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20210110

दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में संभावनाओं की तलाश - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Hindi in the World: Exploring Possibilities in the Twenty-first Century - Prof. Shailendra Kumar Sharma

यूनाइटेड नेशंस में हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए सौ से अधिक देशों में बसे भारतीय संकल्प लें


स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी में प्रकाशन की राह खुली


दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में  संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी 


विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर भारत नॉर्वेजियन सांस्कृतिक फोरम, ओस्लो, नॉर्वे, स्पाइल दर्पण और वैश्विका अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया।  कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली के चेयरमैन प्रोफेसर अवनीश कुमार, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक एवं समालोचक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा एवं विख्यात नृतत्त्वशास्त्री प्रो मोहनकान्त गौतम, नीदरलैंड थे। आयोजन की पीठिका प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार, अनुवादक और मीडिया विशेषज्ञ श्री शरद चन्द्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने प्रस्तुत की। 


दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी की संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी

संगोष्ठी का प्रसारण फेसबुक पर देखा जा सकता है : 

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10224227242325952&id=1149296433







आयोजन की विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ कवयित्री श्रीमती जय वर्मा, यूके, श्री रवि शर्मा, लन्दन, डॉ विनोद कालरा, जालन्धर, श्री सुरेश पांडेय, स्टॉकहोम, स्वीडन, डॉ ऋचा पांडेय, लखनऊ, डॉ मुकेश कुमार मिश्र, बस्ती, श्री अभिषेक त्रिपाठी, बेलफास्ट, आयरलैंड, श्रीमती संगीता शुक्ला दिदरेक्सन, ओस्लो, नॉर्वे आदि ने हिंदी के वैश्विक परिदृश्य पर प्रकाश डाला। यह संगोष्ठी दुनिया में हिंदी : इक्कीसवीं सदी में संभावनाओं की तलाश पर केंद्रित थी।




 


मुख्य वक्ता लेखक एवं आलोचक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि हिंदी भारतीय संस्कृति और हमारी अस्मिता को आधार देती है। हिंदी सहित भारतीय भाषाएं सही अर्थों में ऐश्वर्य प्रदान करने का माध्यम हैं। प्रवासी भारतीय अपनी भाषाओं को प्रोत्साहन देते हुए आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। यूनाइटेड नेशंस में हिंदी की प्रतिष्ठा हो, एक सौ दस से अधिक देशों में बसे भारतीय इसका संकल्प लें। दुनिया के विभिन्न भागों में अनेक स्वैच्छिक और साहित्यिक संस्थाएं हिंदी के प्रसार का काम कर रही हैं, उन्हें नए परिवेश के अनुरूप आधार मिलना चाहिए। देवनागरी के साथ हिंदी के नैसर्गिक रिश्ते को व्यापक फलक पर प्रसारित करने की आवश्यकता है। इक्कीसवीं सदी हिंदी की है। शिक्षा, अनुसंधान, सांस्कृतिक - भावात्मक एकता, साहित्यिक अभिव्यक्ति और जनसंचार माध्यमों से  हिंदी की नई संभावनाएं उजागर हो रही हैं। विश्व हिंदी दिवस को मनाते हुए हिंदी के साथ आत्म स्वाभिमान का भाव जगाना होगा।





 
वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली के चेयरमैन प्रो अवनीश कुमार ने कहा कि हिंदी के विकास में विदेशों में बसे भारतीय महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। आभासीय माध्यम से लोग परस्पर जुड़ रहे हैं। नए दौर में दूरियां कम हुई हैं। हिंदी एवं विदेशी भाषाओं के बीच परस्पर अनुवाद कार्य में तेजी आनी चाहिए। भारत सरकार के विभिन्न संस्थानों के द्वारा शब्दावली निर्माण, शब्दकोश एवं विश्वकोश के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया है। ये सभी पारस्परिक अनुवाद के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। नई शिक्षा नीति में  मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा पर बल दिया गया है। इससे मौलिक चिंतन में वृद्धि होती है।




वरिष्ठ लेखक एवं नृतत्त्वशास्त्री प्रोफेसर मोहनकांत गौतम, नीदरलैंड ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि प्रवासी भारतीयों ने भारत के बाहर हिंदी के लिए बहुत कार्य किया है। उनके काम को भारत में प्रचार प्रसार मिलना चाहिए। भारत हम लोगों के लिए माता पिता की तरह है, वहां से प्रेरणा और प्रोत्साहन मिले, यह जरूरी है। भारतीय स्कूलों में पाठ्यक्रम के माध्यम से यह बताया जाए कि प्रवासी भारतीयों ने अनेक चुनौतियों के बावजूद बाहर जाकर क्या किया। भारत से बाहर बसे लोग भारत को निरंतर ढूंढते रहते हैं। सांस्कृतिक और भाषाई एकता से सारी दुनिया में बसे भारतवंशी जुड़ें, यह जरूरी है। हिंदी का व्याकरण लेटिन भाषा के अनुसार बना है। संस्कृत का व्याकरण संज्ञा केंद्रित है, जबकि हिंदी का व्याकरण लेटिन भाषा के अनुकरण के कारण क्रिया केंद्रित बन गया है। उन्होंने साउथ एशियन लिटरेचर एंड लैंग्वेज एसोसिएशन जैसी संस्था के निर्माण की आवश्यकता पर बल दिया, जो हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं और साहित्य के विकास के लिए कारगर सिद्ध होगी।




वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ने नॉर्वे सहित  स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी की  प्रगति और संभावनाओं पर प्रकाश डाला।  उन्होंने कहा कि स्कैंडिनेवियन देशों में हिंदी में प्रकाशन की राह खुली है। श्री शुक्ल ने विगत दिनों प्रकाशित चर्चित काव्य संग्रह लॉक डाउन की चुनिंदा रचनाओं का पाठ किया।  


वरिष्ठ प्रवासी कवयित्री श्रीमती जय वर्मा, यूके ने अपनी कविता मैं सबकी प्रिय हिंदी हूँ सुनाई। उनकी एक रचना की पंक्तियों ने भरपूर दाद बटोरी, चल निकल चलें तेरे जहां गुलिस्ता से, कौन जानता है कि राह किधर ले जाए। 


डॉ ऋचा पांडेय, लखनऊ ने श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक द्वारा कोविड-19 महामारी के दौर की संवेदनाओं को लेकर दुनिया की किसी भी भाषा में रचित पहली काव्य कृति लॉक डाउन की समीक्षा प्रस्तुत की।




प्रो आशुतोष तिवारी, स्वीडन ने कहा कि प्रवासी भारतीयों के मन में भारत बसता है। वे वैश्विक मंच पर हिंदी को पहुंचा रहे हैं। भाषा लोगों को जोड़ती है उससे सामाजिक दृष्टिकोण विकसित होता है। स्वीडन में हिंदी में प्रकाशन किया जा रहा है।




श्रीमती संगीता शुक्ला दिदरेक्सन, नॉर्वे ने हिंदी शिक्षण के लिए नॉर्वे में उनके द्वारा प्रारंभ किए गए पहले स्कूल के अनुभवों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि हिंदी के जरिए भारतीय संस्कृति से जुड़ाव हो, यह जरूरी है। बच्चों को खेल, कविता, नृत्य, नाटक आदि गतिविधियों के माध्यम से हिंदी से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। मातृभाषा वास्तविक भावनाओं की भाषा होती है। बच्चे मातृभाषा के माध्यम से जल्दी सीख सकते हैं। पारिवारिक भावना का विकास भी इसके माध्यम से किया जा सकता है।


श्री रवि शर्मा, लंदन ने कहा कि हिंदी के विस्तार में सिनेगीतों का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपना गीत सुनाया जिसकी पंक्तियाँ थीं, बिना हम सफर के सफर कम नहीं था, पुरानी थी नैया भंवर कम नहीं था।


डॉक्टर गंगाधर वानोड़े, हैदराबाद ने कहा कि देश विदेश में हिंदी प्रचार - प्रसार के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। लगभग पचास देशों के विद्यार्थी केंद्रीय हिंदी संस्थान में अध्ययन कर रहे हैं। संस्थान द्वारा विभिन्न भाषाओं के अध्येता कोशों और पाठमालाओं का प्रकाशन किया गया है।


कार्यक्रम में डॉ मुकेश मिश्र, बस्ती ने भी विचार व्यक्त किए। 


डॉ विनोद कालरा, जालंधर ने कहा कि हिंदी हमारी अस्मिता के केंद्र में हैं। हमारा हर पल, हर क्षण हिंदी का हो यह आवश्यक है। उन्होंने मैं खुशबू बन कर लौटूंगी शीर्षक कविता सुनाई,  जिसकी पंक्तियां थीं, तुम भले ही मुझे भूल चुके, मैं तेरे जीवन के आंगन में खुशबू बनकर लौटूंगी।


श्री प्रवीण गुप्ता, नॉर्वे, श्री सुरेश पांडेय, स्वीडन एवं श्री गुरु शर्मा ओस्लो ने अपनी कविताएँ सुनाईं। श्री अभिषेक त्रिपाठी, आयरलैंड ने यह जो अपनी हिंदी है और सूरज और दीपक के संवाद पर केंद्रित कविता सुनाईं।

कार्यक्रम का जीवंत प्रसारण सोशल मीडिया के माध्यम से किया गया, जिसे देश दुनिया के सैकड़ों लोगों ने देखा। 


कार्यक्रम का संयोजन वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक ने किया।


ज्ञातव्य है कि विश्व हिंदी दिवस  प्रत्येक वर्ष 10 जनवरी को पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तराष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है। देश दुनिया की हिंदी सेवी संस्थाओं और सरकारी विभागों के साथ विदेशों में भारत के दूतावास इस दिन को विशेष रूप से मनाते हैं।

20210108

आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी का आलोचनात्मक योगदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Critical Contribution of Dr. Rammurti Tripathi - Prof. Shailendra Kumar Sharma

ध्वनि और रस सिद्धांत पर आचार्य त्रिपाठी का योगदान अद्वितीय  


शंकराचार्य स्वामी दिव्यानंद तीर्थ एवं आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जयंती समारोह 


मध्यप्रदेश लेखक संघ द्वारा चार धाम मंदिर सभागार में आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी एवं भानपुरा पीठ के शंकराचार्य स्वामी दिव्यानन्द तीर्थ जयंती समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि महामंडलेश्वर श्री शांतिस्वरूपानंद जी थे।  विशिष्ट अतिथि श्री नारदानन्द जी, कुलपति प्रोफेसर अखिलेश कुमार पांडेय एवं पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर बालकृष्ण शर्मा थे। प्रमुख वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा एवं प्रो शैलेंद्र पाराशर ने विचार व्यक्त किए। संस्थाध्यक्ष प्रो हरिमोहन बुधौलिया ने कार्यक्रम की पीठिका प्रस्तुत की।




प्रो बालकृष्ण शर्मा ने आदि शंकराचार्य के बहुआयामी व्यक्तित्व और योगदान प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आदि शंकराचार्य ने अल्प वय में भारतीय दर्शन, भक्ति, संस्कृति और राष्ट्रीय एकता के लिए महत्वपूर्ण अवदान दिया। स्वामी दिव्यानंद तीर्थ ने उनकी परंपरा को नए दौर में जीवंत किया। 





प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के योगदान पर केंद्रित व्याख्यान देते हुए कहा कि आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी ने चिंतन और समालोचना में दुर्गम पथ चुना था, जिस पर वे आजीवन चलते रहे। भारतीय ज्ञान परम्परा के प्रति गहन निष्ठा,  काव्यशास्त्रीय चिंतन की पुनराख्या, प्राचीन और नवीन रचनाधर्मिता की तलस्पर्शी आलोचना और आगमिक दृष्टि से काव्य एवं काव्यशास्त्र की पड़ताल आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी को समूची आलोचना धारा में अद्वितीय बनाते हैं।  आलोचना के क्षेत्र में ध्वनि और रस सिद्धांत पर उनका योगदान अनुपम है, जो सदैव याद किया जाएगा। भारत की पहचान के अभिलक्षणों के प्रसार के लिए वे निरन्तर गतिशील बने रहे। 




प्रोफेसर शैलेंद्र पाराशर ने आचार्य त्रिपाठी के साहित्यिक लेखन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि त्रिपाठी जी का संपूर्ण जीवन अध्ययन ,अध्यापन, लेखन एवं प्रबोधन को समर्पित रहा।



कार्यक्रम में पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर बालकृष्ण शर्मा को शंकराचार्य दिव्यानंद तीर्थ सम्मान तथा साहित्यकार डॉ देवेंद्र जोशी को आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से महामंडलेश्वर श्री शांति स्वरूपानंद जी , स्वामी नारदानन्द जी एवं अतिथियों ने सम्मानित किया। 


अभिनंदन पत्र का वाचन  साहित्यकार डॉ हरीश कुमार सिंह एवं श्री सूरज नागर उज्जैनी ने किया।







सरस्वती वंदना श्रीमती सीमा जोशी ने की। साहित्य सारथी कैलेंडर का विमोचन डॉ हरीशकुमार सिंह ने करवाया। 


कार्यक्रम में डॉ पुष्पा चौरसिया, डॉ अभिलाषा शर्मा,डॉ रफीक नागौरी, संतोष सुपेकर आदि सहित अनेक साहित्यकार उपस्थित थे।


कार्यक्रम का  संयोजन डॉ देवेंद्र जोशी ने किया। आभार प्रदर्शन प्रोफेसर हरिमोहन बुधौलिया ने किया।















चार्य 




राममूर्ति त्रिपाठी जयंती


20210106

सावित्रीबाई फुले : शिक्षा और सामाजिक सरोकार - प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा | Savitribai Phule : Education and Social Concerns - Prof. Shailendra Kumar Sharma

स्त्री शिक्षा के वैश्विक परिदृश्य में सावित्रीबाई फुले का योगदान अद्वितीय है  – प्रो शर्मा 


सावित्रीबाई फुले : शिक्षा और सामाजिक सरोकार पर केंद्रित राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी 


देश की प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा राष्ट्रीय वेब  संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें देश - दुनिया के साहित्यकारों और विद्वान वक्ताओं ने भाग लिया।  यह संगोष्ठी सावित्रीबाई फुले  : शिक्षा और सामाजिक सरोकार  पर केंद्रित थी।


कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। संगोष्ठी की विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती सुवर्णा जाधव, मुंबई, शिक्षाविद डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, महासचिव डॉ प्रभु चौधरी एवं उपस्थित वक्ताओं ने श्रीमती सावित्रीबाई फुले के योगदान पर प्रकाश डाला।  कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ शिवा लोहारिया, जयपुर ने की। 




मुख्य अतिथि लेखक एवं आलोचक प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि माता को सर्वोच्च गुरु का दर्जा देने वाले समाज में मध्ययुग में स्त्री शिक्षा की उपेक्षा की गई, जिसका सार्थक प्रतिरोध नवजागरण की पुरोधा सावित्रीबाई फुले ने किया। उन्होंने भारतीय समाज को व्यापक परिवर्तन के लिए तैयार किया। स्त्री शिक्षा की राह उनके द्वारा किए गए क्रांतिकारी  प्रयासों से सुगम हुई। स्त्री शिक्षा और सशक्तीकरण के वैश्विक परिदृश्य में सावित्रीबाई फुले का योगदान अद्वितीय है। भारतीय समाज, धर्म, इतिहास और परम्परा के सत्य शोधन के लिए उन्होंने ज्योतिबा फुले के साथ  महत्त्वपूर्ण कार्य किए। सामाजिक रूढ़ियों और जात पात के बंधन को तोड़ने में फुले दंपति ने अविस्मरणीय योगदान दिया। सावित्रीबाई फुले की कविताओं में उनके समय का दर्द और आक्रोश मुखरित हुआ है। उन्होंने प्रकृतिविषयक कविताओं के माध्यम से भी महत्त्वपूर्ण सन्देश दिए हैं।









विशिष्ट अतिथि डॉ सुवर्णा जाधव ने कहा कि एक प्रसिद्ध उक्ति है कि जब औरत पढ़ - लिख लेती है तो दोनों घरों को उजाला देती है। इसे सावित्रीबाई फुले ने व्यापक संदर्भों में चरितार्थ किया। उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण प्रयत्नों के कारण स्त्री शिक्षा की राह खुली। सावित्रीबाई फुले ने महिला मंडलों के माध्यम से महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके जन्मदिवस को बालिका दिवस के रूप में मनाया जाता है।



विशिष्ट अतिथि डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि सावित्रीबाई फुले ने स्त्री शिक्षा के लिए कार्य करते हुए अनेक यातनाएं झेलीं, लेकिन वे अपने पथ से दूर नहीं हुईं। उनका कार्य अनुपम है। रूढ़ियों से मुक्त कर आधुनिक विचारों का बीजवपन करना उनका उद्देश्य था। 

डॉ दत्तात्रेय टिलेकर, ओतुर ने कहा कि सावित्री बाई फुले को आद्य शिक्षिका के रूप में सम्मान मिला है। उन्होंने महिला शाला, प्रौढ़ शिक्षा, आनंददायी शिक्षा और सूत कताई की आधारशिला रखी। 



संस्था के महासचिव डॉक्टर प्रभु चौधरी ने सावित्रीबाई फुले के बहुआयामी व्यक्तित्व और योगदान पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि सावित्रीबाई फुले की पुण्य तिथि पर मातृशक्ति सम्मान समारोह का आयोजन 7 एवं 8 मार्च 2021 को जयपुर में किया जाएगा। 



अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉक्टर शिवा लोहारिया ने कहा कि सावित्रीबाई फुले का संदेश है कि हम सब मिलकर सभी वर्ग की महिलाओं की शिक्षा और उन्नति के लिए कार्य करें। 



डॉ रजिया शहनाज शेख, राष्ट्रीय सचिव ने कहा कि सावित्रीबाई फुले ने स्त्री शिक्षा के साथ विधवा पुनर्विवाह के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने अस्पृश्यता और बाल विवाह का विरोध किया। फातिमा शेख जैसी अनेक स्त्रियों को उन्होंने शिक्षित किया, जिन्होंने बाद में उनके साथ इस दिशा में गम्भीर कार्य किए। स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए उल्लेखनीय योगदान के लिए ब्रिटिश शासन ने उनका सम्मान किया था।



डॉ भरत शेणकर, अहमदनगर के जन्मदिवस पर उनका सारस्वत सम्मान अतिथियों द्वारा किया गया। डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर ने डॉ शेणकर के योगदान पर प्रकाश डाला। वाग्देवी की वंदना डॉ संगीता पाल कच्छ में प्रस्तुत की तथा अतिथि परिचय डॉ संगीता बल्लाल ने दिया। कार्यक्रम को संबोधित करने वालों में प्रमुख थे नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली के महामंत्री डॉक्टरी हरिसिंह पाल, संस्था अध्यक्ष श्री ब्रजकिशोर शर्मा, गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी, प्रयागराज, श्रीमती लता जोशी, मुंबई, अनिल ओझा, इंदौर  आदि।



राष्ट्रीय संगोष्ठी में साहित्यकार एवं संस्था की राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष डॉक्टर सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ भरत शेणकर, अहमदनगर, श्री अनिल काले, डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ पूर्णिमा कौशिक, रायपुर, डॉ शिवा लोहारिया, जयपुर, गरिमा गर्ग, पंचकूला, समीर सैयद, श्रीमती कुसुम लता कुसुम, नई दिल्ली आदि सहित अनेक साहित्यकारों ने भाग लिया।




संगोष्ठी के प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉ पूर्णिमा कौशिक, महासचिव, छत्तीसगढ़ इकाई, रायपुर ने की। स्वागत भाषण गरिमा गर्ग, राष्ट्रीय सचिव, पंचकूला, हरियाणा ने दिया। संस्था परिचय एवं प्रस्तावना डॉ राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ मुक्ता कौशिक, रायपुर ने प्रस्तुत की।  

राष्ट्रीय संगोष्ठी का संचालन साहित्यकार डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने किया। आभार प्रदर्शन शिवा लोहारिया, जयपुर ने किया।












 



सावित्रीबाई फुले जयंती प्रसङ्ग 


20210105

आलोचक आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी : बहुआयामी अवदान - प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा | Critic Acharya Ramamurthy Tripathi: Multidimensional Contribution : Prof. Shailendra Kumar Sharma

भारतीय साहित्य और काव्यशास्त्र के अद्वितीय मनीषी थे आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी 

आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जयंती महोत्सव एवं उनके बहुआयामी अवदान पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी

डॉ पन्नालाल आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से अलंकृत 

क्लैसिकी शोध संस्थान एवं हिंदी अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के संयुक्त तत्वावधान में प्रख्यात आलोचक और विद्वान आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी की 92 वीं जयंती के अवसर पर सारस्वत महोत्सव एवं राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि मध्यप्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ पन्नालाल थे। कार्यक्रम के सारस्वत अतिथि पूर्व संभागायुक्त एवं पूर्व कुलपति डॉ मोहन गुप्त थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने की। कार्यक्रम में श्रीधाम आश्रम के महंत श्री श्यामदास जी का सान्निध्य रहा।  विशिष्ट अतिथि प्रो गीता नायक, डॉ जगदीश चंद्र शर्मा, श्री जियालाल शर्मा एवं डॉ देवेंद्र जोशी थे। कार्यक्रम में डॉ पन्नालाल जी को उनके विशिष्ट योगदान के लिए आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से अलंकृत किया गया। 






प्रमुख अतिथि पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ पन्नालाल ने समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी भारतीय साहित्य और काव्यशास्त्र के अद्वितीय मनीषी थे। उन्हें हम किसी भाषा के दायरे में नहीं बांध सकते। उनकी आलोचना के केंद्र में काव्यगत चारुता की चर्चा आती है। इसके साथ ही वे रस और साधारणीकरण की चर्चा किया करते थे।  वे रसवादी आचार्य हैं। रचना से यदि आनंद मिलता है, वह सर्वोपरि होती है।







सारस्वत अतिथि डॉ मोहन गुप्त ने कहा कि आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी,  आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य नंददुलारे वाजपेयी की परंपरा को नई दिशा देने वाले साहित्य मनीषी और आलोचक हैं। उन्होंने प्राचीन से लेकर नवीन साहित्य सर्जना पर समीक्षा कार्य किया। उनके साहित्य सिद्धांतों और मीमांसा को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए व्यापक प्रयास किए जाने चाहिए। 





कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए लेखक एवं आलोचक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि आचार्य त्रिपाठी पिछली सदी के अपने ढंग के अनन्य आलोचक हैं। उनकी आलोचना दृष्टि भारतीय चिंतन धारा की ठोस आधार भूमि पर टिकी हुई है। ऐसे समय में जब पश्चिमी चिंतन से आक्रांत सर्जक और आलोचक आत्महीनता की स्थिति में आ गए थे, आचार्य त्रिपाठी ने अपनी जड़ों में अंतर्निहित काव्य दृष्टि की संभावनाओं को नए सिरे से उजागर किया। रस और ध्वनि जैसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को सतही तौर पर लेने वाले आलोचकों की अधूरी समझ और सीमाओं का उन्होंने पूरी दृढ़ता से प्रतिरोध किया। काव्य के रसात्मक प्रतिमान को वे सर्वोपरि महत्व देते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र के सिद्धांतों की पुनराख्या के साथ पश्चिम से आगत अनेक काव्य सिद्धांतों की सीमाओं को लेकर वे निरन्तर सजग करते हैं। उन्होंने आगम या तंत्र के आलोक में भारतीय साहित्य और काव्य चिंतन परम्परा के वैशिष्ट्य को प्रतिपादित किया, वहीं नई रचनाधर्मिता का तलस्पर्शी मूल्यांकन किया। 







विशिष्ट वक्ता डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी की आलोचना दृष्टि और आलोचना भाषा पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आचार्य त्रिपाठी ने अपने काव्यशास्त्रीय लेखन में भारतीय काव्य चिंतन की सभी मान्यताओं और सिद्धांतों को प्रामाणिक और अविकल रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने एक ही संप्रदाय के आचार्यों के मध्य परस्पर विचार भेद को भी प्रकट करने में संकोच नहीं किया। भारतीय काव्य विमर्श के सातत्य को उन्होंने रीतिकालीन कवि आचार्यों और आधुनिक हिंदी आलोचकों तक दिखाने का अत्यंत कठिन कार्य उन्होंने किया है। रीतिकालीन आचार्यों की मौलिकता और उनके काव्यशास्त्रीय योगदान की अत्यंत तार्किक मीमांसा त्रिपाठी जी ने की है। उनका संपूर्ण कृतित्व मूल्यवान और अर्थवत्ता लिए हुए हैं, जिसके माध्यम से समकालीन रचना और आलोचना दोनों का मार्ग आलोकित हो सकता है।




प्रो गीता नायक ने आचार्य त्रिपाठी से जुड़े हुए अनेक संस्मरण सुनाए।




डॉ देवेन्द्र जोशी ने कहा कि डॉ त्रिपाठी ने शास्त्र और साहित्य परंपरा के विविध विषयों पर कलम चलाई है। उनके समग्र चिंतन को पढ़ते हुए गूढ़ गंभीर चिंतक और सिद्धांतवादी की छवि उभरती है। लेकिन जब समूचे चिंतन की गहराई में उतरा जाता है तो उनका लेखन समाजोपयोगी होकर साहित्य और समाज का पथप्रदर्शक बन कर हमारे सामने आता है। कवि, आलोचक, शोधकर्ताओं और तंत्र उपासकों ने आचार्य त्रिपाठी के समूचे चिंतन को पढ़ा होता तो वे उस भटकाव से बच जाते जो आज के युग की बड़ी समस्या है। तंत्रशास्त्र हो अथवा आलोचनाशास्त्र, वे खामियों पर टिप्पणी ही नहीं करते हैं, उनका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। उनके समूचे चिंतन का आधार समाज और साहित्य में नैतिक मूल्यों की स्थापना कर मूल्य आधारित समाज की स्थापना करना रहा है। उन्होंने सुझाव दिया कि डॉ त्रिपाठी पर केंद्रित कार्यक्रम का विस्तार हो। उनके लेखन कर्म पर शिक्षण और शोध के स्तर पर सार्थक विमर्श हो।


डॉ पन्नालाल जी को उनके विशिष्ट योगदान के लिए अतिथियों द्वारा अंग वस्त्र, श्रीफल एवं प्रशस्ति पत्र अर्पित करते हुए आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी सम्मान से अलंकृत किया गया। अभिनंदन पत्र का वाचन वरिष्ठ गीतकार श्री सूरज उज्जैनी ने किया।






अतिथियों का स्वागत वरिष्ठ समाजसेवी श्री तुलसी मनवानी, सूरज उज्जैनी, अमिताभ त्रिपाठी, पद्मनाभ त्रिपाठी, अनिल पांचाल सेवक, डॉ राजेश रावल सुशील आदि ने किया। प्रारंभ में अतिथियों द्वारा आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की गई। 

अतिथि साहित्यकारों का सम्मान श्री धाम आश्रम की ओर से स्वामी महंत श्री श्यामदास जी महाराज ने किया। सरस्वती वंदना डॉ राजेश रावल सुशील ने की।




समारोह में श्री अक्षय कुमार चवरे, डॉ इसरार मोहम्मद खान, गौरीशंकर उपाध्याय, अनिल पांचाल, डॉ संदीप पांडेय, अभिजीत दुबे,  रामचंद्र जी पांचाल, ओम प्रकाश कुमायू, किशोर अलबेला, श्रीमती अनीता सोहनी, राधे दीदी, श्रीमती शीला तोमर आदि सहित अनेक साहित्यकार, संस्कृति कर्मी और गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।


संगोष्ठी का संचालन पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर हरिमोहन बुधौलिया ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ सदानंद त्रिपाठी ने किया।

20201227

प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा से सुखरामसिंह तोमर का साक्षात्कार | Interview with Prof. Shailendra Kumar Sharma

समय-समय पर नित नए माध्यमों और रूपों की तलाश करता है साहित्य – प्रो शर्मा

विदेशों में फहराया है डॉ शर्मा ने हिंदी का परचम

लेखक एवं आलोचक प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा से सुखरामसिंह तोमर  का साक्षात्कार)

समालोचक, निबंधकार और लोक संस्कृतिविद् डॉ. शैलेंद्रकुमार शर्मा का जन्म भारत के प्रमुख सांस्कृतिक नगर उज्जैन में हुआ। उन्होंने उच्च शिक्षा देश के प्रतिष्ठित विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से प्राप्त की। वर्तमान में वे विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभाग के आचार्य, विभागाध्यक्ष एवं कुलानुशासक के रूप में कार्यरत हैं। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए डॉ. शर्मा ने अनेक नवाचारी उपक्रम किए हैं, जिनमें विश्व हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र, मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केंद्र तथा भारतीय जनजातीय साहित्य एवं संस्कृति केंद्र, गुुुुरुनानक अध्ययन केंद्र एवं भारतीय भक्ति साहित्य केंद्र की संकल्पना एवं स्थापना प्रमुख हैं। 

प्रो शर्मा विगत तीन दशकों से आलोचना, नाटक तथा रंगमंच समीक्षा, लोकसाहित्य एवं संस्कृति के विमर्श, राजभाषा हिन्दी एवं देवनागरी के विविध पक्षों पर अनुसंधान एवं लेखन कार्य में निरंतर सक्रिय हैं। वे अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका अक्षरवार्ता के प्रधान संपादक हैं।



विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के गांधी अध्ययन केंद्र के निदेशक के रूप में उन्होंने विगत वर्ष महात्मा गांधी के 150 वें जयंती वर्ष पर देश – दुनिया की किसी भी संस्था के माध्यम से सर्वाधिक गतिविधियों और नवाचारों का समन्वय किया। साहित्य विश्व के लिए उनके समक्ष कुछ सवाल रखे तो उन्होंने इस प्रकार जवाब दिये-



साहित्य की ओर आपका रुझान कब से और कैसे हुआ?

साहित्य की ओर रुझान के पीछे मुख्य प्रेरक मेरे पिता स्वर्गीय श्री प्रेमनारायण शर्मा रहे हैं। उन्होंने मेरे बालपन से ही साहित्य के संस्कार डाले। वे स्वयं कानून के क्षेत्र से जुड़े हुए थे, किंतु उन्होंने साहित्य को उस शुष्क दुनिया से बाहर आने का और व्यापक संवेदना से जुड़ने का माध्यम बनाया था। वे अत्यधिक व्यस्त रहते थे, लेकिन अपने समय की श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं और रचनाओं के आस्वाद का अवसर निकालते थे। हमारे यहाँ कादंबिनी, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, नवनीत जैसी पत्रिकाएं नियमित रूप से आती थीं, वहीं श्रेष्ठ साहित्य के पठन का अवसर मिलता था। उन्हीं पत्रिकाओं और साहित्यिक कृतियों के साहचर्य से साहित्य के साथ जुड़ाव होता चला गया। फिर साइंस में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद अग्रज डॉ जगदीश चंद्र शर्मा ने हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए तैयार किया। 

उच्च अध्ययन और अनुसंधान के दौर में विख्यात समालोचक गुरुवर आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, आचार्य बच्चूलाल अवस्थी और आचार्य कमलेशदत्त त्रिपाठी के संपर्क में आया। उनकी प्रेरणा से लेखन को दिशा मिलती गई।


आपने अब तक कितनी पुस्तकों का लेखन और  सम्पादन किया है?


अब तक लगभग पैंतीस से अधिक पुस्तकों का लेखन एवं सम्पादन किया है। इनमें प्रमुख हैं, शब्दशक्ति संबंधी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा तथा हिन्दी काव्यशास्त्र, देवनागरी विमर्श, मालवा का लोकनाट्य माच और अन्य विधाएं, हिंदी भीली अध्येता कोश, महात्मा गांधी : विचार और नवाचार, सिंहस्थ विमर्श, हिन्दी भाषा संरचना, मालवी भाषा और साहित्य, अवन्ती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य, हिंदी कथा साहित्य, मालव सुत पं सूर्यनारायण व्यास, आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता, हरियाले आंचल का हरकारा : हरीश निगम, हिन्दी नाटक, निबंध तथा स्फुट गद्य विधाएँ एवं मालवी भाषा साहित्य, मालव मनोहर, हिंदी भाषा और नैतिक मूल्य, हरीश प्रधान- व्यक्ति और काव्य, स्त्री विमर्श : परंपरा और नवीन आयाम, ज्ञानसेतु आदि। इनके अलावा एक हजार से अधिक आलोचनात्मक निबन्ध, शोध आलेख एवं टिप्पणियों का लेखन किया है, जो देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।


आप विश्व में कई स्थानों पर गए हैं, वहां हिंदी की क्या स्थिति पाते हैं?


देश देशांतर में हिन्दी निरन्तर आगे बढ़ रही है। यह विदेशों में बसे करोड़ों भारतवंशियों के लिए भारतीय संस्कृति, मूल्यों और जीवनशैली के साथ जुड़े रहने का सेतु बना रही है। अपनी थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया, मॉरीशस और म्यांमार की यात्राओं के दौरान मैंने पाया कि वहाँ हिंदी के प्रयोग की अलग-अलग स्थितियाँ हैं।




आपको किन संस्थाओं द्वारा अब तक पुरस्कृत और सम्मानित किया गया?


अब तक प्राप्त प्रमुख सम्मानों की संख्या पच्चीस से अधिक है। इनमें उल्लेखनीय हैं, संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय सम्मान, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, अक्षरादित्य सम्मान, साहित्य सिंधु सम्मान, लोक संस्कृति सम्मान, आचार्य विनोबा भावे राष्ट्रीय देवनागरी लिपि सम्मान, अखिल भारतीय राजभाषा सम्मान, शब्द साहित्य सम्मान, अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, आलोचना भूषण सम्मान, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, हिन्दी भाषा भूषण सम्मान आदि।


आपके पसन्दीदा साहित्यकार कौन हैं?


पसन्दीदा साहित्यकार कई हैं। उनमें संस्कृत, हिंदी और मालवी के कवि, कथाकार, नाटककारों के साथ अनेक लोक कवि और वाचिक परम्परा की रचनाओं के कई अलक्षित – अज्ञात सर्जक भी हैं। फिर भी नामोल्लेख जरूरी हो तो वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, शूद्रक, कबीर, रैदास, पीपा जी, तुलसीदास, सूरदास, मीरा, रसखान, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, निराला, प्रसाद, अज्ञेय, मुक्तिबोध, हजारीप्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, कुबेरनाथ राय, सुरेंद्र वर्मा आदि मेरे प्रिय रचनाकार हैं। 


लोक कवियों में  आनंदराव दुबे, हरीश निगम, नरहरि पटेल, भावसार बा, बालकवि बैरागी आदि का नाम लेना चाहूंगा। इधर माच के खेलों में गुरु बालमुकुंद जी से लेकर श्री सिद्धेश्वर सेन तक कई माचकारों की रचनाएं पसंद हैं। फिर लोक कन्ठानुकंठ में जीवन्त लोकगीतों, कथा - वार्ताओं के अनाम रचनाकारों को कैसे विस्मृत कर सकता हूँ?


मोबाइल फोन में डूबी नई पीढ़ी साहित्य की ओर आकर्षित हो, इस हेतु क्या किया जाना आवश्यक है?


प्रो शर्मा : साहित्य समय-समय पर नित नए माध्यमों और रूपों की तलाश करता है। युवा पीढ़ी स्तरीय साहित्य से जुड़ना - पढ़ना चाहती है, किंतु उन तक साहित्य भली भांति पहुंच नहीं रहा है। उसके बजाय मन बहलाव और भटकाव देने वाली गैर जरूरी सामग्री पहुंच रही है। युवाओं में संवेदनशीलता के विस्तार के लिए साहित्य के साथ उन्हें जोड़ने की जरूरत है। इस दृष्टि से श्रेष्ठ सृजन को नए माध्यमों के साथ गतिशील बनाया जाए, यह आवश्यक है। 


हमारी परम्परा के महान रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं को डिजिटल रूप में लाने के साथ उन्हें दृश्य - श्रव्य माध्यमों के जरिए भी उन तक पहुंचाया जाए। इसी तरह बालपन से ही साहित्य के संस्कार डाले जाने आवश्यक है। इस दिशा में शैक्षणिक और साहित्यिक संस्थाएं, पत्र – पत्रिकाएं, सोश्यल मीडिया और वेबसाइट्स महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। 


- सुखरामसिंह तोमर, अक्षर विश्व 

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