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20211205

रामाश्रयी काव्य धारा और तुलसीदास - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Ramashrayi Kavya Dhara and Tulsidas - Prof. Shailendra Kumar Sharma

रामाश्रयी काव्य धारा और गोस्वामी तुलसीदास - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा


विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान प्रयागराज द्वारा वेब पटल पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई। इस संगोष्ठी में अनेक वक्ताओं ने अपने विचार प्रकट किए। 






 भारतीय साहित्य को रामाश्रयी काव्यधारा और गोस्वामी तुलसीदास का योगदान अविस्मरणीय है। रामकाव्यधारा का प्रवर्तन वैष्णव संप्रदाय के स्वामी रामानंद से स्वीकार किया जाता है। रामकाव्यधारा में शील, शक्ति और सौंदर्य का अद्भुत समन्वय पाया जाता है। ये विचार मुख्य अतिथि तथा विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन, म. प्र. के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने व्यक्त किये। 

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान प्रयागराज, उ. प्र. के तत्वावधान में ' रामाश्रयी काव्यधारा : तुलसीदास' विषय पर आयोजित राष्ट्रीय आभासी गोष्ठी में वे उद्बोधन दे रहे थे। डाॅ. शर्मा ने आगे कहा कि सभी रामभक्त कवि विष्णु के अवतार दशरथ पुत्र राम के उपासक हैं। उनके राम परब्रह्म स्वरूप भी है। रामचरितमानस में तुलसी ने आदर्श गृहस्थ, आदर्श समाज और आदर्श राज्य की कल्पना की है।रामकाव्य में ज्ञान,कर्म और भक्ति की अलग अलग महत्ता स्वीकार करते हुए भक्ति को उत्कृष्ट बताया गया है। रामाश्रयी कवियों की भारतीय संस्कृति में पूर्ण आस्था रही है। लोकहित के साथ उनकी भक्ति स्वांत:सुखाय थी। 

विशिष्ट अतिथि डाॅ. चंद्रशेखर सिंह, मुंगेली, छत्तीसगढ ने कहा कि तुलसीदास ने रामचरित मानस को बोली के रूप में मानीजानेवाली अवधी में रचा। मानस में लोकतंत्र की बात निहित है। जीवन जीने का सही रास्ता मानस में बताया गया है। रामचरितमानस को पूरे विश्व में श्रद्धापूर्वक पढा जाता है।

डाॅ. अन्नपूर्णा श्रीवास्तव, पटना, बिहार ने कहा कि रामाश्रयी शाखा के समस्त कवियों में तुलसीदास जी का स्थान अनुपम है। भारतीय संस्कृति को आधार बनाकर मानस की रचना हुई है। तुलसीदास जी की राम के प्रति दासभक्ति थी। प्रो. स्मिता बहन मिस्री, नवसारी गुजरात ने मंतव्य में कहा कि भारतीय संस्कृति में तुलसी का पौधा और महाकवि तुलसीदास दोनों का गौरवपूर्ण, अद्वितीय और अभूतपूर्व स्थान है। भारतीय जनमानस की नब्ज को पकडकर उनका सटीक उपचार बताने वाले तुलसीदास समाज में व्याप्त विसंगतियों को दूर करके एक स्वस्थ समाज की स्थापना करते हैं। 

रामकथा का सानिध्य गंगास्नान समान अतुल्य है।अत: तुलसी साहित्य आज भी प्रासंगिक है। डाॅ. भारती दोडमनी, कारवार, कर्नाटक ने अपने उद्बोधन में कहा कि तुलसीदास जी की रचनाएँ स्वांत: सुखाय और बहुजन हिताय दोनों में प्रस्तुत है। मानस के सात खंडों में मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के आदर्शों को व्यक्त किया गया है। उनकी अधिकांश रचनाएँ लोक कल्याण की कामना व्यक्त करती है।

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उ.प्र. के सचिव डाॅ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी ने अपने प्रास्तविक भाषण में  गोष्ठी के विषय की महत्ता प्रतिपादित करते हुए संस्थान की गतिविधियों पर विस्तार से प्रकाश डाला। विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उ. प्र. के अध्यक्ष डाॅ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने अध्यक्षीय समापन में कहा कि रामाश्रयी काव्यधारा में तुलसीदास जी के पश्चात उनके समक्ष अन्य कोई कवि दिखाई नहीं देता। वे जीवन की समग्रता के गायक थे। रामचरितमानस एक संपूर्ण समाजदर्शन है। 

तुलसीदासजी महान चिंतक, बहुत बडे संत तथा कालजयी महाकवि थे। उनका मानस भारतीय दर्शन का अक्षय भंडार है।
गोष्ठी का शुभारंभ श्रीमती ज्योति तिवारी, इंदौर की सरस्वती वंदना से हुआ। प्रा. रोहिणी बालचंद डावरे, अकोले, अहमदनगर, महाराष्ट्र ने स्वागत भाषण दिया। गोष्ठी का संयोजन श्रीमती पुष्पा श्रीवास्तव 'शैली', रायबरेली ने किया। गोष्ठी का सफल व कुशल संचालन व नियंत्रण  डाॅ. रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया तथा श्रीमती रश्मि संजय श्रीवास्तव 'लहर' लखनऊ ने आभार प्रदर्शित किया।

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मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक और हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि भारतीय साहित्य को रामाश्रयी काव्यधारा और गोस्वामी तुलसीदास का योगदान अविस्मरणीय है। रामकाव्य धारा का प्रवर्तन वैष्णव संप्रदाय के स्वामी रामानंद से स्वीकार किया जाता है। इस काव्य का आधार संस्कृत साहित्य में उपलब्ध राम-काव्य और नाटक रहे हैं। इस धारा के कवियों ने राम के अवतारी स्वरूप को अंगीकार किया है। सभी रामभक्त कवि विष्णु के अवतार दशरथ - पुत्र राम के उपासक हैं। वे अवतारवाद में विश्वास करते हैं। साथ ही उनके राम परब्रह्म स्वरूप भी हैं। उनमें शील, शक्ति और सौंदर्य का समन्वय है। उनका अवतार लोक-मंगल के लिए हुआ है। रामचरितमानस में तुलसी ने आदर्श गृहस्थ, आदर्श समाज और आदर्श राज्य की कल्पना की है। राम-काव्य में ज्ञान, कर्म और भक्ति की अलग अलग महत्ता स्वीकार करते हुए भक्ति को उत्कृष्ट बताया गया है। तुलसी का मानस विविध मत वाद और समुदायों के बीच समन्वय का सेतु बनाता है। रामाश्रयी कवियों की भारतीय संस्कृति में पूर्ण आस्था रही। लोकहित के साथ-साथ उनकी भक्ति स्वांत: सुखाय थी। तुलसी के काव्य में चिरंतन और सार्वभौमिक जीवन सत्यों की अभिव्यक्ति की अपूर्व क्षमता है। उनके मानस का विश्व मानव पर गहरा प्रभाव पड़ा  है। निजी सम्बन्धों से लेकर समग्र विश्व के प्रति स्नेह-सम्बन्धों की प्रतिष्ठा  राम के समतामूलक जीवन दर्शन के केन्द्र में रही है।  लोकमानस पर अंकित राम का यह बिम्ब सदियों से अखंड मानवता की रक्षा का आधार है।













20211127

मालवी लोकोक्ति और मुहावरे : सदियों के अनुभव और ज्ञान की अक्षय निधि - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Malvi Proverbs and Idioms: A Treasure Trove of Centuries of Experience and Knowledge - Prof. Shailendra Kumar Sharma

मालवी लोकोक्ति और मुहावरे :  सदियों के अनुभव और ज्ञान की अक्षय निधि

प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा


भारत की बहुविध परम्पराओं की गहरी जड़ें लोक संस्कृति में मौजूद हैं। लोक-संस्कृति अतीत की भूली हुई कड़ी या आदिम न होकर सतत वर्तमान है, आज भी हमारे जीवन का अविभाज्य अंग है। लोक-चेतना की यह धारा अविच्छिन्न रूप से सतत प्रवहमान है। वैसे तो परिवर्तन इस जगत् का शाश्वत नियम है, इससे लोक-संस्कृति कैसे अनछुई रह सकती है? उसमें भी पुनराविष्कार और संशोधन का क्रम निरंतर चलता आया है, किंतु उसकी मूल चेतना में सहजता, पारदर्शिता और तरलता सदैव बने रहे हैं। वह समय-समय पर बाहर से आगत तत्त्वों से भी अंतर्क्रिया करती आ रही है। ऐसा करते हुए वह स्वयं को और अधिक व्यापक बनाती चलती है। जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, चाहे वह भाषा हो या साहित्य, विविध कला रूप, आचार-विचार हो या रीति-रिवाज, वस्त्रभूषा हो या खानपान के तरीके, इनमें से कुछ भी लोक परम्परा से विच्छिन्न नहीं है। भारत की लोक और जनजातीय संस्कृति में गहरी संवेदना और ऊर्जा व्याप्त है। उनसे दूरी के दुष्परिणाम आधुनिक समाज के विभिन्न घटकों पर दिखाई दे रहे हैं। इसके अभाव में संस्कृति की नैसर्गिकता खो रही है।


लोक वस्तुतः जीवन्त और ठोस आधार पर गतिशील जन समुदाय का बोधक है। पाश्चात्य लोक तत्त्व विवेचकों ने प्रायः लोक को अविकसित या आदिम या रूढ़िग्रस्त जनसमूह के रूप में देखा है, किन्तु भारतीय संदर्भ में देखें तो ‘लोके वेदे च’ सूत्र का संकेत साफ है कि वेद या शास्त्र के समानांतर, किन्तु पूरक रूप में एक लोकधारा भी यहाँ सतत प्रवाहमान रही है, जो वेद से किसी भी आधार पर हीन नहीं है। इन दोनों धाराओं को समन्वय से ही भारत की पहचान बनी है।


मालवा लोक-साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यहाँ का लोकमानस अनेक सदियों से कथा-वार्ता, गाथा, गीत, नाट्य, पहेली, लोकोक्ति, मुहावरे आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता आ रहा है। जीवन का ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जब मालवजन अपने हर्ष-उल्लास, सुख-दुःख को दर्ज करने के लिये बहुवर्णी लोक-साहित्य का सहारा न लेता हो।  हाल के दशकों में मालवी लोक साहित्य और संस्कृति के विविध पहलुओं पर अनेक शोध, संकलन और प्रकाशन हुए हैं। इसी तरह नए मीडिया पर भी बहुत सी सामग्री उपलब्ध हो रही है। 

 



यह अत्यंत सुखद है कि मालवीमना रचनाकार और मनस्वी हेमलता शर्मा भोली बेन ने मालवा की समृद्ध लोक संपदा के संकलन - संपादन के साथ उसके गहन शोध में पहलकदमी की। वे लेखन, दृश्य श्रव्य माध्यम, ब्लॉग, यूट्यूब चैनल,  सोश्यल मीडिया जैसे अनेक माध्यमों से मालवी भाषा, साहित्य और संस्कृति की सेवा, संरक्षण और संवर्धन में जुटी हैं। उन्होंने हाल ही में मालवा क्षेत्र में प्रचलित लगभग एक हजार लोकोक्तियों और मुहावरों का संचयन किया है। पूर्व में मालवी लोकोक्ति और मुहावरों के कुछ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और कुछ शोधकर्ताओं ने इनका विविध दृष्टियों से अनुशीलन भी किया है। हेमलता शर्मा का यह प्रयास इस दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने अनेक बुजुर्गों और परिवारजनों से मिलकर बड़े परिश्रमपूर्वक इन लोकोक्ति और मुहावरों को जुटाया है और उनके अर्थ एवं प्रयोग भी प्रस्तुत किए हैं।  


लोकाक्ति या कहावत सुंदर रीति से कही गई उक्ति या कथन है, जिसकी लोक व्याप्ति कन्ठानुकंठ होती है। ये यूं ही नहीं गढ़ ली जातीं, बल्कि इनके पीछे अनेक सदियों का अनुभव और ज्ञान सन्निहित है। लोकोक्ति के पीछे कोई विशेष प्रसंग, कहानी या घटना होती है, उससे निकली बात बाद में लोगों की जु़बां पर चढ़ जाती हैं। घर - आँगन, खेत - खलिहान, चौपाल - चौबारे, पर्व - त्‍यौहार, मेले और बैठक लोकोक्तियों को अनायास आकार दे देते हैं और फिर ये वाचिक परम्परा का आधार पाकर काल और देश के दायरे से मुक्त हो जाती हैं। कई बार ये अन्य बोली और भाषा में सहज ही रूप परिवर्तन कर प्रचलित होने लगती हैं। लोकोक्तियाँ दिखने मेँ छोटी लगती हैँ, परन्तु उनमेँ गम्भीर विचार और भाव रहते हैं। लोकोक्तियोँ के प्रयोग से आम कथन से लेकर साहित्यिक रचना मेँ भाव एवं विचारगत विशेषता आ जाती है। मालवी लोकोक्तियों में जीवन का मर्म और अनुभव का सार देखने को मिलता है। इनके माध्‍यम से हम मालवा अंचल में वास करने वाले समुदायों की जीवन शैली का सम्यक् अध्‍ययन कर सकते हैं। इनमें लोक मानस के आस्था - विश्‍वास, लोक मान्यताएँ, रीति-रिवाज, खान - पान, रहन - सहन, स्‍वास्‍थ्‍य, लोक पर्व - उत्सव, लोक दर्शन सहित संस्‍कृति के विविध आयाम स्‍पष्‍ट छलकते हैं। मालवा क्षेत्र में प्रचलित कुछ रंजक लोकोक्तियाँ देखिए –

बोलता का बुरा भी बिकी जावे ने बिना बोलता कि जुवार भी नी बिके।

माल खाय माटी को ने गीत गाय बीरा का

शक्कर गरे तो हगरा भेरा वइ जा ने खाल गरे तो कोई नी

माल का मालिक सगला, खाल को कोई नी

जिको मांडवो बिगड़े उको ब्याव बिगड़े

आली लाकडी नमे ने सूख्यां पाछे टूटे

गरीब की जोरू आखा गाम की भाभी।


लोक जीवन में मुहावरों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः मुहावरा अरबी भाषा का शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'अभ्यास'। इनके प्रयोग से भाषा रोचक, रसपूर्ण एवं प्रभावी बन जाती है। इनके मूल रूप मेँ कभी परिवर्तन नहीँ होता अर्थात् इनमेँ से किसी भी शब्द का पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त नहीँ किया जा सकता। इसके क्रिया पद मेँ काल, पुरुष, वचन आदि के अनुरूप परिवर्तन अवश्य होता है। मुहावरा अपूर्ण वाक्य होता है। वाक्य प्रयोग करते समय यह वाक्य का अभिन्न अंग बन जाता है। इसीलिए इसका स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता है। दूसरी ओर लोकोक्तियाँ पूर्ण वाक्य के रूप में होती हैं और किसी बात की पुष्टि करते हुए इनका स्वतंत्र रूप से प्रयोग किया जा सकता है। मालवा में बहुप्रचलित कुछ मुहावरे देखिए, जिनकी अपनी खास भंगिमा है : 


गेले आणों, गेले जाणो

काम ती काम राखणो

दूसरा की पंचायती नी करनी

नाना मोटा को कण कयदो राखणो

चारी आड़ी का हापटा नी भरणा

मुंडा हामें को काम पेला करणो

सोची हमजी ने पग रखणो

फाटा में पग नी फसाणो

रोज ढांकी ने खाणो

जतरो पचे वतरो खाणो

हुणनी सबकी ने करनी मन की

दाँत काड़ी ने हामे आणो 

वगर काम के नी बोलणो

बीच-बीच में लाड़ा की भुवा नी वणनो

दूसरा की मजाक नी उड़ानी

वस्तुतः भाषा और बोलियाँ मनुष्य होने की पहचान हैं। वे मनुष्य के आन्तरिक और बाह्य जीवन को जोड़ती हैं। इस संसार को समझने और अभिव्यक्त करने के लिए माध्यम का काम करती हैं। मातृभाषा बच्चे अपने आप सीख लेते हैं, यद्यपि उसके साहित्यिक पक्ष का ज्ञान उन्हें अधिकतर औपचारिक शिक्षा के जरिए होता है। वर्तमान में अंग्रे़ज़ी हमारी शिक्षा - व्यवस्था में प्रमुख भाषा बनती जा रही है। अंग्रेज़ी का ज्ञान शिक्षित होने का पर्याय बनता जा रहा है। ऐसे में भारतीय भाषाओं और बोलियों की उपेक्षा हो रही है और उन्हें हीन भाव से देखा जा रहा है। हम यह भूल जाते हैं कि अंग्रेज़ी जानने वाला व्यक्ति भी अज्ञानी हो सकता है। इधर लोक बोली का प्रयोक्ता भी ज्ञान और अनुभव सम्पन्न हो सकता है, किंतु कई बार उन्हें अनदेखा किया जाता है। अंग्रेजी पर अतिनिर्भरता के कारण आज हमारा देश सभी क्षेत्रों में नकलचियों का देश बनकर रह गया है। महर्षि अरविन्द अपनी पुस्तक भारतीय संस्कृति के आधार में कहते हैं, प्राचीन भारत में जीवन के प्रत्येक पक्ष पर गंभीर सृजनात्मक कार्य हुआ था जो आज भी हमारे लिए आदर्श है। अंग्रेजी पर अनावश्यक निर्भरता के कारण हम अपनी भाषाओं में संचित ज्ञान संपदा से दूर हो रहे हैं। एक बार जे. कृष्णमूर्ति ने हताशा के स्वर में पूछा था, "इस देश की सृजनशीलता को क्या हो गया है।" प्राचीन काल में जब संसार के अधिकांश देशों का अस्तित्व भी नहीं था, न विकास का कोई मॉडल विद्यमान था, हमारे पूर्वजों ने अपनी भाषा संस्कृत और उसके स्थानीय रूपों के माध्यम से मानव जीवन के गहनतम रहस्यों को खोज लिया था, जो आज भी हमारे ही नहीं, समूची मानव जाति के लिए मार्गदर्शक हैं। एक विदेशी भाषा के अनुपातहीन महत्त्व से हमारी अपनी भाषाओं की उपेक्षा की हुई है और परिणामस्वरूप भारतीय मेधा का विकास अवरुद्ध हो गया है।


मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी सहित विविध भाषाएँ और बोलियाँ सदियों से हमारे घर – आँगन में संवेदना, ज्ञान, संस्कृति और परम्पराओं की संवाहिका बनी हुई हैं। हिंदी की विविध बोलियाँ सदियों से हिंदी की सहज संगिनी और आधार रही हैं और आगे भी रहेंगी।  इन्हें इसी रूप में जीवन्त बने रहना चाहिए, न कि राष्ट्रभाषा हिन्दी की विरोधिनी के रूप में उन्हें खड़े करना चाहिए। फिर इन बोलियों के कई स्थानीय रूप भी हैं, उनमें से किसे मानक भाषा का दर्जा दिया जाएगा, यह तय करना भी चुनौतीपूर्ण होगा। किसी भी एक बोली के अलग होने से निकटवर्ती बोलियाँ भी कमजोर होंगी और हिन्दी भी। पड़ोसी बोलियों के मध्य रिश्तों में कटुता आएगी और हिन्दी का तो इससे बहुत अधिक अहित होगा। भारतीय भाषाओं और बोलियों के ऐक्य बन्धन को अधिक मजबूती के साथ निरन्तर बने रहना चाहिए, इसी में सबका हित है। 


वर्तमान में मालवी लोक संपदा के संरक्षण – संवर्द्धन  की दिशा में व्यापक प्रयत्नों की दरकार है। हेमलता शर्मा ने विविध रूपों में मालवी की सेवा का दृढ़ संकल्प लिया है, जिसके एक पुष्प के रूप में अपणो मालवो के अंतर्गत मालवी कहावतों और मुहावरों का संग्रह प्रकाश में आया है। विश्वास है लोक भाषा के प्रेमी इसका अंतर्मन से स्वागत करेंगे और अपने जीवन में इस लोक संपदा के भाषिक प्रयोगों के लिए सदैव तत्पर रहेंगे। 


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

विभागाध्यक्ष

हिंदी विभाग 

कुलानुशासक 

विक्रम विश्वविद्यालय 

उज्जैन मध्यप्रदेश 


20211113

All India Kalidas Samaroh Invitation | अखिल भारतीय कालिदास समारोह : आमंत्रण

अखिल भारतीय कालिदास समारोह : 15 - 21 नवम्बर 2021 

समस्त सारस्वत एवं सांस्कृतिक आयोजनों में आपकी उपस्थिति सादर प्रार्थनीय है। 


राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी : शोध पत्र प्रस्तुति के लिए आमंत्रण 

https://drshailendrasharma.blogspot.com/2021/11/all-india-kalidas-festival-national.html







































वागर्चन





वागर्चन : अखिल भारतीय कालिदास समारोह के अवसर पर शनिवार महाकवि कालिदास की आराध्या भगवती गढ़कालिका का पूजन एवं विविध स्तोत्रों का पाठ गढ़कालिका मंदिर पर किया गया और समारोह के निर्विघ्न सम्पन्न होने की प्रार्थना की गई। 


राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी

15 से 21 नवम्बर 2021, उज्जैन 

मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग के तत्वावधान में विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन और कालिदास संस्कृत अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद द्वारा अखिल भारतीय कालिदास समारोह का आयोजन दिनांक 15 नवंबर से 21 नवंबर 2021 तक उज्जैन में किया जा रहा है। इस अवसर पर कालिदास साहित्य के विविध पक्षों से जुड़े शोध पत्रों की प्रस्तुति के लिए राष्ट्रीय संगोष्ठी के चार सत्र कालिदास समिति, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन द्वारा अभिरंग नाट्यगृह, कालिदास संस्कृत अकादमी में आयोजित किए जाएंगे।

प्रथम सत्र : दिनांक 16 नवम्बर 2021, दोपहर 2:30 बजे 

द्वितीय सत्र : दिनांक 17 नवम्बर 2021, दोपहर 3:00 बजे

तृतीय सत्र : विक्रम कालिदास पुरस्कार के लिए चयनित शोध पत्र  : दिनांक 18 नवम्बर 2021, दोपहर 3:00 बजे

चतुर्थ सत्र : दिनांक 19 नवम्बर 2021, प्रातः 10:00

शोध पत्र संगोष्ठी के इन महत्त्वपूर्ण सत्रों के लिए सुधी प्राध्यापकों, साहित्यकारों, शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों से कालिदास साहित्य से सम्बद्ध विषयों पर शोध पत्र आमंत्रित हैं। शोध पत्र साहित्य, कला, वास्तु, संस्कृति, इतिहास, पुरातत्व, विज्ञान, पर्यावरण, दर्शन,  जीवन मूल्य, शिक्षा,  समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र आदि के परिप्रेक्ष्य में कालिदास साहित्य के किसी पक्ष से जुड़े हो सकते हैं। 

सभी सुधीजन कालिदास साहित्य के विविध आयामों पर स्वतंत्र रूप से या अंतरानुशासनिक दृष्टि से शोध पत्र प्रस्तुति के लिए सादर आमंत्रित हैं।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं कुलानुशासक
हिंदी विभागाध्यक्ष 
सचिव कालिदास समिति
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन

विशेष जानकारी एवं पंजीयन के लिए संपर्क करें :

कालिदास समिति कार्यालय,

सिंधिया प्राच्य विद्या शोध प्रतिष्ठान, विक्रम विश्वविद्यालय, देवास रोड  (ऋषि नगर पेट्रोल पंप के सामने) उज्जैन

मोबाइल : 9630447895

मोबाइल : 9926396081



विक्रम पत्रिका के कालिदास विशेषांक के लिए लिंक पर जाएं







20211111

All India Kalidas Festival | National Seminar |अखिल भारतीय कालिदास समारोह | राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी

अखिल भारतीय कालिदास समारोह 

राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी

सादर आमंत्रण


15 से 21 नवम्बर 2021, उज्जैन 

मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग के तत्वावधान में विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन और कालिदास संस्कृत अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद द्वारा अखिल भारतीय कालिदास समारोह का आयोजन दिनांक 15 नवंबर से 21 नवंबर 2021 तक उज्जैन में किया जा रहा है। इस अवसर पर कालिदास साहित्य के विविध पक्षों से जुड़े शोध पत्रों की प्रस्तुति के लिए राष्ट्रीय संगोष्ठी के चार सत्र कालिदास समिति, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन द्वारा अभिरंग नाट्यगृह, कालिदास संस्कृत अकादमी में आयोजित किए जाएंगे।

प्रथम सत्र : दिनांक 16 नवम्बर 2021, दोपहर 2:30 बजे 

द्वितीय सत्र : दिनांक 17 नवम्बर 2021, दोपहर 3:00 बजे

तृतीय सत्र : विक्रम कालिदास पुरस्कार के लिए चयनित शोध पत्र  : दिनांक 18 नवम्बर 2021, दोपहर 3:00 बजे

चतुर्थ सत्र : दिनांक 19 नवम्बर 2021, प्रातः 10:00

शोध पत्र संगोष्ठी के इन महत्त्वपूर्ण सत्रों के लिए सुधी प्राध्यापकों, साहित्यकारों, शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों से कालिदास साहित्य से सम्बद्ध विषयों पर शोध पत्र आमंत्रित हैं। शोध पत्र साहित्य, कला, वास्तु, संस्कृति, इतिहास, पुरातत्व, विज्ञान, पर्यावरण, दर्शन,  जीवन मूल्य, शिक्षा,  समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र आदि के परिप्रेक्ष्य में कालिदास साहित्य के किसी पक्ष से जुड़े हो सकते हैं। 

सभी सुधीजन कालिदास साहित्य के विविध आयामों पर स्वतंत्र रूप से या अंतरानुशासनिक दृष्टि से शोध पत्र प्रस्तुति के लिए सादर आमंत्रित हैं।




अखिल भारतीय कालिदास समारोह के अवसर पर आयोजित समस्त सांस्कृतिक एवं सारस्वत आयोजनों में आपकी उपस्थिति सादर प्रार्थनीय है।


प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा

सचिव, कालिदास समिति एवं 

कुलानुशासक

कला संकायाध्यक्ष

विक्रम विश्वविद्यालय

उज्जैन मध्यप्रदेश

मोबाइल : 9826047765 


विशेष जानकारी एवं पंजीयन के लिए संपर्क करें :

कालिदास समिति कार्यालय,

सिंधिया प्राच्य विद्या शोध प्रतिष्ठान, विक्रम विश्वविद्यालय, देवास रोड  (ऋषि नगर पेट्रोल पंप के सामने) उज्जैन

मोबाइल : 9630447895

मोबाइल : 9926396081


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https://drshailendrasharma.blogspot.com/2020/11/vikram-kalidas-special-number-editor.html










20210810

महाराष्ट्र के शिखर संत : ज्ञानेश्वर और तुकड़ो जी - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Top Saints of Maharashtra: Gyaneshwar and Tukado Ji - Prof. Shailendra Kumar Sharma |

मानवता के प्रसार की दृष्टि से अविस्मरणीय है संतों का संदेश – प्रो शर्मा 

महाराष्ट्र के शिखर संतों का ज्ञान एवं गुरु परंपरा पर राष्ट्रीय आभासी संगोष्ठी सम्पन्न  

प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसका विषय महाराष्ट्र के शिखर संतों का ज्ञान एवं गुरु परंपरा था। आभासी पटल पर मुख्य अतिथि श्री विलासराव देशमुख, मुंबई महाराष्ट्र थे। विशिष्ट वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा, प्राचार्य डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, श्री दिलीप चव्हाण, मुंबई, श्री बाला साहब तोरस्कर मुंबई, डॉ प्रभु चौधरी, डॉ सुरेखा मंत्री, यवतमाल थे। अध्यक्षता श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने की।




मुख्य अतिथि के रूप में श्री विलासराव देशमुख, मुंबई महाराष्ट्र ने कहा कि ज्ञानेश्वर जी अपनी स्वतंत्र बुद्धि और गुरु भक्ति के लिए जाने जाते हैं। संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र के एक अनमोल रत्न हैं। श्रोताओं की प्रार्थना, मराठी भाषा के  अभिमान, गीता के स्तवन, श्री कृष्ण और अर्जुन का अकृत्रिम स्नेह इत्यादि विषयों ने ज्ञानेश्वर को विशेष बना दिया है। संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र के सांस्कृतिक और परमार्थिक क्षेत्र के 'न भूतो न भविष्यति' जैसे बेजोड़ व्यक्तित्व  एवं अलौकिक चरित्र हैं।




विशिष्ट अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि महाराष्ट्र के सभी संतों का संदेश मानवता के प्रसार की दृष्टि से अविस्मरणीय है। संत तुकड़ो जी शांति, समन्वय और परस्पर प्रेम के उद्गायक थे। उन्होंने राष्ट्र भक्ति को ईश्वर भक्ति के समान महत्त्व दिया। वे हिंद के पुत्रों से अपने-अपने मत और पंथ छोड़कर भारत मत पर चलने का आह्वान करते हैं। भक्ति के साथ-साथ सामाजिक चेतना पर उन्होंने विशेष बल दिया। उनकी वाणी में अनेक जीवन मूल्य दिखाई देते हैं। वे सारे संसार को मोती की माला में पिरोने पर विश्वास रखते थे। उनके पास स्वानुभूत दृष्टि थी और उन्होंने अपने पूरे जीवन में हृदय की पवित्रता और किसी के लिए भी मन में द्वेषभाव न रखने का पाठ पढ़ाया।



अध्यक्षता कर रहीं श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई ने कहा कि महाराष्ट्र संतों की भूमि है। अनेक संतों के विचार आज भी समाज में प्रासंगिक बने हुए हैं, उनमें से ज्ञानेश्वर और राष्ट्र संत तुकड़ो जी प्रमुख हैं। मनी नाही भाव म्हणे देवा मला पाव, अशान  देव काही भेटायचा नाही रे। देव काही बाजारचा भाजीपाला नाही रे। ऐसे आसान शब्दों में भक्ति सिखलायी। उन्होंने अंधश्रद्धा निर्मूलन का काम किया। ज्ञानेश्वर माऊली ने  ज्ञानेश्वरी लिखी। उन्होंने सरल शब्दो में भागवत धर्म समझाया। उन्होंने पसायदान भी लिखा।




विशिष्ट अतिथि श्री दिलीप चव्हाण, मुंबई, महाराष्ट्र ने कहा कि भारत के महाराष्ट्र को संतों की भूमि कहा जाता है। महाराष्ट्र की धरती पर कई महान संतों ने जन्म लिया, जिनमें एक थे संत ज्ञानेश्वर। वे संत होने के साथ-साथ एक महान कवि भी थे। महान संत ज्ञानेश्वर जी ने संपूर्ण महाराष्ट्र राज्य का भ्रमण कर लोगों को ज्ञान भक्ति से परिचय कराया एवं समता और समभाव का उपदेश दिया।  तेरहवीं सदी के महान संत होने के साथ-साथ वे महाराष्ट्र संस्कृति के प्रवर्तकों में से भी एक माने जाते थे।


मुख्य वक्ता डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे महाराष्ट्र ने कहा कि संत ज्ञानेश्वर मुख्य संतों में से एक हैं। ज्ञानेश्वरी गीता पर आधारित है। ज्ञानेश्वर ने केवल 15 वर्ष की उम्र में ही गीता पर मराठी में ज्ञानेश्वरी नामक भाष्य की रचना करके जनता की भाषा में ज्ञान की झोली खोल दी। उन्होंने गीता को समाज के सामने रखा। संत ज्ञानेश्वर जी ने अपने ज्ञान तत्व को समझाया है। शांत रस की प्रधानता है साथ ही ज्ञानेश्वरी में कर्म के महत्त्व को बताया है।


विशिष्ट वक्ता डॉ सुरेखा मंत्री, महाराष्ट्र ने कहा कि संत ज्ञानेश्वर जी के प्रचंड साहित्य में कहीं भी, किसी के विरुद्ध परिवाद नहीं है। क्रोध, रोष, ईर्ष्या, मत्सर का कहीं लेश मात्र भी नहीं है। समग्र ज्ञानेश्वरी क्षमाशीलता का विराट प्रवचन है।


विशिष्ट अतिथि श्री बालासाहेब तोरस्कर, महाराष्ट्र में कहा कि संत परंपरा में गुरु परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। संत तुकड़ोजी समाज के प्रति आस्था रखते थे। भारत के प्रति उनका अगाध प्रेम था, देश के प्रति प्रेम भावना था। तुकड़ोजी ने सामूहिक प्रार्थना पर बल दिया। संपूर्ण विश्व में उनकी प्रार्थना पद्धति अतुलनीय थी।


गोष्ठी का प्रारंभ डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर, छत्तीसगढ़ के सरस्वती वंदना हे शारदे मां हे शारदे मां से हुआ। स्वागत उद्बोधन राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना महाराष्ट्र प्रदेश अध्यक्ष डॉ. भरत शेणकर  ने दिया। प्रस्ताविक भाषण में राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना के  महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने लिए कहा कि संत तुकड़ोजी महाराज के कार्य और उनकी ख्याति दूर-दूर तक है। महात्मा गांधी द्वारा सेवाग्राम आश्रम में उन्हें निमंत्रित किया गया, जहां वे लगभग एक महीने रहे। उसके बाद तुकडो़जी ने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कार्यक्रमों द्वारा समाज में जनजागृति का काम प्रारंभ कर दिया।  महासचिव डॉ प्रभु चौधरी के जन्म दिवस पर काव्य गोष्ठी आयोजन के प्रतिभागियों में प्रथम कुमुद शर्मा गुवाहाटी, द्वितीय सुनीता गर्ग पंचकूला, तृतीय भुनेश्वरी साहू छत्तीसगढ़ को सम्मान पत्र वितरित किया गया।

इस आभासी गोष्ठी में अनेक शिक्षाविद विद्वत जन उपस्थित थे। आभार डॉ अरुणा दुबे, महाराष्ट्र ने व्यक्त किया। कार्यक्रम का संचालन प्राध्यापिका रोहिणी डावरे, अकोले महाराष्ट्र ने किया।





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