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20130313

नई सौंदर्य-दृष्टि से हिन्दी कविता को समृद्ध किया है केदारनाथ सिंह ने

केदारनाथ सिंह: तात्कालिकता से परे की कविताएँ

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 


प्रख्यात कवि श्री केदारनाथ सिंह जी से काफी समय बाद उज्जैन में पिछले दिनों आयोजित 'प्रणति प्रभात' में हुई भेंट यादगार रही थी। वे वाराणसी में मेरे गुरुवर स्व. आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी और दिल्लीवासी समालोचक आचार्य विश्वनाथ त्रिपाठी के साथ बी.एच.यू. में एक ही कक्षा में साथ पढ़े थे। सप्तक काव्य के इस महनीय कवि ने एक नई सौंदर्य-दृष्टि से हिन्दी कविता को समृद्ध किया है। उनकी कवितायें मुझे सदा से प्रभावित करती रही हैं । उनकी रचनाएँ किसी भी प्रकार के आंदोलन या धाराओं के साथ कुछ समय तक चलकर निश्शेष हो जाने वाली रचना नहीं हैं, यही उनकी सबसे बड़ी अर्थवत्ता भी है।
उनके कविता संग्रह ‘बाघ’ से एक रचना का आनंद लीजिये 'इस विशाल देश के'...
इस विशाल देश के

केदारनाथ सिंह

इस विशाल देश के
धुर उत्तर में
एक छोटा-सा खँडहर है
किसी प्राचीन नगर का जहाँ उसके वैभव के दिनों में
कभी-कभी आते थे बुद्ध कभी-कभी आ जाता था बाघ भी
दोनों अलग-अलग आते थे
अगर बुद्ध आते थे पूरब से तो बाघ क्या
कभी वह पश्चिम से आ जाता था
कभी किसी ऐसी गुमनाम दिशा से जिसका किसी को
आभास तक नहीं होता था
पर कभी-कभी दोनों का
हो जाता था सामना फिर बाघ आँख उठा
देखता था बुद्ध को
और बुद्ध सिर झुका
बढ़ जाते थे आगे
इस तरह चलता रहा।

केदार जी की 'बनारस' शीर्षक रचना अपने आप में अद्भुत है। उसका आस्वाद लीजिये...

बनारस
केदारनाथ सिंह

इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में अगर ध्‍यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तम्भ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे- ऊँचे स्तम्भ आग के स्तम्भ और पानी के स्तम्भ
धुऍं के खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तम्भ किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्‍य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!

श्री केदारनाथ सिंह जी के साथ प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा









केदारनाथ सिंह : जीवन परिचय और रचना संसार

जन्म : सात जुलाई 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गांव में शिक्षा : बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 1956 में हिंदी से एमए, 1964 में पीएचडी नौकरी : कई कॉलेजों में शिक्षण का काम किया। अंत में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए प्रमुख कृतियां 
कविता संग्रह : अभी बिल्कुल नहीं, जमीन पक रही है, यहां से देखो, बाघ, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, तालस्टाय और साइकिल 
आलोचना : कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान, मेरे समय के शब्द, मेरे साक्षात्कार 
संपादन : ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएं, कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका), शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)  सम्मान और पुरस्कार: ज्ञानपीठ पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशान पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, दिनकर पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान तीसरा सप्तक के लोकप्रिय कवि 1959 में प्रकाशित चर्चित कविता संग्रह तीसरा सप्तक के लोकप्रिय कवि केदारनाथ सिंह थे। अज्ञेय ने उनकी कविताओं को इसमें जगह दी थी और वह इसे चर्चा में आए थे। 

चंद्रकांत देवताले की कविता 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता '

चन्द्रकान्त देवताले की चयनित कविताएँ
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा 



साठोत्तरी हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में सुविख्यात श्री चंद्रकांत देवताले जी ने अपना अलग मुहावरा गढ़ा था।  श्री देवताले को उनके कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूँ ' पर साहित्य अकादमी, दिल्ली का वर्ष 2012 का  साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ़, भूखंड तप रहा है, हर चीज़ आग में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय आदि। उनकी प्रसिद्ध कविता 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता ' देखिये।
  
माँ पर नहीं लिख सकता कविता 
माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता

अमर चिऊंटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहां हर रोज चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूं 
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूं

जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूंगफली या मटर के दाने नन्ही हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया

मैंने धरती पर कविता लिखी है
चंद्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता!

- - - - 

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता/ चंद्रकांत देवताले  

तुम्हारी निश्चल आंखें 
चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता 
ईथर की तरह होता है 
जरूर दिखायी देती होंगी नसीहतें 
नुकीले पत्थरों -सी

दुनिया भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वां नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बगीचे की दुनिया में तुम अव्वल हो 
पहली कतार में मेरे लिए

मुझे माफ करना 
मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था 
मेरी छाया के तले ही 
सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी 
तुम्हारी 

अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो 
मैं खुश हूं सोचकर 

कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई !

- - - - - - - - 
औरत / चन्द्रकान्त देवताले

वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,

पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंथ रही है?
गूंथ रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है,

एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को
फटक रही है
एक औरत
वक़्त की नदी में
दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गईं
एड़ी घिस रही है,

एक औरत अनंत पृथ्वी को
अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है,
एक औरत अपने सिर पर
घास का गट्ठर रखे
कब से धरती को
नापती ही जा रही है,

एक औरत अँधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वस्त्र जागती
शताब्दियों से सोयी है,

एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव
जाने कब से
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं।

- - - - - - 

मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए/ चंद्रकांत देवताले 

मेरे होने के प्रगाढ़ अंधेरे को 
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम 
अपने देखने-भर के करिश्मे से 
कुछ तो है तुम्हारे भीतर 
जिससे अपने बियावान सन्नाटे को 
तुम सितार-सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में 

अपने असंभव आकाश में 
तुम आज़ाद चिड़िया की तरह खेल रही हो 
उसकी आवाज की परछाईं के साथ
जो लगभग गूँगा है
और मैं कविता के बंदरगाह पर खड़ा 
आँखें खोल रहा हूँ गहरी धुँध में 

लगता है काल्पनिक खुशी का भी 
अंत हो चुका है 
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी 
तुम फूलों को नोंच रही हो 
मैं यहाँ दुख की सूखी आँखों पर 
पानी के छींटे मार रहा हूँ 

हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद 
जो भी हो 
उड़ रहा हूँ तुम्हारे खनकती आवाज के समुंदर  पर 
हंसध्वनि की तान की तरंगों के साथ 
जुगलबंदी कर रहे हैं 
मेरे फड़फड़ाते होंठ 
याद है न जितनी बार पैदा हुआ 
तुम्हें मैंने बैंजनी कमल कहकर ही पुकारा 
और अब भी अकेलेपन के पहाड़ से उतरकर 
मैं आऊंगी हमारी परछाईयों के ख़ुशबूदार 
गाते हुए दरख्त के पास 
मैं आता रहूँगा उजली रातों में 
चंद्रमा को गिटार-सा बजाऊँगा 
तुम्हारे लिए । 




 प्रो. चंद्रकांत देवताले के साथ प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा


                                               डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
                                               आचार्य एवं कुलानुशासक
                                               विक्रम विश्वविद्यालय
                                                                                              उज्जैन (म.प्र.) 456 010

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