पेज

20210209

फणीश्वरनाथ रेणु का कथा – साहित्य : युग चेतना और ग्रामीण यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Phanishwarnath Renu's Fiction: In the Context of Era Consciousness and Rural Reality - Prof. Shailendra Kumar Sharma

रेणु जी ने कथा साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय रूपक तैयार किया  

ग्रामीण भारत के दर्शन होते हैं रेणु जी के कथा साहित्य में 

रेणु हैं आदिम गंध के रचनाकार

कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु जन्म शतवार्षिकी पर  राष्ट्रीय संगोष्ठी


विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रख्यात कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की जन्म शत वार्षिकी पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी फणीश्वरनाथ रेणु का कथा साहित्य : युग चेतना और ग्रामीण यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में पर केंद्रित थी। आयोजन के प्रमुख वक्ता इग्नू, नई दिल्ली के समकुलपति और आलोचक  प्रो. सत्यकाम एवं मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई के  विभागाध्यक्ष एवं आलोचक प्रो करुणाशंकर उपाध्याय थे। अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा ने की। आयोजन की विशिष्ट अतिथि  प्रो. प्रेमलता चुटैल, प्रो. गीता नायक, डॉ नरेन्द्रसिंह फौजदार, मथुरा, डॉ जगदीशचंद्र शर्मा, डॉ सी एल शर्मा, रतलाम, डॉ प्रतिष्ठा शर्मा आदि ने  विचार व्यक्त किए। 




मुख्य अतिथि प्रो. सत्यकाम, नई दिल्ली ने कहा कि फणीश्वरनाथ रेणु ने कथा साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय रूपक तैयार किया है। संकट और संक्रांति के काल में उन्होंने जो रचा, वह आज भी प्रासंगिक है। उन्हें भारतीय परंपरा के लेखक के रूप में देखा जाना चाहिए। उनका मैला आंचल भारतीय सांस्कृतिक चेतना का उपन्यास है। वे नव निर्माण और विकास की दृष्टि के बीच नया दृष्टिकोण विकसित कर रहे थे। उनका उपन्यास परती परिकथा पर्यावरणीय कथा के रूप में है।




लेखक एवं आलोचक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य में युग चेतना के साथ अपनी जमीन पर खड़े ग्रामीण भारत के दर्शन होते हैं। उनके द्वारा चित्रित गांव, लोक समुदाय और संस्कृति जीवंतता  लिए हुए हैं। उनका परती परिकथा कोसी बांध निर्माण की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है, जो एक साथ पर्यावरणीय, सामाजिक और प्रेम संबंधों से जुड़े मुद्दों की ओर ध्यान खींचता है। उनकी कहानी पहलवान की ढोलक महामारी के बीच मृत्यु का साक्षात्कार करते लोगों में संजीवनी का काम करती है। 







आलोचक प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय, मुम्बई ने कहा कि रेणु आदिम गंध के रचनाकार हैं। उनका मैला आंचल जयशंकर प्रसाद के उपन्यास कंकाल की परंपरा का उपन्यास है। ग्रामीण अंचल को समुचित सम्मान दिलाने का कार्य रेणु जी ने किया। उन्होंने निरंतर संघर्षरत मनुष्य जीवन के बहुस्तरीय आयामों को प्रकट किया। वे ग्राम्यांचल का चित्र ही नहीं खींचते, उसमें परिवर्तन की बात भी करते हैं। रेणु जी ने कहा है कि वे प्रेम की खेती करना चाहते हैं। वर्तमान में यांत्रिकी प्रभुत्व के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है, उसका प्रभाव मन पर भी पड़ रहा है। रेणु जी उसे सरस बनाना चाहते हैं।

प्रो. प्रेमलता चुटैल ने कहा कि रेणु जी ने अंचल को  नायक बनाया। उनकी कहानी पहलवान की ढोलक तत्कालीन दौर में हैजे की महामारी के मध्य प्रेरणा जगाने का काम करती है, जो आज भी प्रासंगिक है। कहानी में ढोलक की थाप महामारी से जूझ रहे लोगों को प्रेरणा देती है।




प्रो. गीता नायक ने कहा कि ग्रामीण आत्मीयता की गंध रेणु के साहित्य में मिलती है। उनका उपन्यास परती परिकथा रंगमंच की तरह दिखाई देता है। वह स्वतंत्रता के बाद के यथार्थ का जीवंत दस्तावेज है। संयुक्त परिवार की सुंदरता उनके उपन्यासों में मिलती है।



डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने कहा कि रेणु जी ने कथा साहित्य में एक नई जमीन तोड़ी। आलोचकों ने उनकी उपलब्धि और सीमाओं दोनों को प्रकट किया, किंतु यह जरूरी है कि उन्हें समग्रता से देखा जाए।  


डॉ सी एल शर्मा, रतलाम ने कहा कि रेणु जी के उपन्यासों में प्रस्तुत चरित्र हमारे आसपास के समाज में आज भी मौजूद हैं। वे हमें वास्तविक जीवन से  भटकाते नहीं हैं। 


डॉ प्रतिष्ठा शर्मा ने कहा कि कृषि हमारे देश की रीढ़ है। रेणु जी ने सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक सभी क्षेत्रों में गांव की विशिष्ट भूमिका को अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया।




आयोजन में प्रोफेसर सत्यकाम  का सारस्वत सम्मान प्रो शर्मा, प्रो चुटैल, प्रो नायक आदि द्वारा उन्हें शॉल, साहित्य एवं स्मृति चिन्ह अर्पित कर किया गया।



आयोजन के पूर्व गांधी अध्ययन केंद्र में महात्मा गांधी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की गई। साथ ही महात्मा गांधी चित्र दीर्घा और ग्रंथालय एवं विश्व हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र का अवलोकन अतिथियों ने किया।




इस अवसर पर प्रोफेसर हरिमोहन बुधौलिया, श्रीमती हीना तिवारी आदि सहित अनेक शिक्षक, शोधार्थी एवं विद्यार्थी उपस्थित थे।




संचालन डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ नरेन्द्रसिंह फौजदार एवं डॉ गीता नायक ने किया।













रेणु जन्मशती प्रसंग

20210207

फणीश्वरनाथ रेणु का कथा - साहित्य और लोक संपृक्ति - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Phanishwarnath Renu's Association with Folk in Fiction - Prof. Shailendra Kumar Sharma

फणीश्वरनाथ रेणु का कथा - साहित्य और लोक संपृक्ति

कथा साहित्य के क्षेत्र में नवीन परंपरा स्थापित की रेणु ने

फणीश्वरनाथ रेणु जन्मशती पर राष्ट्रीय परिसंवाद


विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रख्यात कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की जन्म शताब्दी आयोजन के शुभारंभ पर राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन हुआ। यह परिसंवाद फणीश्वरनाथ रेणु का कथा - साहित्य और लोक संपृक्ति पर केंद्रित था। आयोजन के प्रमुख वक्ता वरिष्ठ साहित्यकार और भाषाविद् प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल थे। अध्यक्षता हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा ने की। विशिष्ट अतिथि  प्रो. प्रेमलता चुटैल, प्रो. गीता नायक, डॉक्टर जगदीशचंद्र शर्मा, डॉ प्रतिष्ठा शर्मा आदि ने  विचार व्यक्त किए। 



मुख्य अतिथि प्रो. त्रिभुवननाथ शुक्ल,  जबलपुर ने कहा कि फणीश्वरनाथ रेणु ने कथा साहित्य के क्षेत्र में स्वयं एक नवीन परंपरा स्थापित की। लोक जीवन के साथ गहरे साहचर्य के कारण उनके यहां अनेक देशज मुहावरे मिलते हैं। वे हिंदी के आंचलिक उपन्यासों के मानक हैं। रेणु के साहित्य में उनके समय की महामारी की पीड़ा और संघर्ष को देखा जा सकता है। उन्होंने देश एवं  समाज की स्थिति को भारतीय लोक तत्व के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया। भौतिक संसाधन से ही कोई बड़ा नहीं होता, इसे रेणु जी ने अपने जीवन और कृतित्व के माध्यम से स्थापित किया। साहित्य में सहज भाषा का प्रयोग किस प्रकार किया जा सकता है, यह रेणु जी सिखाते हैं। उन्होंने मौलिक औपन्यासिक शिल्प और भाषा के माध्यम से कथा साहित्य को नवीन दिशा दी।



लेखक एवं आलोचक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यासों और कहानियों में भारत की आत्मा प्रकट हुई है। लोक मानस और संस्कृति के प्रति गहरी संपृक्ति उनके साहित्य को वैशिष्ट्य देती है। उन्होंने  भारतीय  उपन्यास का मौलिक ढांचा तैयार किया। उनकी रचनाओं में अंचल के रूप, रस, बिम्ब, गंध और शब्द का जीवन्त रूपायन हुआ है। स्वाधीनता संग्राम और स्वातंत्र्योत्तर भारत की अनेकविध छबियों के साथ सामाजिक परिवर्तन का स्वर उनके साहित्य में मिलता है।



प्रो. प्रेमलता चुटैल ने कहा कि रेणु जी के उपन्यास अंचल की सोंधी मिट्टी की गंध के लिए जाने जाते हैं। कोविड महामारी के दौर में रेणु जी का मैला आंचल याद आता है। गांव के जन का निश्छल और सहज मन उनकी मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम जैसी चर्चित कहानी के माध्यम से जीवंत होता है।  




आयोजन में प्रोफेसर शुक्ल का सारस्वत सम्मान प्रो शर्मा, प्रो चुटैल, प्रो नायक, डॉ जगदीश शर्मा एवं डॉ शर्मा द्वारा उन्हें शॉल एवं स्मृति चिन्ह अर्पित कर किया गया।




इस अवसर पर प्रोफेसर हरिमोहन बुधौलिया, डॉक्टर ज्ञानचंद खिमेसरा, मंदसौर आदि सहित अनेक शिक्षक शोधार्थी एवं विद्यार्थी उपस्थित थे।


संचालन डॉक्टर जगदीश चंद्र शर्मा ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ गुणमाला खिमेसरा, मंदसौर ने किया।





















रेणु जन्मशती प्रसङ्ग


20210131

महात्मा गांधी का वैज्ञानिक दृष्टिकोण | Scientific view of Mahatma Gandhi | Shailendra Kumar Sharma

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ आजीवन प्रयोग किए महात्मा गांधी ने

महात्मा गांधी और उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर विशिष्ट व्याख्यान 

मौन श्रद्धांजलि, गांधी जी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि और उनके प्रिय भजनों की प्रस्तुति

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में गांधी जी की पुण्यतिथि पर महात्मा गांधी और उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर केंद्रित विशिष्ट व्याख्यान का आयोजन 30 जनवरी को प्रातः काल महाराजा जीवाजीराव पुस्तकालय परिसर में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर पुस्तकालय प्रांगण में सामूहिक मौन धारण किया गया एवं गांधी जी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की गई।  

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में आयोजित कार्यक्रम के मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के पूर्व कुलपति प्रो आर सी वर्मा थे। अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो अखिलेश कुमार पांडेय ने की। आयोजन के विशिष्ट अतिथि प्रभारी कुलसचिव डा डी के बग्गा थे। विषय प्रवर्तन कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने किया।




कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो आर सी वर्मा ने अपने उद्बोधन में कहा कि गांधीजी ने आजीवन वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ प्रयोग किए। उनकी पुस्तकें हिंद स्वराज और आत्मकथा सत्य के प्रयोग यह सिद्ध करती हैं कि उनके विचार और समस्त प्रयोग वैज्ञानिक तर्क दृष्टि पर आधारित हैं। गांधी जी को कुछ लोगों ने विज्ञान और टेक्नोलॉजी विरोधी कहा, जो उचित नहीं है। गांधीजी चाहते थे कि विज्ञान के लाभ गांव-गांव तक पहुंचे। वे शस्त्रों की अंधी दौड़ के विरुद्ध थे। उन्होंने जे सी बोस, पी सी रे जैसे अनेक वैज्ञानिकों के साथ विज्ञान को जन जन तक पहुंचाने की योजना बनाई थी। गांधीजी चाहते थे कि वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए जीव हत्या न की जाए। वे विज्ञान के क्षेत्र में भौतिकवादी दृष्टिकोण के विरुद्ध थे। उनकी मान्यता है कि विज्ञान का उपयोग  धनोपार्जन के लिए न किया जाए।







अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए कुलपति प्रो अखिलेश कुमार पांडेय ने कहा कि विज्ञान और अध्यात्म के बिना समाज का उद्धार संभव नहीं है। गांधी जी ने गीता को विशेष महत्व दिया था। उनकी दृष्टि में गीता सामाजिक वैमनस्य और अशांति से मुक्ति दिला सकती है। वर्तमान में प्रकृति और संस्कृति में असंतुलन से हम विकास के बजाय विनाश की ओर जा रहे हैं।  आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस बहुत बड़ी चुनौती के रूप में आ रही है। ऐसे में महात्मा गांधी का चिंतन हमें नया प्रकाश देता है। टेक्नोलॉजी से कई प्रकार की जटिलताएं आज पैदा हो रही हैं। उनका ईमानदार प्रयोग आवश्यक है। विक्रम विश्वविद्यालय का इस वर्ष का ध्येय सूत्र नशा मुक्ति, स्वच्छता और पर्यावरण के प्रति समर्पण रहेगा। 



अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रोफेसर पांडेय




प्रभारी कुलसचिव डॉ डी के बग्गा ने कहा कि गांधी जी ने जन समुदाय के मध्य कुष्ठ रोग एवं अन्य बीमारियों के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने का कार्य किया। उनका दुनिया के प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के साथ संपर्क था।




विषय प्रवर्तन करते हुए कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि गांधी जी ने विज्ञान और टेक्नोलॉजी के साथ नैतिकता एवं पर्यावरणीय दृष्टिकोण को आवश्यक माना। विज्ञान के क्षेत्र की मानक पत्रिका नेचर ने महात्मा गांधी के 150 वें जयंती वर्ष पर महात्मा गांधी एंड सस्टेनेबल साइंस शीर्षक संपादकीय प्रकाशित किया, जिसमें विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में गांधी जी द्वारा किए गए नवाचारी प्रयत्नों का उल्लेख किया गया है। अल्बर्ट आइंस्टाइन पर गांधीजी का गहरा प्रभाव था। गांधीजी प्रकृति और मानव समुदाय पर उद्योगों और अंध भौतिकता से पड़ने वाले दुष्प्रभावों को लेकर चिंतित थे, जो आज अधिक प्रासंगिक हो गया है। परमाण्विक विभीषिका के दौर में उन्होंने मनुष्य और प्रकृति के मध्य आपसदारी की राह पर लौटने की जरूरत बताई।





आयोजन में पूर्व कुलपति बालकृष्ण  शर्मा, पूर्व कुलपति प्रो पी के वर्मा आदि सहित प्रबुद्ध जनों, शिक्षकों और विद्यार्थियों ने बड़ी संख्या में भाग लिया।

अतिथि स्वागत प्रो एच पी सिंह, गांधी अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा, अधिष्ठाता, विद्यार्थी कल्याण डॉ आर के अहिरवार, प्रो प्रेमलता चुटैल, प्रो अचला शर्मा, प्रो गीता नायक, डॉ सोनल सिंह, डॉ ज्योति उपाध्याय, डॉ एस के मिश्रा, डॉ डी डी बेदिया, डॉ धर्मेंद्र मेहता, डॉ संदीप तिवारी, डॉ एस के जैन, डॉ कनिया मेड़ा, डॉ चित्रलेखा कड़ेल, डॉ प्रीति पांडेय, कौशिक बोस,  श्री कमल जोशी, श्री योगेश शर्मा, श्री जसवंतसिंह आंजना, श्री लक्ष्मीनारायण संगत आदि ने किया। 




इस अवसर पर पूर्व कुलपति प्रो आर सी वर्मा को अतिथियों द्वारा शॉल एवं पुस्तक अर्पित कर उनका सारस्वत सम्मान किया गया।




विक्रम विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार से सहायता प्राप्त संस्था जाग्रति नशामुक्ति केंद्र द्वारा नशा विरोधी प्रदर्शनी लगाई गई। प्रदर्शनी का संयोजन श्री चिंतामणि गेहलोत, विनोद कुमार दवे, श्री राजेश ठाकुर एवं श्री देवीलाल मालवीय ने किया। सामाजिक न्याय विभाग के अंतर्गत कलापथक के कलाकारों द्वारा महात्मा गांधी के प्रिय भजन वैष्णव जन तो तेणे कहिए एवं रघुपति राघव राजाराम और नशा विरोधी गीत की प्रस्तुति की गई। दल के कलाकारों में शैलेंद्र भट्ट, सुश्री अर्चना मिश्रा, सुरेश कुमार, नरेंद्रसिंह कुशवाह, राजेश जूनवाल, सुनील फरण, अनिल धवन, आनंद मिश्रा आदि शामिल थे। कार्यक्रम में कुलपति प्रो पांडेय ने उपस्थित जनों को नशा निषेध की शपथ दिलाई। 


आयोजन का संचालन हिंदी विभाग के डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने किया। आभार प्रदर्शन छात्र कल्याण विभाग के अधिष्ठाता डॉ आर के अहिरवार ने किया।







महात्मा गांधी पुण्यतिथि


20210118

प्रेमचंद और उनका गोदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand and His Godan - Prof. Shailendra Kumar Sharma

प्रेमचंद और उनका गोदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Premchand and His Godan - Prof. Shailendra Kumar Sharma    

प्रेमचंद : परिचय

प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय, प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के समीप लमही ग्राम में हुआ था। उनके पिता अजायब राय पोस्ट ऑफ़िस में क्लर्क थे। वे अजायब राय व आनन्दी देवी की चौथी संतान थे। पहली दो लड़कियाँ बचपन में ही चल बसी थीं। तीसरी लड़की के बाद वे चौथे स्थान पर थे। माता पिता ने उनका नाम धनपत राय रखा। सात साल की उम्र से उन्होंने एक मदरसे से अपनी पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत की जहाँ उन्होंने एक मौलवी से उर्दू और फ़ारसी सीखी। जब वे केवल आठ साल के थे तभी लम्बी बीमारी के बाद आनन्दी देवी का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली परंतु प्रेमचंद को नई माँ से कम ही प्यार मिला। धनपत को अकेलापन सताने लगा। किताबों में जाकर उन्हें सुकून मिला। उन्होंने कम उम्र में ही उर्दू, फ़ारसी और अँग्रेज़ी साहित्य की अनेकों किताबें पढ़ डालीं। कुछ समय बाद उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज में दाख़िला ले लिया।


1895 में पंद्रह वर्ष की आयु में उनका विवाह कर दिया गया। तब वे नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। लड़की एक सम्पन्न जमीदार परिवार से थी और आयु में उनसे बड़ी थी। उनका यह विवाह सफ़ल नहीं रहा। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन करते हुए 1906 में बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया। उनकी तीन संतानें हुईं–श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव।


1897 में अजायब राय भी चल बसे। प्रेमचंद ने जैसे-तैसे दूसरे दर्जे से मैट्रिक की परीक्षा पास की। तंगहाली और गणित में कमज़ोर होने की वजह से पढ़ाई बीच में ही छूट गई। बाद में उन्होंने प्राइवेट से इंटर और बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।


वाराणसी के एक वकील के बेटे को 5 रु. महीना पर ट्यूशन पढ़ाकर ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ी। कुछ समय बाद 18 रु. महीना की स्कूल टीचर की नौकरी मिल गई। सन् 1900 में सरकारी टीचर की नौकरी मिली और रहने को एक अच्छा मकान भी मिल गया।


धनपत राय ने सबसे पहले उर्दू में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखना शुरू किया। बाद में उन्होंने हिंदी में प्रेमचंद के नाम से लिखा। प्रेमचंद ने 14 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय व संस्मरण आदि लिखे। उनकी कहानियों का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है। प्रेमचंद ने मुंबई में रहकर फ़िल्म ‘मज़दूर’ की पटकथा भी लिखी।


प्रेमचंद काफ़ी समय से पेट के अल्सर से बीमार थे, जिसके कारण उनका स्वास्थ्य दिन-पर-दिन गिरता जा रहा था। इसी के चलते 8 अक्तूबर, 1936 को क़लम के इस सिपाही ने सबसे विदा ले ली। 


गोदान - मुंशी प्रेमचंद

Godan pdf - Munshi Premchand | गोदान पीडीएफ - मुंशी प्रेमचंद.pdf

पीडीएफ डाउनलोड करें

Godan pdf - Munshi Premchand | गोदान - मुंशी प्रेमचंद.pdf


प्रेमचंद का रचना संसार :


प्रेमचंद भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे मशहूर लेखकों में से एक हैं, और बीसवीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण हिन्दुस्तानी लेखकों में से एक के रूप में जाना जाता है। उनकी रचनाओं में चौदह उपन्यास, लगभग 300 कहानियाँ, कई निबंध और अनेक विदेशी साहित्यिक कृतियों का हिंदी में अनुवाद शामिल है। उनके उपन्यासों में गोदान, गबन, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प और निर्मला बहुत प्रसिद्ध हैँ। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया, जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया।


उन्होंने 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की। ‘गोदान’, ‘गबन’ आदि उनके उपन्यासों और ‘कफ़न’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ आदि कहानियों पर फ़िल्में भी बनीं।


उन्होंने अपनी सम्पूर्ण कहानियों को 'मानसरोवर' में संजोकर प्रस्तुत किया है। इनमें से अनेक कहानियाँ देश-भर के पाठ्यक्रमों में समाविष्ट हुई हैं, कई पर नाटक व फ़िल्में बनी हैं जब कि कई का भारतीय व विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है।


विषय, मानवीय भावना और समय के अनंत विस्तार तक जाती उनकी रचनाएँ इतिहास की सीमाओं को तोड़ती हैं, और कालजयी कृतियों में गिनी जाती हैं। उनका रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। परतंत्र भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक समस्याओं के बीच राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण यह उपन्यास लेखक के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को बहुत ऊँचा उठाता है।


देश की नवीन आवश्यकताओं, आशाओं की पूर्ति के लिए संकीर्णता और वासनाओं से ऊपर उठकर निःस्वार्थ भाव से देश सेवा की आवश्यकता उन दिनों सिद्दत से महसूस की जा रही थी। रंगभूमि की पूरी कथा इन्हीं भावनाओं और विचारों में विचरती है। कथानायक सूरदास का पूरा जीवनक्रम, यहाँ तक कि उसकी मृत्यु भी, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की छवि लगती है। सूरदास की मृत्यु भी समाज को एक नई संगठन-शक्ति दे गई। विविध स्वभाव, वर्ग, जाति, पेशा एवं आय वित्त के लोग अपने-अपने जीवन की क्रीड़ा इस रंगभूमि में किये जा रहे हैं। और लेखक की सहानुभूति सूरदास के पक्ष में बनती जा रही है। पूरी कथा गाँधी दर्शन, निष्काम कर्म और सत्य के अवलंबन को रेखांकित करती है। यह कृति कई अर्थों में भारतीय साहित्य की धरोहर है। 


अपने समय और समाज का ऐतिहासिक संदर्भ तो जैसे प्रेमचंद की कहानियों को समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है। उनकी कहानियों में अनेक मनोवैज्ञानिक बारीक़ियाँ भी देखने को मिलती हैं। विषय को विस्तार देना व पात्रों के बीच में संवाद उनकी पकड़ को दर्शाते हैं। ये कहानियाँ न केवल पाठकों का मनोरंजन करती हैं बल्कि उत्कृष्ट साहित्य समझने की दृष्टि भी प्रदान करती हैं।


ईदगाह, नमक का दारोगा, पूस की रात, कफ़न, शतरंज के खिलाड़ी, पंच-परमेश्वर, आदि अनेक ऐसी कहानियाँ हैं जिन्हें पाठक कभी नहीं भूल पाएँगे। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को निश्चित परिप्रेक्ष्य और कलात्मक आधार दिया। उनकी कहानियां परिवेश बुनती हैं। पात्र चुनती हैं। उसके संवाद बिलकुल उसी भाव-भूमि से लिए जाते हैं जिस भाव-भूमि में घटना घट रही है। इसलिए पाठक कहानी के साथ अनुस्यूत हो जाता है। प्रेमचंद यथार्थवादी कहानीकार हैं, लेकिन वे घटना को ज्यों का त्यों लिखने को कहानी नहीं मानते। यही वजह है कि उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का गंगा-जमुनी संगम है। कथाकार के रूप में प्रेमचंद अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गये थे। उन्होंने मुख्यतः ग्रामीण एवं नागरिक सामाजिक जीवन को कहानियों का विषय बनाया। उनकी कथायात्रा में श्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट हैं, यह विकास वस्तु विचार, अनुभव तथा शिल्प सभी स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। उनका मानवतावाद अमूर्त भावात्मक नहीं, अपितु सुसंगत यथार्थवाद है।


मुंशी प्रेमचंद और उनका गोदान : 


कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद (1880 – 1936 ई.) युग प्रवर्तक रचनाकार के रूप में समादृत हैं।प्रेमचंद का गोदान सर्वाधिक चर्चित एवं पठनीय उपन्यास है। हिंदी उपन्यासकारों में प्रेमचन्द को अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जहां एक ओर समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं विषमताओं पर करारा प्रहार किया है, वहीं दूसरी ओर भारतीय जन-जीवन की अस्मिता की खोज भी की है। निःसंदेह, प्रेमचन्द एक ऐसे आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी साहित्यकार हैं, जिनकी प्रत्येक रचना भारतीय जन-जीवन का आईना है तथा हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। 


प्रेमचंद ने जो कुछ भी लिखा है, वह आम आदमी की व्यथा कथा है, चाहे वह ग्रामीण हो या शहरी। गांवों की अव्यवस्था, किसान की तड़प, ग्रामीण समाज की विसंगतियां, अंधविश्वास, उत्पीड़न और पीड़ा की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करता है - गोदान। उनकी चिर-परिचित शैली का जीता-जागता उदाहरण है गोदान, जो जमीन से जुड़ी हकीकतों को बेनकाब करता है।


प्रेमचंद के बिना भारतीय भाषाओं के कथा - साहित्य की वह छलांग संभव नहीं थी, जिस पर हम आज अभिमान करते हैं।मुंशी प्रेमचंद एक ऐसा नाम, जिसे हर किसी ने सुना और पढ़ा है। लेखन के विविध विधाओं के बीच वे मूलत: युग प्रवर्तक कथाकार थे। अपने अभावों और संघर्षों से भरे जीवन की कठिनाइयों के चलते उन्होंने जनजीवन से तादात्म्य स्थापित कर साहित्य की पूंजी कमाई। यह उनकी निष्ठा, प्रतिबद्धता और साधना की मिसाल है। देश के लिए उनके देखे सपने, आशाएँ और आकांक्षाएँ अभी खत्म नहीं हुई है। इसलिए प्रेमचंद का प्रासंगिक होना स्वाभाविक है। वे अपनी सर्जना और विचारों के साथ आज के संघर्षों और चुनौतियों के मार्गदर्शक हैं। 


प्रेमचंद को पहला हिंदी लेखक माना जाता है जिनका लेखन प्रमुखता यथार्थवाद पर आधारित था। उनके उपन्यास गरीबों और शहरी मध्यम वर्ग की समस्याओं का वर्णन करते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों के बारे में जनता में जागरूकता लाने के लिए साहित्य का उपयोग किया और भ्रष्टाचार, बाल विधवा, वेश्यावृत्ति, सामंती व्यवस्था, गरीबी, उपनिवेशवाद के लिए और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित विषयों पर लिखा। उन्होंने 1900 के दशक के अंत में कानपुर में राजनीतिक मामलों में रुचि लेना शुरू किया था, और यह उनके शुरुआती काम में दिखाई देता है, जिनमें देशभक्ति का रंग था। शुरू में उनके राजनीतिक विचार मध्यम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले से प्रभावित थे, पर बाद में, उनका झुकाव और अधिक कट्टरपंथी बाल गंगाधर तिलक की ओर हो गया। उन्होंने सख्त सरकारी सेंसरशिप के कारण, उन्होंने अपनी कुछ कहानियों में विशेषकर ब्रिटिश सरकार का उल्लेख नहीं किया, पर लेकिन मध्यकालीन युग और विदेशी इतिहास के बीच अपने विरोध को बड़ी कुशलता से व्यक्त किया।


1920 में, वे महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन और सामाजिक सुधार के लिए संघर्ष से प्रभावित थे। प्रेमचंद का ध्यान किसानों और मजदूर वर्ग के आर्थिक उदारीकरण पर केंद्रित था, और वे तेजी से औद्योगिकीकरण के विरोधी थे, जो उनके अनुसार किसानों के हितों के नुक्सान और श्रमिकों के आगे उत्पीड़न का कारण बन सकता था।


प्रेमचंद का कथा साहित्य सही अर्थों में आधुनिक युग का क्लासिक है। वे सहज भारतीय मनुष्य के साथ गतिशील रचनाकार हैं। मानवीय चिंताओं को लेकर वे आजीवन क्रियाशील बने रहे। उनकी दृष्टि समूची मानवता पर टिकी है, किंतु स्वराज से लेकर सुराज तक का प्रादर्श और उसकी जमीनी हकीकत उनकी आंखों से ओझल नहीं रही। यही वजह है कि वे जहां सार्वकालिक और शाश्वत मानवता और उसकी प्रतिष्ठा के लिए सार्वकालिक और शाश्वत साहित्य की बात करते हैं, वही अपने राष्ट्र एवं समाज से जुड़ी जटिल समस्याओं से किंचित भी विमुख नहीं हैं। वे सही अर्थों में सामान्य जनता की समस्याओं के प्रामाणिक चित्रण करने वाले पहले उपन्यासकार हैं और नए ढंग के प्रथम कथा शिल्पी भी।


प्रेमचंद ठोस भारतीय जमीन पर खड़े कथाकार हैं। उन्हें न तो आयातित विचारों के पूर्वाग्रही साँचे में जकड़ा जा सका और न किसिम - किसिम की कहानियों के आंदोलन के दौर में अप्रासंगिक ही ठहराया जा सका।  भारतीय परिवेश में वंचित - शोषित वर्ग, किसान और स्त्री जीवन से जुड़ी विसंगतियों को लेकर उन्होंने निरन्तर लिखा। ऐसे विषयों पर गहरी समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। किसान जीवन की दृष्टि से अगर प्रेमचन्द के कथा साहित्य को देखा जाए तो कई अर्थों में प्रेमचन्द अपने समय से आगे दिखाई देते हैं। किसान और शोषित वर्ग के जीवन के यथार्थ चित्रण में वे हिन्दी साहित्य में अद्वितीय दिखाई देते हैं। हाल के दशकों में उभरे कई विमर्शों के मूल सूत्र प्रेमचंद के यहां मौजूद हैं। उनके अधिकांश उपन्यासों में भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और विसंगतियों का तीखा प्रतिकार दिखाई देता है। उनके प्रमुख उपन्यासों में गोदान, सेवासदन, रंगभूमि या प्रेमाश्रम के चरित्र और प्रसंग आज भी हमारे आसपास देखे जा सकते हैं। वैसी ही ऋणग्रस्तता, अविराम शोषण, रूढ़ियाँ और वर्गीय अंतराल आज भी भारतीय समाज की सीमा बने हुए हैं। ऐसे में प्रेमचंद का कथा साहित्य व्यापक बदलाव के लिए तैयार करता है।


गोदान किसान जीवन का मर्मस्पर्शी, करुण और त्रासद दस्तावेज है। यह प्रेमचन्द का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। कुछ लोग इसे उनकी सर्वोत्तम कृति भी मानते हैं। इसका प्रकाशन 1936 ई में हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई द्वारा किया गया था। इसमें भारतीय ग्राम समाज एवं परिवेश का सजीव चित्रण है। गोदान ग्राम्य जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य है। इसमें भारतीय जीवन मूल्यों के साथ गांधीवाद और मार्क्सवाद (साम्यवाद) का व्यापक परिप्रेक्ष्य में चित्रण हुआ है। इस उपन्यास में भारत के किसानों की स्थिति का जीवन्त चित्रण है। साथ ही भारतीय किसान के लिए उनके पशु के महत्त्व को जीवन्त किया गया है। गरीब किसान जो महाजनों के कर्ज और लगान में दबकर जीने को मजबूर हैं, परन्तु वह हिम्मत नही हारता है। होरी की बड़ी तमन्ना थी कि द्वार पर एक दुधारू गाय बंधी हो, जिस की सेवा कर के वह संसार सागर से पार हो जाए। भोला की मेहरबानी से ऐसी एक गाय हाथ आ भी गई, किंतु छोटे भाई की ईर्ष्या से वह जल्दी ही हमेशा के लिए होरी से छिन भी गई। इस गाय के चक्कर में होरी ने अपना क्या नहीं खोया? किस का कर्जदार नहीं हुआ? किस की बेगार नहीं की? फिर भी क्या वह अंतिम समय में गोदान कर सका? ‘कृषक जीवन का महाकाव्य’ माने जाने वाले इस उपन्यास ‘गोदान’ में प्रेमचंद के संचित अनुभव एवं उन की निखरी हुई कला सहज ही दिखाई देती है इस में सामंतों, साहूकारों, धर्म के ठेकेदारों की  करतूतों को भी बखूबी उजागर किया गया है।


होरी एक जोड़ा बैल खरीदता है पर उसका भाई उसे जहर देकर मार डालता है, जिसके कारण होरी का पूरा परिवार तबाह हो जाता है। गोदान में भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी सामाजिक - आर्थिक चेतना को चित्रित किया गया है। प्रस्तुत उपन्यास में ब्रिटिश समय में अभावग्रस्त ग्रामीणों की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। इस कृति में होरी और धनिया सामाजिक वर्ग संघर्ष के अमर प्रतीक है।


गोदान हिंदी के उपन्यास-साहित्य के विकास का  प्रकाशस्तंभ है। गोदान के नायक और नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हम भारत की ग्राम्य संस्कृति को सजीव और साकार पाते हैं, ऐसी संस्कृति जो अब समाप्त हो रही है या हो जाने को है, फिर भी जिसमें भारत की मिट्टी की सोंधी सुवास है। प्रेमचंद ने इसे अमर बना दिया है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में पात्र और जीवनानुसार भाषा का प्रयोग हुआ है। हर वर्ग, जातियों की सांस्कृतिक जड़ें उसकी भाषा में निहित होती है। मालती-मेहता, राय साहब और दातादीन और होरी-धनिया की किसान संस्कृति की भाषा अलग दिखाई देती है। 


e - content | Online Study Material - Hindi | Prof. Shailendra Kumar Sharma | ई - कंटेंट | ऑनलाइन अध्ययन सामग्री - हिंदी | प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा

हिंदी विश्व पेज : 


https://drshailendrasharma.blogspot.com/p/e-content-online-study-material-hindi.html

 

20210110

दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में संभावनाओं की तलाश - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Hindi in the World: Exploring Possibilities in the Twenty-first Century - Prof. Shailendra Kumar Sharma

यूनाइटेड नेशंस में हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए सौ से अधिक देशों में बसे भारतीय संकल्प लें


स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी में प्रकाशन की राह खुली


दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में  संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी 


विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर भारत नॉर्वेजियन सांस्कृतिक फोरम, ओस्लो, नॉर्वे, स्पाइल दर्पण और वैश्विका अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया।  कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली के चेयरमैन प्रोफेसर अवनीश कुमार, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं समालोचक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा एवं विख्यात नृतत्त्वशास्त्री प्रो मोहनकान्त गौतम, नीदरलैंड थे। आयोजन की पीठिका प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार, अनुवादक और मीडिया विशेषज्ञ श्री शरद चन्द्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने प्रस्तुत की। 


दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी की संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी

संगोष्ठी का प्रसारण फेसबुक पर देखा जा सकता है : 

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10224227242325952&id=1149296433







आयोजन की विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ कवयित्री श्रीमती जय वर्मा, यूके, श्री रवि शर्मा, लन्दन, डॉ विनोद कालरा, जालन्धर, श्री सुरेश पांडेय, स्टॉकहोम, स्वीडन, डॉ ऋचा पांडेय, लखनऊ, डॉ मुकेश कुमार मिश्र, बस्ती, श्री अभिषेक त्रिपाठी, बेलफास्ट, आयरलैंड, श्रीमती संगीता शुक्ला दिदरेक्सन, ओस्लो, नॉर्वे आदि ने हिंदी के वैश्विक परिदृश्य पर प्रकाश डाला। यह संगोष्ठी दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित थी।




 


मुख्य वक्ता लेखक एवं आलोचक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि हिंदी भारतीय संस्कृति और हमारी अस्मिता को आधार देती है। हिंदी सहित भारतीय भाषाएं सही अर्थों में ऐश्वर्य प्रदान करने का माध्यम हैं। प्रवासी भारतीय अपनी भाषाओं को प्रोत्साहन देते हुए आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। यूनाइटेड नेशंस में हिंदी की प्रतिष्ठा हो, एक सौ दस से अधिक देशों में बसे भारतीय इसका संकल्प लें। दुनिया के विभिन्न भागों में अनेक स्वैच्छिक और साहित्यिक संस्थाएं हिंदी के प्रसार का काम कर रही हैं, उन्हें नए परिवेश के अनुरूप आधार मिलना चाहिए। देवनागरी के साथ हिंदी के नैसर्गिक रिश्ते को व्यापक फलक पर प्रसारित करने की आवश्यकता है। इक्कीसवीं सदी हिंदी की है। शिक्षा, अनुसंधान, सांस्कृतिक - भावात्मक एकता, साहित्यिक अभिव्यक्ति और जनसंचार माध्यमों से  हिंदी की नई संभावनाएं उजागर हो रही हैं। विश्व हिंदी दिवस को मनाते हुए हिंदी के साथ आत्म स्वाभिमान का भाव जगाना होगा।





 
वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली के चेयरमैन प्रो अवनीश कुमार ने कहा कि हिंदी के विकास में विदेशों में बसे भारतीय महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। आभासीय माध्यम से लोग परस्पर जुड़ रहे हैं। नए दौर में दूरियां कम हुई हैं। हिंदी एवं विदेशी भाषाओं के बीच परस्पर अनुवाद कार्य में तेजी आनी चाहिए। भारत सरकार के विभिन्न संस्थानों के द्वारा शब्दावली निर्माण, शब्दकोश एवं विश्वकोश के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया है। ये सभी पारस्परिक अनुवाद के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। नई शिक्षा नीति में  मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा पर बल दिया गया है। इससे मौलिक चिंतन में वृद्धि होती है।




वरिष्ठ लेखक एवं नृतत्त्वशास्त्री प्रोफेसर मोहनकांत गौतम, नीदरलैंड ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि प्रवासी भारतीयों ने भारत के बाहर हिंदी के लिए बहुत कार्य किया है। उनके काम को भारत में प्रचार प्रसार मिलना चाहिए। भारत हम लोगों के लिए माता पिता की तरह है, वहां से प्रेरणा और प्रोत्साहन मिले, यह जरूरी है। भारतीय स्कूलों में पाठ्यक्रम के माध्यम से यह बताया जाए कि प्रवासी भारतीयों ने अनेक चुनौतियों के बावजूद बाहर जाकर क्या किया। भारत से बाहर बसे लोग भारत को निरंतर ढूंढते रहते हैं। सांस्कृतिक और भाषाई एकता से सारी दुनिया में बसे भारतवंशी जुड़ें, यह जरूरी है। हिंदी का व्याकरण लेटिन भाषा के अनुसार बना है। संस्कृत का व्याकरण संज्ञा केंद्रित है, जबकि हिंदी का व्याकरण लेटिन भाषा के अनुकरण के कारण क्रिया केंद्रित बन गया है। उन्होंने साउथ एशियन लिटरेचर एंड लैंग्वेज एसोसिएशन जैसी संस्था के निर्माण की आवश्यकता पर बल दिया, जो हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं और साहित्य के विकास के लिए कारगर सिद्ध होगी।




वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ने नॉर्वे सहित  स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी की  प्रगति और संभावनाओं पर प्रकाश डाला।  उन्होंने कहा कि स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी में प्रकाशन की राह खुली है। श्री शुक्ल ने विगत दिनों प्रकाशित चर्चित काव्य संग्रह लॉक डाउन की चुनिंदा रचनाओं का पाठ किया।  


वरिष्ठ प्रवासी कवयित्री श्रीमती जय वर्मा, यूके ने अपनी कविता मैं सबकी प्रिय हिंदी हूँ सुनाई। उनकी एक रचना की पंक्तियों ने भरपूर दाद बटोरी, चल निकल चलें तेरे जहां गुलिस्ता से, कौन जानता है कि राह किधर ले जाए। 


डॉ ऋचा पांडेय, लखनऊ ने श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक द्वारा कोविड-19 महामारी के दौर की संवेदनाओं को लेकर दुनिया की किसी भी भाषा में रचित पहली काव्य कृति लॉक डाउन की समीक्षा प्रस्तुत की।




प्रो आशुतोष तिवारी, स्वीडन ने कहा कि प्रवासी भारतीयों के मन में भारत बसता है। वे वैश्विक मंच पर हिंदी को पहुंचा रहे हैं। भाषा लोगों को जोड़ती है उससे सामाजिक दृष्टिकोण विकसित होता है। स्वीडन में हिंदी में प्रकाशन किया जा रहा है।




श्रीमती संगीता शुक्ला दिदरेक्सन, नॉर्वे ने हिंदी शिक्षण के लिए नॉर्वे में उनके द्वारा प्रारंभ किए गए पहले स्कूल के अनुभवों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि हिंदी के जरिए भारतीय संस्कृति से जुड़ाव हो, यह जरूरी है। बच्चों को खेल, कविता, नृत्य, नाटक आदि गतिविधियों के माध्यम से हिंदी से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। मातृभाषा वास्तविक भावनाओं की भाषा होती है। बच्चे मातृभाषा के माध्यम से जल्दी सीख सकते हैं। पारिवारिक भावना का विकास भी इसके माध्यम से किया जा सकता है।


श्री रवि शर्मा, लंदन ने कहा कि हिंदी के विस्तार में सिनेगीतों का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपना गीत सुनाया जिसकी पंक्तियाँ थीं, बिना हम सफर के सफर कम नहीं था, पुरानी थी नैया भंवर कम नहीं था।


डॉक्टर गंगाधर वानोड़े, हैदराबाद ने कहा कि देश विदेश में हिंदी प्रचार - प्रसार के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। लगभग पचास देशों के विद्यार्थी केंद्रीय हिंदी संस्थान में अध्ययन कर रहे हैं। संस्थान द्वारा विभिन्न भाषाओं के अध्येता कोशों और पाठमालाओं का प्रकाशन किया गया है।


कार्यक्रम में डॉ मुकेश मिश्र, बस्ती ने भी विचार व्यक्त किए। 


डॉ विनोद कालरा, जालंधर ने कहा कि हिंदी हमारी अस्मिता के केंद्र में हैं। हमारा हर पल, हर क्षण हिंदी का हो यह आवश्यक है। उन्होंने मैं खुशबू बन कर लौटूंगी शीर्षक कविता सुनाई,  जिसकी पंक्तियां थीं, तुम भले ही मुझे भूल चुके, मैं तेरे जीवन के आंगन में खुशबू बनकर लौटूंगी।


श्री प्रवीण गुप्ता, नॉर्वे, श्री सुरेश पांडेय, स्वीडन एवं श्री गुरु शर्मा ओस्लो ने अपनी कविताएँ सुनाईं। श्री अभिषेक त्रिपाठी, आयरलैंड ने यह जो अपनी हिंदी है और सूरज और दीपक के संवाद पर केंद्रित कविता सुनाईं।

कार्यक्रम का जीवंत प्रसारण सोशल मीडिया के माध्यम से किया गया, जिसे देश दुनिया के सैकड़ों लोगों ने देखा। 


कार्यक्रम का संयोजन वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ने किया।


ज्ञातव्य है कि विश्व हिंदी दिवस  प्रत्येक वर्ष 10 जनवरी को पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है। देश दुनिया की हिंदी सेवी संस्थाओं और सरकारी विभागों के साथ विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं।

Featured Post | विशिष्ट पोस्ट

महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : वैचारिक प्रवाह से जोड़ती सार्थक पुस्तक | Mahatma Gandhi : Vichar aur Navachar - Prof. Shailendra Kumar Sharma

महात्मा गांधी : विचार और नवाचार - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा : पुस्तक समीक्षा   - अरविंद श्रीधर भारत के दो चरित्र ऐसे हैं जिनके बारे में  सबसे...

हिंदी विश्व की लोकप्रिय पोस्ट