बढ़कर मन, वचन और कर्म को पवित्र करने वाला कोई दूसरा तत्त्व नहीं है। ज्ञानार्जन के माध्यम से ही मानव व्यक्तित्व का निर्माण संभव होता है, जो परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व जीवन में प्रतिबिंबित होता है। सच्ची शिक्षा मनुष्य को अंतरबाह्य बंधनों से मुक्त करती है। संकीर्ण दृष्टिकोण को त्यागकर व्यक्ति का दायरा बढ़ने लगता है। उसे सारा संसार एक परिवार जैसा दिखाई देने लगता है। वसुधैव कुटुंबकम् का संदेश यही है, जो सुदूर अतीत से वर्तमान तक भारतीय संस्कृति का प्रादर्श बना हुआ है। कथित विकास और उपभोग के प्रतिमान हमारी शाश्वत मूल्य दृष्टि और पर्यावरणीय संतुलन के समक्ष चुनौती पैदा कर रहे हैं। ऐसे में मानवीय संबंधों में भी दरार आना स्वाभाविक है। ये समस्याएं जितनी सामाजिक और आर्थिक हैं, उससे ज्यादा मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और मूल्यपरक हैं।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के संबंधों को लेकर नई सजगता जरूरी है, जिससे जीवन में सकारात्मकता लाने के साथ मानव व्यक्तित्व के निर्माण में सहायता सम्भव हो। परिवार और समाज किसी भी राष्ट्र के लिए स्नायु तंत्र की भूमिका निभाते हैं। बिना पारस्परिक अवलम्ब, प्रेम और सद्भाव के राष्ट्र और विश्व जीवन नहीं चल सकता है। इसी दृष्टि से भाषा शिक्षण के साथ नैतिक मूल्यों और भावनाओं के विस्तार के लिए प्रयास जरूरी हैं। नैतिकता ही वह पथ है, जिसके माध्यम से समाज में आपसदारी, विश्वास और भयमुक्त जीवन के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। ऐसा कोई व्यवसाय नहीं है, जिसमें नैतिक मूल्यों की पहचान और निर्वाह आवश्यक न हो।
भारतीय दर्शन जीवन का परम लक्ष्य सुख मानता है, किंतु यह सुख स्थूल ऐन्द्रिय सुख नहीं है। उसे मुक्ति या मोक्ष अथवा निर्वाण के साथ संबद्ध किया गया है। इसीलिए नैतिक मूल्यपरक आचरण की अनिवार्यता हमारी चिंतन धारा के केंद्र में है और वह सार्वभौमिक मूल्यों तक विस्तार ले लेती है। भूमंडलीकरण और सूचना - संचार क्रांति के दौर में शिक्षा के साथ नैतिक मूल्यों की इस विचार – शृंखला का समन्वय अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा मनुष्य को यंत्रवत् होने से रोका नहीं जा सकेगा।
इस पुस्तक में इसी दृष्टि से हिंदी के पुरोधा रचनाकारों की महत्त्वपूर्ण रचनाएं समाहित की गई हैं। महाकवि जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, सरदार पूर्ण सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, स्वामी विवेकानंद, स्वामी श्रद्धानंद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, रामधारीसिंह दिनकर, शरद जोशी आदि की विषयानुरूप रचनाओं के समावेश के साथ हिंदी व्याकरण के प्रमुख पक्षों को स्थान दिया गया है। विद्यार्थियों के संप्रेषण कौशल और भाषिक संपदा में श्री वृद्धि हो इस बात को दृष्टिगत रखते हुए पर्याप्त सामग्री संजोई गई है।
- प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
Shailendrakumar Sharma

शैलेंद्रकुमार की पुस्तक हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य Book of Shailendra Kumar Sharma

20200426

हिंदी कथा साहित्य / संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा | Hindi Fiction - Prof. Shailendra Kumar Sharma

हिंदी कथा साहित्य / संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा

पुस्तक चर्चा 

हिंदी कथा साहित्य की भूमिका और संपादकीय के अंश :
किस्से - कहानियों, कथा - गाथाओं के प्रति मनुष्य की रुचि सहस्राब्दियों पूर्व से रही है, लेकिन उपन्यास या नॉवेल और कहानी या शार्ट स्टोरी के रूप में इनका विकास पिछली दो सदियों की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। हिंदी में नए रूप में कहानी एवं उपन्यास  विधा का आविर्भाव बीसवीं शताब्दी में हुआ है। वैसे संस्कृत का कथा - साहित्य अखिल विश्व के कथा - साहित्य का जन्मदाता माना जाता है। लोक एवं जनजातीय साहित्य में कथा – वार्ता की सुदीर्घ परम्परा रही है। इधर आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य का विकास संस्कृत - कथा - साहित्य अथवा लोक एवं जनजातीय कथाओं की समृद्ध परम्परा से न होकर, पाश्चात्य कथा साहित्य, विशेषतया अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव रूप में हुआ है।  कहानी कथा - साहित्य का एक अन्यतम भेद और उपन्यास से अधिक लोकप्रिय साहित्य रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना - सुनना मानव का स्वभाव बन गया। सभी प्रकार के समुदायों में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में तो कहानियों की सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा रही है। वेद - उपनिषदों में वर्णित यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी, सनत्कुमार-नारद, गंगावतरण, नहुष, ययाति, नल-दमयन्ती जैसे आख्यान नए दौर की कहानी के पुरातन रूप हैं।


आधुनिक सभ्यता में उपन्यास और कहानी ने अपनी खास जगह बना ली है। इसके मुख्य कारण हैं, व्यापक लोक चेतना का उदय, प्रजातंत्र के प्रति गहरा रुझान,  जीवन के साथ साहित्य की प्रखर अंतर्क्रिया और युग - परिवेश से गहन संपृक्ति। भारतीय संदर्भ में भी उपन्यास और कहानी की विकास यात्रा इन्हीं कारकों की उपस्थिति को प्रत्यक्ष करती है।

निरंतर बदलते यथार्थ, नवीन संवेदनाओं और परिवेशगत बदलाव को हिन्दी के अनेक कथाकारों ने नित नूतन कलेवर और कथा शिल्प के माध्यम से प्रत्यक्ष किया है। गाँव – नगर और महानगर से लेकर भूमंडलीकरण और बाजारवाद तक व्यापक आयामों को समाहित करते हुए हिन्दी कथा साहित्य का पाट निरंतर चौड़ा हो रहा है। हाल के दशकों में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के बीच हाशिये के समुदायों की चिंता का स्वर कथाकारों के व्यापक सरोकारों को प्रत्यक्ष कर रहा है।   
   
इस पुस्तक में हिंदी कहानी की विकास यात्रा, विविधविध धाराओं और प्रमुख रचनाकारों की पड़ताल के साथ  प्रतिनिधि कहानियों का समावेश किया गया है। इनमें जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, उषा प्रियंवदा, भीष्म साहनी और अमरकांत उल्लेखनीय हैं। इनके साथ ही अमृतलाल नागर, यशपाल, फणीश्वरनाथ रेणु, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती, मालती जोशी एवं चित्रा मुद्गल के अवदान पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। हाल ही में प्रकाशित इस पुस्तक में इक्कीसवीं सदी के कथा साहित्य में आए नए मोड़ों की पड़ताल भी की गई है।


प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma
पुस्तक : हिंदी कथा साहित्य
प्रकाशक : मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल
प्रकाशन वर्ष 2020 ई.

शैलेंद्रकुमार शर्मा की पुस्तक हिंदी कथा साहित्य Book of Shailendra Kumar Sharma



हिंदी कथा साहित्य / संपादक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा - Bekhabaron ki khabar - बेखबरों की खबर  - https://bkknews.page/article/hindee-katha-saahity-sampaadak-pro-shailendr-kumaar-sharma/zS7Wu0.html

20200424

कबीर वाणी में रावण का अंत

रावणान्त : कबीर वाणी में
प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा 
इक लख पूत सवा लख नाती।
तिह रावन घर दिया न बाती॥
- - - - - - - - - - - - - - - -

लंका सा कोट समुद्र सी खाई।
तिह रावन घर खबरि न पाई।

क्या माँगै किछू थिरु न रहाई।
देखत नयन चल्यो जग जाई॥

इक लख पूत सवा लख नाती।
तिह रावन घर दिया न बाती॥

चंद सूर जाके तपत रसोई।
बैसंतर जाके कपरे धोई॥

गुरुमति रामै नाम बसाई।
अस्थिर रहै कतहू जाई॥

कहत कबीर सुनहु रे लोई
राम नाम बिन मुकुति न होई॥

मैं (परमात्मा से दुनिया की) कौन सी चीज चाहूँ? कोई भी चीज सदा रहने वाली नहीं है; मेरी आँखों के सामने सारा जगत् चलता जा रहा है।

जिस रावण का लंका जैसा किला था, और समुद्र जैसी (उस किले की रक्षा के लिए बनी हुई) खाई थी, उस रावण के घर का आज निशान नहीं मिलता।

जिस रावण के एक लाख पुत्र और सवा लाख पौत्र (बताए जाते हैं), उसके महलों में कहीं दीया-बाती जलता ना रहा।

(ये उस रावण का वर्णन है) जिसकी रसोई चंद्रमा और सूरज तैयार करते थे, जिसके कपड़े बैसंतर (वैश्वानर अग्नि) धोता था (भाव, जिस रावण के पुत्र - पौत्रों का भोजन पकाने के लिए दिन-रात रसोई तपती रहती थी और उनके कपड़े साफ करने के लिए हर वक्त आग की भट्ठियाँ जलती रहती थीं)।

अतः जो मनुष्य (इस नश्वर जगत् की ओर से हटा कर अपने मन को) सतगुरु की मति ले कर प्रभु के नाम में टिकाता है, वह सदा स्थिर रहता है, (इस जगत् माया की खातिर) भटकता नहीं है।

कबीर कहते हैं – सुनो, हे जगत के लोगो! प्रभु के नाम स्मरण के बिना जगत से मुक्ति सम्भव नहीं है।



कबीर वाणी में वर्णित रावण संबंधी प्रसंग बहुअर्थी हैं। लंका का अधिपति राक्षसराज रावण परम ज्ञानियों में से एक माना गया है। उसकी शिव उपासना एवं शिव को शीश अर्पित करके इष्ट फल की प्राप्ति की कथा लोक में बहुत प्रसिद्ध है। अपनी वासना, लोभ, मोह और अहंकार के कारण उसने रघुकुलनंदन राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया, जो अंततः उसके विनाश का कारण बना। इस प्रकार रावण का व्यक्तित्व रचनाकारों के लिए विकारों के दुष्परिणामों को चित्रित करने के लिए महत्त्वपूर्ण रहा है।
 
संत नामदेव के शब्दों में

सरब सोइन की लंका होती रावन से अधिकाई ॥
कहा भइओ दरि बांधे हाथी खिन महि भई पराई ॥
 
संत कबीर जीव को काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार जैसे विकारों से बचने का निरंतर उपदेश देते हैं। उनके समक्ष रावण जैसे परम ज्ञानी का अपने इन्हीं विकारों के कारण ध्वस्त होने का उत्तम उदाहरण है। कबीर रावण द्वारा जीव को मृत्यु की शाश्वतता का संकेत करते हुए उसे इन विकारों का त्याग करते हुए सद्पंथ पर चलने और ईश्वर की शरण में जाने का सन्देश देते हैं,

असंखि कोटि जाकै जमावली, रावन सैनां जिहि तैं छली।
ना कोऊ से आयी यह धन, न कोऊ ले जात।
रावन हूँ मैं अधिक छत्रपति, खिन महिं गए वितात।

कबीर ने अपने इष्ट के लिए लोक-प्रचलित विविध अवतारी नामों का प्रयोग भी किया है, जिसका मुख्य उद्देश्य निर्गुण मत का प्रचार करना ही रहा है। कबीर ने रावण-प्रसंग में अपने इष्ट के लिए विशेषतः 'राम' शब्द का प्रयोग इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही किया है ।

एक हरि निर्मल जा का आर न पार 

लंका गढ़ सोने का भया । मुर्ख रावण क्या ले गया।
कह कबीर किछ गुण बिचार । चले जुआरी दोए हथ झार । 
मैला ब्रह्मा मैला इंद । रवि मैला मैला है चंद । 
मैला मलता एह संसार । एक हरि निर्मल जा का अंत ना पार । 
रहाऊ मैले ब्रह्मंड के ईस । मैले निस बासर दिन तीस । 
मैला मोती मैला हीर । मैला पउन पावक अर नीर ।
मैले शिव शंकरा महेस । मैले सिद्ध साधक अर भेख ।
मैले जोगी जंगम जटा सहेत । मैली काया हंस समेत ।
कह कबीर ते जन परवान । निर्मल ते जो रामहि जान ।

कबीर जी कहते हैं - सोने की लंका होते हुए भी मूर्ख रावण अपने साथ क्या लेकर गया ? अपने गुण पर कुछ विचार तो करो । वरना हारे हुए जुआरी की तरह दोनों हाथ झाड कर जाना होगा । ब्रह्मा भी मैला है । इंद्र भी मैला है । सूर्य भी मैला है। चाँद भी मैला है । यह संसार मैले को ही मल रहा है। अर्थात मैल को ही अपना रहा है । एक हरि ही है - जो निर्मल है । जिसका न कोई अंत है । और न ही उसकी कोई पार पा सकता है । ब्रह्मांड के ईश्वर भी मैले हैं । रात दिन और महीने के तीसों दिन मैले हैं । हीरे जवाहरात मोती भी मैले हैं । पानी हवा और आकाश भी मैले हैं । शिव महेश भी मैले हैं । सिद्ध लोग साधना करने वाले और भेष धारण करने वाले भी मैले हैं । जोगी जंगम और जटाधारी भी मैले हैं । यह तन हंस भी बन जाए । तो भी मैला है । कबीर कहते हैं - केवल वही कबूल हैं, जिन्होंने राम जी को जान लिया है ।

रावण रथी विरथ रघुवीरा : गोस्वामी तुलसीदास ने रावण के रथ के वैपरीत्य में विरथ श्री राम के रथ का आकल्पन किया है जिसके गहरे अर्थ हैं।

रावण रथी विरथ रघुवीरा। देख विभीषण भयऊं अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित स्नेहा।।
नाथ ना रथ नहीं तन पद त्राना। केहि विधि जीतब वीर बलवाना।।
सुनहुं सखा कह कृपा निधाना। ज्यों जय होई स्यंदन आना।।
सौरज धीरज तेहिं रथ चाका। बल विवेक दृढ ध्वजा पताका।।
सत्य शील दम परहित घोड़े। क्षमा दया कृपा रजु जोड़े।।
ईस भजन सारथि सुजाना। संयम नियम शील मुख नाना।।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा। यही सम कोउ उपाय ना दूजा।।
महाअजय संसार रिपु, जीत सकहि सो वीर।
जाके अस बल होहिं दृढ, सुनहुं सखा मतिधीर।।

शौर्य और धीरज उस विजय रथ के चक्के हैं। बल, विवेक और दृढ़ता ध्वज पाताका हैं। सत्य, शील, दम और परहित चार घोड़े हैं और क्षमा, दया, कृपा त्रिगुण रस्सियां हैं। ईश्वर भजन उस रथ का सारथी है। संयम, नियम, शील आदि सहायक हैं। विप्र जनों और गुरुओं की पूजा हमारा अभेद्य कवच है। जिस वीर के पास ये सब है, उसे संसार का कोई भी योद्धा जीत नहीं सकता है।

अंततः विजय श्रीराम की हुई ...

💐

सृष्टि का कोई भी कण अछूता नहीं है शक्ति से – प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी में हुआ शक्ति आराधना के प्रतीकार्थ और चिंतन पर गहन मंथन
नवरात्रि पर्व और विजयदशमी की आत्मीय स्वस्तिकामनाएँ 

------ 
रावणान्त : कबीर वाणी में - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा Shailendrakumar Sharma 
परमात्मा से दुनिया की कौन सी चीज चाहूँ? कोई भी चीज सदा रहने वाली नहीं है; मेरी आँखों के सामने सारा जगत् चलता जा रहा है। जिस रावण का लंका जैसा किला था और समुद्र जैसी किले की रक्षा के लिए बनी हुई खाई थी, उस रावण के घर का आज निशान नहीं मिलता।


यूट्यूब लिंक

https://youtube.com/@ShailendrakumarSharma?feature=shared



Shailendrakumar Sharma

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी अध्ययनशाला
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

Featured Post | विशिष्ट पोस्ट

महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : वैचारिक प्रवाह से जोड़ती सार्थक पुस्तक | Mahatma Gandhi : Vichar aur Navachar - Prof. Shailendra Kumar Sharma

महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : पुस्तक समीक्षा   - अरविंद श्रीधर भारत के दो चरित्र ऐसे हैं जिनके बारे में  सबसे...

हिंदी विश्व की लोकप्रिय पोस्ट