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20161202

भारत के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्कर्ष का प्रतीक सिंहस्थ कुंभ पर्व - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Sinhasth - Kumbh Mahaparv Prof. Shailendra Kumar Sharma

अक्षर वार्ता: सिंहस्थ विशेषांक, संपादकीय

संस्कृति की सत्ता अखंड और अविच्छेद्य सत्ता है किन्तु अलग अलग दृष्टियों से देखने पर वह परस्पर भिन्न दृष्टिगोचर होती है। भारतीयों ने इस अखंड संस्कृति की साधना के लिए अनादि काल से जो यात्रा की है उसे हम भारतीय संस्कृति के नाम से अभिहित करते हैं। सिंधु के आसपास के क्षेत्र से लेकर सुदूर पूर्व तक और हिमालय से लेकर दक्षिण में सेतु तक और यही नहीं काल प्रवाह में देश देशांतर तक फैले भारतवासियों ने जिन जीवन मूल्यों, विचारों, दृष्टियों और नियमों की संरचना, प्रसार और निरंतर उन्नयन किया है, उन्हीं का जैविक सुमेल है भारतीय संस्कृति। युग-युगीन उज्जयिनी अपने समूचे अर्थ में भारत की समन्वयी संस्कृति की संवाहिका है, जहाँ एक साथ कई छोटी-बड़ी सांस्कृतिक धाराओं के मिलन, उनके समरस होने और नवयुग के साथ हमकदम होने के साक्ष्य मिलते हैं। शास्त्र और विद्या की यह विलक्षण रंग-स्थली है। शास्त्रीय और लोक दोनों ही परम्पराओं के उत्स, संरक्षण और विस्तार में उज्जयिनी निरंतर निरत रही है।

भारत में विकसित अनेक दार्शनिक संप्रदायों और पंथों की प्रमुख केन्द्र रही है तीर्थभूमि  उज्जयिनी। सुदूर अतीत से चली आ रही तीर्थाटन की परंपरा मनुष्य को व्यापक सृष्टि के साथ जोड़ने का कार्य करती है। तीर्थयात्रा बाहर के साथ भीतर की भी यात्रा है। इसीलिए पुराणकारों ने सत्य, क्षमा, दान, अन्तःकरण की शुद्धता से सम्पन्न मानसतीर्थ को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है। यदि भीतर का भाव शुद्ध न हो तो यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, शास्त्र का अध्ययन आदि सब अतीर्थ हो जाते हैं। शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध, इस्लाम आदि विविध मतों की दृष्टि से उज्जयिनी का स्थान समूचे भारत के चुनिंदा तीर्थक्षेत्रों में सर्वोपरि रहा है। पुराणोक्त द्वादश ज्योतिर्लिंगों तथा इक्यावन शक्तिपीठों में से एक-एक उज्जैन में ही अवस्थित हैं। ऐसा संयोग वाराणसी, वैद्यनाथ जैसे कुछ तीर्थों के अतिरिक्त दुर्लभ है।
उज्जैन स्थित महाकाल वन शैव उपासना का प्राचीनतम क्षेत्र है। इसी तरह यहाँ शक्ति पूजा की परम्परा के सूत्र पुराण-काल के पूर्व से उपलब्ध होते हैं। प्राचीन गढ़कालिका क्षेत्र में उत्खनन से प्राप्त मृण्मूर्ति पर अंकित बालक लिए माँ से स्पष्ट होता है कि यहाँ मातृदेवी के रूप में शक्ति की उपासना का प्रचलन कम से कम 2200 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हो गया था। उज्जयिनी की मुद्रा में अंकित दो स्त्री आकृति सहित अनेक पुरातत्त्वीय प्रमाण सिद्ध करते हैं कि किसी न किसी रूप में देवी की पूजा यहाँ प्रचलित थी। सुदूर अतीत से चली आ रही शैव, शाक्त, वैष्णव आदि से जुड़ी उपासना की परंपराएँ गुप्त एवं परमार काल तथा अद्यावधि नए नए रूपों में आकार लेती दिखाई देती हैं।

स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड के अनुसार उज्जयिनी में प्रत्येक कल्प में देवता, तीर्थ और औषधि की बीज रूप (आदि रूप) वस्तुओं का पालन होता है। यह पुरी सबका संरक्षण करने में समर्थ है। इसलिए इसका नाम अवन्तीपुरी कहा गया।
   
      देवतीर्थौषधिबीजभूतानां चैव पालनम्।
      कल्पे कल्पे च यस्यां वै तेनावन्ती पुरी स्मृता।

सांस्कृतिक ऐक्य का बोध देने वाले पर्व कुंभ की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है और उसमें उज्जैन के शिप्रा तट पर होने वाले सिंहस्थ महापर्व का अपना विशिष्ट स्थान है। पुराण प्रसिद्ध देवासुर संग्राम और समुद्र मंथन के अनंतर रत्नों का वितरण शिप्रा तट पर स्थित महाकाल वन में हुआ था। शिप्रा लौकिक और अलौकिक दोनों दृष्टियों से आनंदविधान करती है। स्कन्दपुराण के अनुसार स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण और देवतार्चा की दृष्टि से शिप्रा अत्यंत महिमाशाली है। विशिष्ट खगोलीय स्थिति में प्रत्येक बारह वर्ष में यहाँ होने वाला सिंहस्थ इन कार्यों के लिए महत्त्वपूर्ण अवसर देता है।
भारत के धार्मिक-सांस्कृतिक उत्कर्ष के प्रतीक कुंभ पर्व ने पिछली शताब्दियों में अनेक उतार-चढ़ाव के बावजूद एक विराट लोक पर्व के रूप में अपने अस्तित्व को बनाए रखा है। इसमें समय समय पर परिष्कार और बदलाव के सूत्र भी प्रभावकारी रहे हैं। कभी यह शास्त्रोक्त तीर्थ-स्नान और दान-पुण्य का अवसर था। कालान्तर में इसमें विभिन्न सम्प्रदाय के साधु-सन्तों के अखाड़ों की भी सक्रिय भागीदारी होने लगी। मध्यकालीन संकट के दौर में इस पर्व के समक्ष कई चुनौतियाँ भी उभरीं, किन्तु आधुनिक काल तक आते-आते इसमें साधु संतों की व्यापक भागीदारी, राजकीय व्यवस्था और लोक विस्तार इन सभी आयामों में परिवर्तन के सूत्र दिखाई देते हैं। वतर्मान में इस महापर्व ने विश्वप्रसिद्ध विराट मेले का रूप धारण कर लिया है, जिसमें एक साथ लाखों की संख्या में तीथर्यात्रियों और पर्यटकों का सैलाब उमड़ता है। देश-विदेश में कुंभ मेले जैसा दूसरा उदाहरण नहीं है, जो एक साथ धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से प्रेरक हो और अपनी संपूर्णता में लोकमंगल एवं लोकरंजन को सिद्ध करता हो।

पर्वोत्सव परंपरा के मध्य सुमेरु का रूप लिए कुम्भ पर्व एक साथ कई कोणों से विमर्श का अवसर देता है। उज्जैन स्थित विक्रम विश्वविद्यालय ने सिंहस्थ से जुड़े विविध पक्षों को लेकर समग्र दृष्टिकोण से शोध की दिशा में सार्थक पहल की है। इसके अंतर्गत इतिहास, पुरातत्त्व, संस्कृति, साहित्य, समाज, दर्शन, पर्यावरण, अर्थतंत्र आदि के परिप्रेक्ष्य में अनुसंधानपरक अध्ययन का संकल्प लिया है। इसी तरह प्रबंधन, पर्यावरण, सूचना तकनीकी जैसे कई पक्षों से जुड़े संस्थान और अध्येता भी सिंहस्थ का गहन अध्ययन करेंगे। अक्षर वार्ता परिवार ने इस मौके पर मौन तीर्थ सेवार्थ फाउंडेशन एवं राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के सहकार से सार्वभौमिक मूल्यों के प्रसार में साहित्य, संस्कृति और धर्म-अध्यात्म की भूमिका पर अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी का संकल्प लिया है। उज्जयिनी का सिंहस्थ सर्वमंगल के शाश्वत संदेश को चरितार्थ करे, यही आत्मीय कामना है।   


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com                                                           
डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com
अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल 
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन),  डॉ सुधीर सोनी(जयपुर), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ अनिल सिंह, मुम्बई,  मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया(उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई / वाराणसी ), डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)
कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- एल एन यादव, डॉ भेरूलाल मालवीय, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये।
(आवरण: Mohan Bairagi/ Sandip Rashinkar)



20161130

विज्ञान-प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान और संचार के माध्यम के रूप में हिंदी

विज्ञान-प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान एवं संचार का माध्यम बने हिंदी
अक्षर वार्ता: हिंदी विश्व विशेषांक, संपादकीय

ज्ञान मानव विकास का हमराह रहा है। इसी ज्ञान का व्यवस्थित और सुस्पष्ट रूप विज्ञान है। मानव सभ्यता की अविराम यात्रा के आधार में विज्ञान की महती भूमिका है। सुदूर अतीत से होते आ रहे वैज्ञानिक शोध हमारे वर्तमान और भावी जीवन के निर्धारक बनते आ रहे हैं। अनेक शाखा - प्रशाखाओं में विस्तृत विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारे जीवन को सुगम बनाने में महती भूमिका निभा रहे हैं। इस क्षेत्र में होने वाले नित-नए आविष्कारों का लाभ तभी लिया जा सकता है, जब विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से जुड़ा साहित्य हिन्दी सहित सभी जनभाषाओं में सुलभ हो। विशेष तौर पर आम जीवन से जुड़े वैज्ञानिक तथ्य और सूचनाओं को आम व्यक्ति की भाषा में उपलब्ध करवाना जरूरी है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के सहज संचार के लक्ष्य को तभी साकार किया जा सकता है।
इस दिशा में हिन्दी का प्रयोग बढ़ रहा है, किन्तु उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विभिन्न विषयों पर यद्यपि हिन्दी में हजारों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन अधिकांश पुस्तकों में गुणवत्ता का अभाव है। पुस्तकों में स्तरीय सामग्री विरले ही मिलती है। विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक लेखन कम ही हुआ है और संदर्भ ग्रंथ भी नगण्य हैं। लोकप्रिय विज्ञान के लिए लिखा तो बहुत कुछ किया जा रहा है, लेकिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बद्ध सरल - सुबोध साहित्य, जो जन साधारण की समझ में आ सके, ऐसे लेखन की न्यूनता है। जनसंचार माध्यम, विशेष तौर पर समाचार पत्रों में विज्ञान संबंधी सूचनाओं और लेखों का अभाव सा है। इंटरनेट पर आज हिन्दी में विज्ञान और तकनीकी से जुडी गुणवत्तापूर्ण सामग्री अत्यंत सीमित है। इसे विकसित करने की आवश्यकता है। सामान्यतया विषय विशेषज्ञों की हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में लेखन के प्रति रुचि नहीं है। इसके प्रमुख कारण हैं- भाषागत कठिनाई, वैज्ञानिक जगत की घोर उपेक्षा, हिन्दी में लिखे आलेखों, शोधपत्रों को प्रस्तुत करने के लिए मंचों का अभाव, प्रकाशन की असुविधा आदि।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी शिक्षण के लिए आवश्यक वैज्ञानिक एवं तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली का हिन्दी में अब अभाव नहीं है। समस्या तब गहरा जाती है, जब विज्ञान लेखक इनका समुचित उपयोग नहीं करते हैं। यहाँ तक कि तमाम लेखक स्वयं नित नए शब्द गढ़ रहे होते हैं। इस अराजक स्थिति के कारण वैज्ञानिक पुस्तकों की भाषा का मानकीकरण नहीं हो पा रहा है। किसी भी भाषा की शब्दावली कितनी ही समृद्ध क्यों न हो, उसकी सार्थकता व्यवहार से ही हो सकती है। हिन्दी में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विषयक शोधपत्रों और आलेखों को प्रस्तुत करने के लिए अंग्रेजी के समकक्ष विज्ञान मंचों की स्थापना की आवश्यकता है। आज ऐसे राष्ट्रीय मंचों का अभाव है जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनार, सम्मेलन आयोजित कर सकें और विज्ञान के बहुपृष्ठी चित्रात्मक शोधपत्रों का संकलन - प्रकाशन कर सकें। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को सरल भाषा में समझना और समझाना बहुत जरूरी है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार का काम सिर्फ सूचना देना भर  नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि पैदा करना है। इस प्रकार को दृष्टि को जन भाषा में वैज्ञानिक साहित्य को उपलब्ध कराए बगैर विकसित किया जाना सम्भव नहीं है।
राष्ट्र की प्रगति मे तकनीक क्षेत्रों से जुड़े विशेषज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वास्तविक प्रगति के लिये इंजीनियर का राष्ट्र की मूल धारा से जुडा होना अत्यंत आवश्यक है। दूसरी ओर आज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का माध्यम अंग्रेजी बनी हुई है। इस तरह हम अपने वैज्ञानिकों और अभियंताओं पर अंग्रेजी थोप कर उन्हें न केवल जन सामान्य एवं देश के जमीनी यथार्थ से दूर कर रहे हैं, वरन् हम अपने अभियंताओं एवं वैज्ञानिकों को पश्चिम का रास्ता भी दिखा रहे हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि यदि हमने अंग्रेजी छोड दी तो हम दुनिया से कट जाएंगे। किंतु क्या चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस, जापान जैसे देश वैज्ञानिक प्रगति में किसी भी देश से पीछे है। क्या ये राष्ट्र दुनिया से कटे हुये हैं। इन देशों में वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी शिक्षा उनके अपनी राष्ट्रभाषा में होती है। वास्तव में वैश्विक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से संपर्क के लिये केवल कुछ बड़े राष्ट्रीय संस्थानों और केवल कुछ वैज्ञानिकों और अभियंताओं का दायित्व होता है जो उस स्तर तक पहुंचते हुए आसानी से अंग्रेजी सीख सकते हैं। किंतु हम व्यर्थ ही असंख्य विद्यार्थियों को उनके जीवन के कई अमूल्य वर्ष एक सर्वथा नई भाषा सीखने मे व्यस्त रखते हैं। दुनिया के अन्य देशों की तुलना मे भारत से कही अधिक संख्या मे इंजीनियर तथा वैज्ञानिक विदेशों में जाकर बस जाते हैं। इस पलायन का बहुत बड़ा कारण उनका अंग्रेजी में शिक्षण भी है। हिंदी को कठिन बताने के लिये कुछ जटिल और हास्यास्पद उदाहरण दिए जाते हैं, जो व्यर्थ हैं। हिंदी ने सदा से दूसरी भाषाओं को आत्मसात किया है। अतः कई वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्द देवनागरी लिपि में लिखते हुए हिंदी में सहज ही अपनाये जा सकते हैं। अनेक राज्यों की ग्रंथ अकादमियां हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य प्रकाशित करती हैं, किंतु इन ग्रन्थों का उपयोग अपेक्षानुरूप नहीं हो रहा है। यहाँ तक कि इन पुस्तकों के दूसरे संस्करण बहुत कम छप पाते हैं। अधिसंख्य विश्वविद्यालयो में तकनीकी शिक्षा की माध्यम भाषा अंग्रेजी ही है। राष्ट्रभाषा हिंदी राष्ट्रीयता के मूल को सींचती है। विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में यदि हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग राष्ट्र की एकता और अखंडता को मजबूत करेगा, वहीं हम जन - जन में वैज्ञानिक दृष्टि का प्रसार करने में समर्थ होंगे। यही हिंदी भारतीय ग्रामों और नगरों के वास्तविक उत्थान के लिये नये विज्ञान और नई तकनीक का लाभ पहुंचाएगी। भारतेन्दु ने दशकों पहले इस बात का संकेत कर दिया था:
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।
जाहिर है भूमंडलीकरण के दौर में वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र की उपलब्धियों का लाभ तभी लिया जा सकता है, जब हिन्दी को सम्पूर्ण रूप से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के शिक्षण, अनुसंधान एवं संचार का माध्यम बनाया जाएगा।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
प्रधान संपादक
ई मेल : shailendrasharma1966@gmail.com
                                                             
डॉ मोहन बैरागी
संपादक
ई मेल : aksharwartajournal@gmail.com

अक्षर वार्ता : अंतरराष्ट्रीय संपादक मण्डल
प्रधान सम्पादक-प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा, संपादक-डॉ मोहन बैरागी
संपादक मण्डल- डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'(नॉर्वे), श्री शेरबहादुर सिंह (यूएसए), डॉ रामदेव धुरंधर (मॉरीशस), डॉ स्नेह ठाकुर (कनाडा), डॉ जय वर्मा (यू के) , प्रो टी जी प्रभाशंकर प्रेमी (बेंगलुरु) , प्रो अब्दुल अलीम (अलीगढ़) , प्रो आरसु (कालिकट) , डॉ जगदीशचंद्र शर्मा (उज्जैन), डॉ रवि शर्मा (दिल्ली) , प्रो राजश्री शर्मा (उज्जैन), डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर (चीन), डॉ अलका धनपत (मॉरीशस)।
प्रबंध संपादक- ज्योति बैरागी, सहयोगी संपादक- डॉ अनिल सिंह (मुंबई), डॉ मोहसिन खान (महाराष्ट्र), डॉ उषा श्रीवास्तव (कर्नाटक), डॉ मधुकान्ता समाधिया (उ प्र), डॉ अनिल जूनवाल (म प्र ), डॉ प्रणु शुक्ला(राजस्थान), डॉ मनीषकुमार मिश्रा (मुंबई/वाराणसी),  डॉ पवन व्यास (उड़ीसा), डॉ गोविंद नंदाणीया (गुजरात)
कला संपादक- अक्षय आमेरिया, सह संपादक- डॉ भेरुलाल मालवीय, एल एन यादव, डॉ रेखा कौशल, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये।


20161128

जीवन के शाश्वत, किन्तु अनुत्तरित प्रश्नों के बीच कैलाश वाजपेयी की कविता भर्तृहरि : प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

कैलाश वाजपेयी  की कविता: भर्तृहरि
प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
जीवन के शाश्वत, किन्तु अनुत्तरित प्रश्नों के बीच राजयोगी भर्तृहरि से संवाद करती कैलाश वाजपेयी  की इस कविता को पढ़ना-सुनना विलक्षण अनुभव देता है। कैलाश वाजपेयी  (11 नवंबर 1936 - 01 अप्रैल, 2015) अछोर कविमाला के अनुपम रत्न हैं। उनका जन्म हमीरपुर उत्तर-प्रदेश में हुआ। उनके कविता संग्रह ‘हवा में हस्ताक्षर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया था। उनकी प्रमुख कृतियों में 'संक्रांत', 'देहात से हटकर', 'तीसरा अंधेरा', 'सूफीनामा', 'भविष्य घट रहा है', 'हवा में हस्ताक्षर', 'शब्द संसार', 'चुनी हुई कविताएँ', 'भीतर भी ईश्वर' आदि प्रमुख हैं। 

कैलाश वाजपेयी की कविताओं में जहां एक ओर अपने समय और समाज से संवादिता दिखाई देती है, वहीं वे निजी सुख-दुख, हर्ष - पीड़ा के साथ दार्शनिक प्रश्नों को अभिव्यक्ति देते हैं। श्री वाजपेयी ने जहां एक ओर भारतीय दर्शन, इतिहास और पुराख्यानों के साथ वैचारिक रिश्ता बनाया था, वहीं वे पश्चिम से आने वाली चिंतन धाराओं से भी मुठभेड़ करते रहे। 

व्यक्ति और समाज की सापेक्षता को उन्होंने कभी ओझल न होने दिया। वे लिखते हैं-  मेरा ऐसा मानना रहा है कि व्यक्ति और समाज बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद की तरह ओतप्रोत है। रचनाकार व्यक्ति भी है समाज भी। समाज उसे क्या क्या नहीं देता - सभी कुछ समाज की ही देन है, तब भी जहां तक आंतरिकता का प्रश्न है वहां रचनाकार बहुत अकेला है। प्रश्न यह उठता है कि क्या व्यक्ति समाज अथवा विचारधाराओं का साधन मात्र है? तब फिर उसके निजत्व का क्या किया जाए? देखा यह गया है कि विचारधाराएं जाने अनजाने व्यक्ति को एक कठपुतली की तरह नचाने लगती  हैं। परिणाम यह होता है कि रचना के क्षेत्र में स्वतः स्फूर्ति आंतरिक बेमानी होने लगती है। दूसरे दर्जे की कला को अधिक महत्व मिलने लगता है। पंथपरकता अथवा विचारधाराओं ने इस दृष्टि से कलाओं को गंभीर क्षति पहुंचाई है। समाज का अर्थ है पारस्परिक प्रेम संबंध। मगर हम यदि अपने आसपास निगाह दौड़ा कर देखें तो पाएंगे कि हम आपस में तरह-तरह से विभक्त हैं। एक ही समाज में रहते हुए अपने अपने विश्वासों, अपनी धारणाओं के कारण, हर उस व्यक्ति के प्रति विद्वेष रखते हैं जो हमारी मान्यताओं के विपरीत स्वतंत्रचेता है, अपने ढंग से रचना है (संक्रांत की भूमिका से)। जाहिर है कैलाश वाजपेयी की ये चिंताएं आज भी बरकरार हैं।

उन्होंने दिल्ली दूरदर्शन के लिए कबीर, सूरदास, जे कृष्णमूर्ति, रामकृष्ण परमहंस के जीवन पर फिल्में भी बनाई थीं। स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित नाटक 'युवा संन्यासी' उनका प्रसिद्ध नाटक है। उन्हें प्राप्त सम्मानों में उल्लेखनीय हैं- हिंदी अकादमी सम्मान, वर्ष 2000 में एसएस मिलेनियम अवॉर्ड, वर्ष 2002 में प्रतिष्ठित व्यास सम्मान, वर्ष 2005 में ह्यूमन केयर ट्रस्ट अवॉर्ड, वर्ष 2008 में अक्षरम् का विश्व हिन्दी साहित्य शिखर सम्मान आदि। मेरी  प्रिय कविताओं में से एक भर्तृहरि का आस्वाद लीजिए : 


भर्तृहरि / कैलाश वाजपेयी

चिड़ियाँ बूढ़ी नहीं होतीं
मरखप जाती हैं जवानी में
ज़्यादा से ज़्यादा छह-सात दिन
तितली को मिलते हैं पंख
इन्हीं दिनों फूलों की चाकरी
फिर अप्रत्याशित
झपट्टा गौरेया का
एक ही कहानी है
खाने या खाए जाने की
तुम सहवास करो या आलिंगन राख का
भर्तृहरि! देही को फ़र्क नहीं पड़ता
और कोई दूसरी पृथ्वी भी नहीं है

भर्तृहरि! यों ही मत खार खाओ शरीर पर
यही यंत्र तुमको यहाँ तक लाया है
भर्तृहरि! यह लो एक अदद दर्पण
चूरचूर कर दो
प्रतिबिंबन तब भी होगा ही होगा
भर्तृहरि! अलग से बहाव नहीं कोई
असल में हम खुद ही बहाव हैं
लगातार नष्ट होते अनश्वर
अभी-अभी भूख, पल भर तृप्ति, अभी खाद
भर्तृहरि! हममें हर दिन कुछ मरता है
शेष को बचाए रखने के वास्ते
मौसम बदलता है भीतर
भर्तृहरि! तुमने मरता नहीं देखा प्यासा कोई
वह पैर लेता है, आमादा
पीने को अपना ही ख़ून
भर्तृहरि! तुमने मरुथल नहीं देखा
भर्तृहरि समय का मरुथल क्षितिजहीन है
और वहाँ पर ‘वहाँ’ जैसा कुछ भी नहीं
भर्तृहरि! भाषा की भ्रांति समझो
सूर्य नहीं, हम उदय अस्त हुआ करते हैं
युगपत् उगते मुरझते
भर्तृहरि! भाषा का पिछड़ापन समझो
जो भी हैं बंधन में पशु है
निसर्गतः फर्क नहीं कोई
राजा और गोभी में
छाया देता है वृक्ष आँख मूँदकर
सुनता है, धड़ पर, चलते आरे की
अर्रर्र, किस भाषा में रोता है पेड़
भर्तृहरि! तुमने उसकी सिसकी सुनी?

भर्तृहरि! तुम्हीं नहीं, सबको तलाश है
उस फूल की
जो भीतर की ओर खिलता है
भर्तृहरि! लगने जब लगता है
मिला अभी मिला
आ रही है सुगंध
दृश्य बदल जाता है।

(फ़ोटो भरत तिवारी Bharat Tiwari सौजन्य विकिपीडिया)


श्री कैलाश वाजपेयी को 18 अगस्त 2013, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यक्रम में अपनी कविता 'भर्तृहरि' का पाठ करते हुए यूट्यूब पर भी देखा जा सकता है। लिंक है: 
Watch "Bhartrihari भर्तृहरि Poem by Kailash Vajpeyi" on YouTube




20161127

लोक मानस का प्रभावी मंच मालवा का लोक नाट्य माच - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Mach : Effective Folk Theater of Malwa - Prof. Shailendra Kumar Sharma

लोक मानस का प्रभावी मंच मालवा का लोक नाट्य माच - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Mach : Effective Folk Theater of Malwa - Prof. Shailendra Kumar Sharma

भारतीय लोक नाट्य परम्परा की समृद्धि का साक्ष्य देता है माच

डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

भारत के विभिन्न अंचलों में बोली जाने वाली लोक-भाषाएँ राष्ट्रभाषा की समृद्धि का प्रमाण हैं। लोक-भाषाएँ और उनका साहित्य वस्तुतः भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रवाणी के लिए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका जितना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें मिलते रहेंगे। कथित आधुनिकता के दौर में हम अपनी बोली-बानी, साहित्य-संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में जितना विस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-साहित्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोलियाँ अपने ही परिवेश में पराई होने का दर्द झेल रही हैं। इस दिशा में लोकभाषा, साहित्य और संस्कृतिप्रेमियों के समग्र प्रयासों की दरकार है। भारत के हृदय अंचल मालवा ने तो एक तरह से समूची भारतीय संस्कृति को गागर में सागर की तरह समाया हुआ है। मालवा की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभावित हुई हैं और पूरे भारत को मालवा की संस्कृति ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। मालवा भारत का हृदय अंचल है तो इसकी सांस्कृतिक राजधानी है उज्जैन। उज्जैन कला के अधिष्ठाता शिव और सर्व-कला-रत्न श्रीकृष्ण की नगरी है। इसी नगरी को लोक नाट्य माच के जन्म का श्रेय जाता है। आज का मालवा सम्पूर्ण पश्चिमी मध्यप्रदेश और उसके साथ सीमावर्ती पूर्वी राजस्थान के कुछ जिलों तक विस्तार लिए हुए है। इसकी सीमा रेखा के संबंध में एक पारम्परिक दोहा प्रचलित है जिसके अनुसार चम्बल, बेतवा और नर्मदा नदियों से घिरे भू-भाग को मालवा की सीमा मानना चाहिए-
 
इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान। 
दक्षिण दिसि है नर्मदा यह पूरी पहचान।।

मालवा का लोक-साहित्य की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यहाँ का लोकमानस शताब्दी-दर-शताब्दी कथा-वार्ता, गाथा, गीत, नाट्य, पहेली, लोकोक्ति आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता आ रहा है। जीवन का ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जब मालवजन अपने हर्ष-उल्लास, सुख-दुःख को दर्ज करने के लिये लोक-साहित्य का सहारा न लेता हो। भारतीय लोक-नाट्य परम्परा में मालवा के माच का विशिष्ट स्थान है। मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधि लोक नाट्य माच है, जो अपनी सुदीर्घ परम्परा के साथ आज भी लोक मानस का प्रभावी मंच बना हुआ हैं। मालवा के लोकगीतों, लोक-कथाओं, लोक- नृत्य रूपों और लोक-संगीत के समावेश से समृद्ध माच सम्पूर्ण नाट्य (टोटल थियेटर) की सम्भावनाओं को मूर्त करता है। लोकमानस की सहज अभिव्यंजना और लोक रंग व्यवहारों की सरल रेखीय अनायासता से उपजा यह लोकनाट्य लोकरंजन और लोक मंगल के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित है। माच मालवा-राजस्थान के व्यापक जनसमुदाय को आन्दोलित करता आ रहा है। माच शब्द संस्कृत के मंच शब्द का ही परिवर्तित रूप है। माच के नाटकों को खेल कहा जाता है, जो मुक्ताकाशी रंगमंच पर प्रस्तुत किए जाते हैं । संगीत, नृत्य, पाठ, अभिनय और बोलों  की अन्तः क्रिया माच को एक सम्पूर्ण नाट्य या यूँ कहें टोटल थियेटर का रूप दे देती है। माच के खेलों में सामाजिक सद्भाव, परस्पर प्रेम और सहज लोक जीवन के दर्शन होते हैं। माच के दर्शकों में भी एक खास ढंग की रसिकता देखी जा सकती है। इसके दर्शक महज दर्शक नहीं होते, मंच व्यापार में उनकी आपसदारी भी दिखाई देती है। माच के क्षेत्र में उज्जैन में अनेक घराने बने, जिन्होंने अपने-अपने ढंग से माच को नई ऊर्जा, नई गति दी। गुरु गोपाल जी, गुरु बालमुकुन्दजी, भागीरथ पटेल, गुरु रामकिशन जी, गुरु राधाकिशनजी, उस्ताद कालूराम जी, पं. ओमप्रकाश शर्मा, सिद्धेश्वर सेन, फकीरचंद जी, चुन्नीलाल जी, अनिल पांचाल आदि का माच के खेलों के सृजन और मंचन की परम्परा को आगे बढ़ाने में अविस्मरणीय योगदान रहा है। मालवा का माच पुराण, इतिहास और लोकाख्यानों में निहित उच्च आदर्श, प्रणय और लोक मंगल की भावभूमि को समाहित करता आ रहा है। समाज में व्याप्त विसंगतियों और विद्रूपताओं के विरुद्ध माच के खेलों ने लोक के अंदाज में तीखा प्रतिकार किया है। आधुनिक रंगमंच पर भी माच शैली के साथ प्रयोग सामने आ रहे हैं। यह लोकविधा अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखे हुए है।

माच की उत्सभूमि उज्जैन मानी जाती है। लगभग दो सौ से अधिक वर्षों से माच मालवा का प्रमुख लोकनाट्य बना हुआ है। इसके उद्भव और विकास में मालवा की अनेक लोकानुरंजक कला प्रवृत्तियों का योगदान रहा है। मालवा क्षेत्र में प्रचलित गरबी गीत, ढारा-ढारी के खेल, तुर्रा कलंगी, नकल-स्वांग की प्रवृत्ति, गम्मत, हाजरात विद्या आदि को माच के उद्भव एवं विकास में महत्त्वपूर्ण मानने वालों में डा. शिवकुमार मधुर का प्रमुख नाम है। मालवा के इन लोक कला रूपों में अन्तर्निहित तत्त्वों जैसे-नृत्य, गान एवं अभिनय, आध्यात्मिकता, नकल-स्वांग प्रवृत्ति, निर्गुणी भक्ति के तत्त्व, पुरुषों द्वारा स्त्री पात्रों की भूमिका सहित अनेक रंग व्यवहार आदि माच में आज भी मौजूद हैं। डा. मधुर के अनुसार- ढारा-ढारी के खेलों से अभिनय, गर्बा-उत्सव से संगीत, तुर्राकलंगी से काव्य-गायन और स्वांग-नकल प्रदर्शनों से अभिनय, हास-परिहास, चुटीले व्यंग्य एवं जनमनोरंजन के तत्त्व जुटाकर माचकारों ने इस नई रंग शैली को पनपाया।

राजस्थान में प्रचलित ख्याल का प्रभाव भी माच के खेलों में दिखाई देता है। इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डा. रघुवीरसिंह ने ख्यालों को माचों का जनक कहा है। माच की शैली के आरम्भकर्ता गुरु गोपालजी को माना जाता है, जो मूलतः राजस्थान के रहने वाले थे और बाद में मालवा में बस गए थे। ऐसा माना जाता है कि गुरु गोपाल जी ने मालवा क्षेत्र में राजस्थान के ख्याल जैसा कोई नाट्य रूप न पाकर स्थानीय संगीत और लोककला रूपों के समावेश से माच की शुरूआत की, जो परम्परा से क्रमशः परिष्कृत, संरक्षित और संवर्धित होता गया।

माच शब्द का सम्बन्ध संस्कृत मूल मंच से है। इस मंच शब्द के मालवी में अनेक क्षेत्रों में प्रचलित परिवर्तित रूप मिलते हैं। उदाहणार्थ-माचा, मचली, माचली, माच, मचैली, मचान जैसे कई शब्दों का आशय मंच के समानार्थी भाव बोध को ही व्यक्त करता है। माच गुरु सिद्धेश्वर सेन माच की व्युत्पत्ति के पीछे सम्भावना व्यक्त करते हैं कि माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी ने सम्भवतः कृषि की रक्षा के लिए पेड़ पर बने मचान को देखा होगा, जिस पर चढ़कर स्त्री या पुरुष आवाज आदि के माध्यम से नुकसान पहुँचाने वाले पशु-पक्षियों से खेत की रक्षा करते हैं। गुरु गोपालजी ने मचान शब्द को ध्यान में रखा होगा और फिर नाटक-प्रदर्शन के ऊँचे स्थान (मंच) से उसी मचान की आकृति एवं रूप साम्य के आधार पर अपने मंच का नाम माच दे दिया होगा। कालान्तर में यही नाम प्रचलित हो गया। वस्तुतः माच के मंच और मचान में पर्याप्त साम्य रहा है। पुराने दौर में माच का मंच इतना अधिक ऊँचा बनाया जाता था कि उसके नीचे से बैलगाड़ी भी गुजर जाती थी। इन दिनों मंच की ऊँचाई प्रायः सामान्य ही रहती है।

माच के आदि प्रवर्तक गुरु गोपाल जी के अलावा माच परम्परा को गुरु बालमुकुन्दजी, गुरु रामकिशनजी, गुरु भैरवलालजी, गुरु राधाकिशनजी, गुरु कालूरामजी, गुरु फकीरचन्दजी, गुरु शिवजीराम, गुरु चुन्नीलाल, श्री सिद्धेश्वर सेन, श्यामदास चक्रधारी आदि ने आगे बढ़ाया और अनेक खेलों का लेखन एवं प्रदर्शन किया। माच के विभिन्न गुरुओं के बीच नये-नये माच के निर्माण एवं प्रदर्शन की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती थी। विभिन्न माच गुरुओं द्वारा मालवी में रचे गए लगभग सवा सौ अधिक माच के खेल मिलते हैं, जिन्हें डा. मधुर ने सुविधा की दृष्टि से चार भागों में बाँटा है - धार्मिक और पौराणिक कथानक,  शौर्य कथाएँ, प्रेमाख्यान और सामाजिक कथानक।

इन सभी प्रकार के खेलों में जीवन की विभिन्न पहलुओं की अभिव्यक्ति के साथ ही कहीं मानव मन की सुकोमल भावनाओं के रागात्मक सन्दर्भों को व्यक्त किया गया है,तो कहीं साहसी और वीर चरित्रों को, कहीं आध्यात्मिकता की अभिव्यंजना है,तो कहीं सामयिक समस्याओं से टकराने की कोशिश। विविधायामी जीवन सन्दर्भों की अभिव्यक्ति के साथ ही उच्चतम मूल्यों की सिद्धि माच की केन्द्रीय प्रवृत्ति रही है, जो कहीं पौराणिक तो कहीं ऐतिहासिक, कहीं लोक-प्रसिद्ध तो कहीं काल्पनिक चरित्रों के माध्यम से मूर्त होती है।

भारत की समृद्ध नाट्य परम्परा की जीवंतता और निरंतरता को आधार देने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान लोक-नाट्यों का ही रहा है। लोकमानस की अभिव्यंजना के लिए उपलब्ध विविध माध्यमों में से लोक-नाट्य ही अपनी तीव्र रसवत्ता और सहज सम्प्रेषणीयता के भाषागत अन्तर के बावजूद एक अन्तः सूत्र में जुड़े दिखाई देते है। लोकमानस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति इन सारे लोक-नाट्य रूपों को एकसूत्र में जोड़ती दिखाई देती है। यह स्वाभाविक उनकी जटिल बौद्धिकता से विहीन भावात्मकता से उपजती है, जो कथानक, संवाद, गीत-संगीत, नृत्य, प्रदर्शन-शैली, रंग-शिल्प, भाषा आदि सभी स्तरों पर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। इस दृष्टि से मालवा क्षेत्र का लोक-नाट्य रूप माच भारत के अन्य लोक नाट्यों रूपों से अलग नहीं है। उसमें भी वहीं लोकरंजता के अनुकूल संगीत, नृत्यमूलक अभिनय एवं प्रदर्शन के तत्त्व, धार्मिकता के साथ ही सामाजिक, राजनैतिक, लोककथामूलक और प्रेमाख्यानपरक कथानकों की बहुलता तथा शृंगार, वीर, करुण और हास्य रसमूलक अतिरंजित भावप्रवणता और तल्लीनता मौजूद है, जो भारत के अन्य लोकनाट्य रूपों जैसे नौटंकी, ख्याल,भवई,तमाशा, करियाला आदि में मिलते हैं। वस्तुतः इन सभी की सौन्दर्य दृष्टि संस्कृत नाटकों की भांति रसमूलक ही है। इसी तरह इन लोकनाट्य रूपों में वैयक्तिक संघर्ष के स्थान पर व्यक्ति एवं समूह के अन्तः सम्बन्धों की पहचान तथा जीवन की अनेक स्थितियों से गुजरकर एक तरह के संतुलन की दशा  में दर्शकों को ले जाने की प्रवृत्ति मौजूद है, जिसमें कहीं लोकमंगल की सिद्धि होती है तो कहीं कारुणिक अन्त के बावजूद लोकादर्श की स्थापना। माच के प्रवर्तक गुरु गोपालजी (1773-1842 ई.) से लेकर आज तक सृजनरत माचकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने माच के लगभग डेढ़ सौ खेलों का प्रणयन किया है। बीसवीं शती के शुरूआती दशकों में माच ही मालवा का प्रतिनिधि रंगमंच था जिसके प्रदर्शनों में रात-रात भर सैकड़ों दर्शकों की भीड़ जुटी रहती थी। यद्यपि पिछली शताब्दी के ढलते-ढलते माच की लोकप्रियता एवं प्रदर्शनों में कुछ कमी आई है फिर भी इसके संरक्षण  विस्तार और नवाचारी प्रयोगों द्वारा माच गुरुओं ने इसे आज जीवंत बनाए रखा है।


डा. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
प्रोफेसर एवं  हिंदी विभागाध्यक्ष
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.)


माच से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण वीडियो यूट्यूब चैनल पर देखें - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा













                                    









20161126

मध्यप्रदेश के पक्षी : एक विश्वकोशीय कार्य - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Birds of Madhya Pradesh: An Encyclopedic Work - Prof. Shailendra Kumar Sharma

मध्य प्रदेश के पक्षी : एक विश्वकोशीय कार्य - प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा 
Birds of Madhya Pradesh: An Encyclopedic Work - Prof. Shailendra Kumar Sharma

विज्ञान ज्ञान का ही सुव्यवस्थित रूप है। यह मानव सभ्यता की अविराम यात्रा का आधार रहा है। न जाने किस सुदूर अतीत से होती आ रहीं वैज्ञानिक गवेषणाएँ हमारे वर्तमान और भावी जीवन की निर्धारक बनी हैं। अनेकानेक शाखा-प्रशाखाओं में विस्तृत विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारे जीवन को सुगम बनाने में महती भूमिका निभा रहे हैं। इस क्षेत्र में होने वाले नित-नए आविष्कारों का लाभ तभी लिया जा सकता है, जब वैज्ञानिक साहित्य हिन्दी सहित सभी जनभाषाओं में सुलभ हो। विशेष तौर पर आम जीवन से जुड़े वैज्ञानिक तथ्य और सूचनाओं को आम व्यक्ति की भाषा में उपलब्ध करवाना अनिवार्य है। तभी विज्ञान-संचार के लक्ष्य को साकार किया जा सकता है। वरिष्ठ प्राणी वैज्ञानिक डॉ जे पी एन पाठक का हाल ही में प्रकाशित ग्रन्थ ‘मध्यप्रदेश के पक्षी’ अपने अध्ययन क्षेत्र में विश्वकोशीय भूमिका के साथ अवतरित हुआ है। यह महाकाय और बहुरंगी ग्रन्थ डॉ. पाठक की वर्षों की शोध-साधना का साकार प्रतिबिम्ब है। जब विश्वभाषा के रूप में अपनी जगह बनाती हिंदी में विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में स्तरीय ग्रंथों की कमी को लेकर चिंता के स्वर उभरते हों, तब डॉ पाठक का यह ग्रन्थ एक नई ज़मीन तैयार करता है।

डॉ पाठक ने सही अर्थों में मशहूर पक्षी वैज्ञानिक सालिम अली के अभियान को आगे बढ़ाया है, जिनकी पुस्तक ‘बुक ऑफ़ इंडियन बर्ड्स’ 1941 ई. में प्रथम प्रकाशन से लेकर आज तक इस क्षेत्र में मील का पत्थर बनी हुई है। डॉ. पाठक से हिन्दी में मौलिक विज्ञान लेखन और अनुवाद को लेकर मेरा गहन विचार-मंथन होता आ रहा है। वे हिन्दी के बेहद सजग विज्ञान लेखक हैं और वैज्ञानिक-तकनीकी शब्दावली से लंबे समय से मुठभेड़ करते आ रहे हैं। जब उन्होंने देखा कि हम पक्षियों के प्राकृतिक क्रियाकलापों को लेकर चर्चा तो बहुत करते हैं, किन्तु जब बात उन पर केन्द्रित किसी प्रामाणिक हिन्दी ग्रंथ की आती है, तो मौन रह जाना पड़ता है। डॉ. पाठक ने इस गहरे मौन को तोड़ने का साहस किया है। जो कार्य बड़े-बड़े संस्थान नहीं कर सकते, वह पक्षियों के अनूठे दीवाने डॉ. पाठक ने कर दिखाया है।

इस बृहद् ग्रंथ में मध्यप्रदेश के 338 प्रकार के पक्षियों की सचित्र-प्रामाणिक जानकारी दी गई है। इनमें स्थानीय और प्रवासी, उड़न और जलीय,बड़े और छोटे [पैसेराइन] – सभी प्रकार के पाखी हैं। डॉ. पाठक ने शुरुआत में पक्षियों की संरचना और लक्षण दिये हैं, जो पक्षियों के अभिज्ञान में सहायक हैं। साथ ही राष्ट्रीय पार्कों, पक्षियों की उत्पत्ति, उनके प्रवास सहित विभिन्न राज्यों के प्रतीक पक्षियों का विवरण दिया है। विश्वास किया जा सकता है कि यह ग्रन्थ पक्षी निहारकों और अध्यापकों के साथ ही विद्वानों और शोधकर्ताओं के लिए भी अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा। इस पुस्तक के लिए फ़ोटोग्राफ्स डॉ. पाठक के सुशिष्य ललित चौधरी ने जुटाए हैं। ग्रन्थ के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के लिए डॉ. पाठक के साथ मध्यप्रदेश राज्य जैवविविधता बोर्ड, भोपाल की जितनी प्रशंसा की जाए कम ही होगी।

कविवर भवानीप्रसाद मिश्र ने भारत के हृदय पटल पर स्थित सतपुड़ा के जंगल को कभी अपनी रम्य रचना में उकेरा था, यह ग्रंथ उसका रोचक साक्ष्य देता है।

लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
 लताओं के बने जंगल।

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ग्रंथ- मध्यप्रदेश के पक्षी
लेखक- डॉ. जे. पी. एन . पाठक
फोटोग्राफ्स- ललित चौधरी
प्रकाशन- मध्यप्रदेश राज्य जैवविविधता बोर्ड,भोपाल

वेबसाइट http://www.mpsbb.nic.in/
प्रथम संस्करण 2014 ई
आवरण- ‘दूधराज’ म प्र का राज्य पक्षी, सौजन्य- वन विभाग
पृष्ठ 372+40


प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष
हिंदी अध्ययनशाला
कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय
उज्जैन

 

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